हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियाँ थी। नरपत काका के चारों बेटे खेतों में जी-जान से जोर लगा रहे थे। उम्मीदें सबकी ये थी कि इस बार खूब फसल होनी चाहिए। फसल से जो कमाई होगी, बाबा वह जरूर हमारी शिक्षा पर खर्च करेंगे।
नरपत काका अपना पेट मसोस कर बच्चों की अच्छी तालीम का हर संभव प्रयास करते रहते थे। प्राथमिक से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई, ४-४ बेटों का लाखों का खर्च…। काका की २-४ बीघा जमीन से कैसे तैयार हो पाता, ये तो वही जाने। काका का कोई सरकारी रोजगार भी तो नहीं है ना।
अबकी चारों कॉलेज से अच्छी डिग्रियाँ लेकर प्रशिक्षण की जिद पर अड़े हुए हैं। काका भी दिल से प्रशिक्षण कराने की सोचता है। जानता है कि प्रशिक्षण के बिना सरकारी नौकरियाँ नहीं मिलने वाली, पर माली हालत इजाजत नहीं देती है। २-४ बीघा जमीन है, उसे बैंक में गिरवी रखकर बड़े वाले को डिग्री के बाद शहर में प्रशिक्षण हेतु भेज देते हैं। कुछ फसल का जुगाड़ था और कुछ ऋण बैंक से ले लिया। बाकी के तीनों को ढांढस बंधाता है- “बच्चों तुम अभी छोटे हो। भैया जब प्रशिक्षण पूरा कर लेगा ना, तब तुम्हें भी बारी-बारी से मौका दूंगा।”
बाबा की आँखों की कोरों पर आते आँसुओं को देखकर सब सहमत हो जाते हैं। लाखों का डोनेशन देकर बड़े वाला साल भर का प्रशिक्षण ले जब घर लौटता है, तब तक तीनों बेटों और बाप ने एड़ी-चोटी का दम लगा कर बैंक का हिसाब-किताब चुकता कर दिया था। वह तो कृषि कार्ड की सीमा थी, उसी से पैसा निकाल कर दूसरे को उसकी डिग्री के हिसाब से प्रशिक्षण को भेज दिया। उसका भी कुछ यूँ ही निभा, पर इस बार दिक्कत कुछ ज्यादा रही। सूखे की मार फसलों से इतनी कमाई नहीं करवा पाई, जितनी पिछली बार हुई थी। फिर भी आस-पड़ोस में मेहनत-मजदूरी करके सब लोगों ने मिलकर इस बार का खाता भी क्लियर कर लिया था। इसी कदर तीसरे का भी कुछ यूँ ही बीता।
अब छुटकू की बारी थी। उसकी जिद डॉक्टरी करने की थी। तीनों बड़े भाइयों ने भी नरपत काका को यह कह कर मना लिया “बाबा छुटकू ठीक कहता है, हमारे पूरे इलाके में कोई डॉक्टर नहीं है। छुटकू है भी तेज, कर लेने दो उसे डॉक्टरी। परिवार के साथ-साथ सबका भला हो जाएगा।”
“तुम्हारी मत मारी गई है। लाखों का खर्चा होता है उस पर। कहाँ से आएगा इतना पैसा ? कर लेने दो इसे भी कोई छोटा-मोटा डिप्लोमा। फिर ढूंढो कहीं नौकरियाँ ? मेरे पास इतना पैसा नहीं है।” नरपत काका कुछ रूखे से बोले।
छुटकू आँगन के पीपल के नीचे बैठकर सुबकियाँ भर रहा है। तीनों बड़ों ने मान-मनौती करके बाबा को मना लिया और छुटकू को डॉक्टरी के लिए भेज दिया, पर इस बार सौदा कुछ महंगा था। ऐसे में नरपत काका को अपनी २-४ बीघा जमीन से एक-आध बीघा को जड़ से बेच देना पड़ा।
छुटकू के जाने के बाद नरपत काका और पत्नी उस दिन शाम को उसी पीपल के नीचे बैठे-बैठे बतिया रहे थे,-“पगली आज मैंने अपनी माँ को बेचा है। और करता भी क्या ? बच्चों ने मजबूर कर दिया।” यह कहते-कहते नरपत काका की आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। उनके साथ काकी की आँखों से भी अश्रुपात होने लगा, लेकिन बच्चों को देखकर दोनों हड़बड़ाहट में आँसू पोंछ लेते हैं।
चारों बाप-बेटों ने दिन रात मेहनत की। एक दिन छुटकू डॉक्टर बनकर के लौट आता है। घर में खुशी का माहौल है। नरपत काका और काकी बहुत खुश है। आस-पड़ोस के लोग भी उन्हें बधाइयाँ देने लगे हैं।
“ओ यार नरपत,अब तो तू जिम्मेवारियों से मुक्त हो गया भाई।” रामलू काका कह रहे थे।
“कहाँ ओ यार रामलू भाई ? अभी तो इनके विवाह करने रह गए।” नरपत काका माथे पर हाथ फेरते हुए कहते हैं।
चारों बेटों ने सरकारी नौकरियाँ पाने के लिए लंबे समय तक इंतजार किया, पर कोई सरकारी नौकरी की अधिसूचना ही जारी नहीं हो पा रही है। एक दिन डॉक्टरी की पोस्ट भरने की अधिसूचना निकली भी थी। वह भी किसी अदालती प्रकरण के चलते रद्द कर दी गई। बड़े वाले तीनों निजी कंपनियों में बहुत कम वेतनमान पर नौकरी करने लगे हैं। हालत यह है कि शहरी जीवन में रहते-रहते उस वेतन से महीने भर के लिए अपने पेट का ही गुजारा नहीं होता। क्वार्टर का किराया, राशन-पानी, बिजली का भाड़ा और एक-आध घर का चक्कर… बस सब उसी में खत्म। काका की हालत आज भी ज्यों की त्यों है।
बड़े वाले की शादी तय कर दी गई है। जेब में खर्चने को दमड़ी भी नहीं है। फिर से एक-आध बीघा जमीन बेच दी जाती है। आज काका फिर से दुखी है।
एक दिन चारों भाई शाम को आँगन में बैठकर बतिया रहे हैं,- “अरे भाई न जाने यह कैसी शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था है ? इतनी महंगी पढ़ाई हासिल कर भी ढंग की नौकरी ना तो सरकारी क्षेत्र में नसीब हो पाती है और ना ही निजी क्षेत्र में। सरकारें वादे तो बड़े-बड़े करती है, पर तोड़ती डक्का नहीं।” छुटकू बड़े तैश से बोल रहा था।
“हाथी के दांत खाने के और तथा दिखाने के और वाली कहावत है यह छुटकू। आखिर दोषी कौन ?” सबसे बड़े वाले ने विलक्षण स्वरों से जवाब दिया।
इतने में अंदर से आवाज आती है,-“अजी सुनते हो! खाना तैयार है।” सब खाना खाने चले जाते हैं।