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द्वारिकाधीश

ज्ञानवती सक्सैना ‘ज्ञान’
जयपुर (राजस्थान)

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जन्माष्टमी विशेष…..


दुनिया कहती द्वारकाधीश,
पर मुझे मिला नहीं आशीष।

सारा वैभव लगे है फीका और मन मेरा कंगाल,
तुम बिन राधे मिला न ख़ुद से,सब-कुछ लगता है जंजाल।

राजकाज में ऐसा उलझा है सर काँटों का ताज,
हृदय विदीर्ण करें सब वैभव,मेरे मन के साज़।

छूटा गोकुल,छूटा वृंदावन,छूटे प्रिय गैया और ग्वाल,
छप्पन भोग धरे हैं आगे तरसे माखन को गोपाल।

बिसार स्वयं को प्रजा हित रत,बाँसुरियाँ बिन बेचैन अधर,
किसे सुनाऊँ,किसे समझाऊँ मैं अपने दिल का हाल।

तुम बिन सेज रही काँटों की,सबको रखना है ख़ुशहाल,
तुम बिन पल भी लगे युगों-सा,कैसी चली समय ने चाल।

पलक मूँदते हर पल होते राधिका तेरे ही दीदार,
फ़र्ज़ तले गुम चाह आह सब मेरी,मुझको है धिक्कार।

दुनिया कहती द्वारकाधीश,
पर मुझे मिला नहीं आशीष॥

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