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नए विश्व के प्रणेता थे आचार्य महाप्रज्ञ

ललित गर्ग

दिल्ली
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जन्म दिवस (२३ जून) विशेष…

प्राचीन समय से लेकर आधुनिक समय तक अनेक साधकों, आचार्यों, मनीषियों, दार्शनिकों, ऋषियों ने अपने मूल्यवान अवदानों से भारत की आध्यात्मिक परम्परा को समृद्ध किया है, उनमें प्रमुख नाम रहा है-आचार्य महाप्रज्ञ। अपने समय के संत एवं मनीषी के रूप में जिनका नाम अत्यंत आदर एवं गौरव के साथ लिया जाता है। वे ईश्वर के सच्चे दूत थे, जिन्होंने जीवनमूल्यों से प्रतिबद्ध एक आदर्श समाज रचना का साकार किया है। वे ऐसे क्रांतद्रष्टा धर्मगुरु थे, अनूठे एवं गहन साधक थे, जिन्होंने जन-जन को स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार की क्षमता प्रदत्त की। इन सब विशेषताओं और विलक्षणताओं के बावजूद उनमें तनिक भी अहंकार नहीं था। आचार्य महाप्रज्ञ का जन्म हिन्दू तिथि के अनुसार विक्रम संवत १९७७ आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी को राजस्थान के झुंझनू जिले के गाँव टमकोर गाँव में हुआ।
आचार्य महाप्रज्ञ बीसवीं सदी के उत्तर्राद्ध एवं इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ के ऐसे पावन एवं विलक्षण अस्तित्व थे, जिनकी विचार दृष्टि से सृष्टि का कोई भी कोना, कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा। विस्तृत ललाट, करुणामय नेत्र तथा ओजस्वी वाणी-ये थे आपकी प्रथम दर्शन में होने वाली बाह्य पहचान। आपका पवित्र जीवन, पारदर्शी व्यक्तित्व और उम्दा चरित्र हर किसी को अभिभूत कर देता था, अपनत्व के घेरे में बाँध लेता था। आपकी आंतरिक पहचान थी-अंतःकरण में उमड़ता हुआ करुणा का सागर, सौम्यता और पवित्रता से भरा आपका कोमल हृदय। इन चुंबकीय विशेषताओं के कारण आपके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति आपकी अलौकिकता से अभिभूत हो जाता था। इसका मूल उद्गम केंद्र था-लक्ष्य के प्रति तथा अपने परम गुरु आचार्य तुलसी के प्रति समर्पण भाव।
आचार्य महाप्रज्ञ को हम बीसवीं एवं इक्कीसवीं सदी के एक ऐसी आलोकधर्मी परंपरा का विस्तार कह सकते हैं, जिसको महावीर, बुद्ध, गांधी और आचार्य तुलसी ने आलोकित किया है। अतीत की यह आलोकधर्मी परंपरा धुंधली होने लगी, तो इस धुंधली होती परंपरा को आचार्य महाप्रज्ञ ने एक नई दृष्टि प्रदान की थी। इस नई दृष्टि ने एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात किया था।प्रेक्षा ध्यान की कला और एक नए मनुष्य-आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व के जीवन-दर्शन को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए वे प्रयत्नशील थे। उनके इन प्रयत्नों में न केवल भारत देश के लोग, बल्कि पश्चिमी राष्ट्रों के लोग भी जीवन के गहरे रहस्यों को जानने और समझने के लिए उनके इर्द-गिर्द देखे गए थे। आचार्य महाप्रज्ञ ने उन्हें बताया कि ध्यान ही जीवन में सार्थकता के फूलों को खिलाने में सहयोगी सिद्ध हो सकता है।
आचार्य महाप्रज्ञ जितने दार्शनिक थे, उतने ही सिद्ध योगी भी थे। वे दर्शन की भूमिका पर खड़े होकर अपने समाज और देश की ही नहीं, विश्व की समस्याओं को देखते थे। जो समस्या को सही कोण से देखता है, वही उसका समाधान खोज पाता है। उन्होंने हिंसा, आतंक एवं युद्ध की समस्या के समाधान के लिए राजनीति, समाज और धर्म के लोगों से मिल-जुलकर प्रयत्न करने का आह्वान किया। इसी ध्येय को लेकर उन्होंने समान विचारधारा के लोगों को एक मंच पर लाने का प्रयत्न किया और उसे नाम दिया अहिंसा समवाय। कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, रैदास, मीरा आदि की परंपरा से ऐसे जीवन मूल्यों को चुन-चुनकर युग की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य उन्होंने किया। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों-विचारों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, मंत्र, यंत्र, साधना, ध्यान आदि के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है।
जीवन के नौवें दशक में आचार्य महाप्रज्ञ का विशेष जोर अहिंसा पर रहा। इसका कारण सारा संसार हिंसा के महाप्रलय से भयभीत और आतंकित होना था। इन विविध प्रयत्नों में उनका एक अभिनव उपक्रम था-‘अहिंसा यात्रा’। अहिंसा यात्रा ऐसा आंदोलन बना, जो समूची मानव जाति के हित का चिंतन कर रहा था। अहिंसा की योजना को क्रियान्वित करने के लिए ही उन्होंने पदयात्रा के सशक्त माध्यम को चुना। ‘चरैवेति-चरैवेति चरन् वै मधु विंदति’ उनके जीवन का विशेष सूत्र बन गया। राजस्थान के सुजानगढ़ क्षेत्र से उन्होंने अहिंसा यात्रा को प्रारंभ किया, जो गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, दिल्ली एवं महाराष्ट्र में अपने अभिनव एवं सफल उपक्रमों के साथ विचरण करते हुए असंख्य लोगों को अहिंसा का प्रभावी प्रशिक्षण दिया एवं हिंसक मानसिकता में बदलाव का माध्यम बनी। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को पोकरण परीक्षण के पश्चात अणुबम नहीं, अणुव्रत, हिंसा नहीं अहिंसा, युद्ध नहीं, अयुद्ध की प्रेरणा देकर उनकी जीवन-दिशा को बदलने वाले आचार्य महाप्रज्ञ ही थे।
आचार्य महाप्रज्ञ की महानता से जुड़े अनेक पक्ष हैं। उनमें महत्वपूर्ण पक्ष है उनकी संत चेतना, सोच में अहिंसा, दर्शन में अनेकांतवाद, भाषा में कल्याणकारिता, हाथों में पुरुषार्थ और पैरों में लक्ष्य तक पहुँचने की गतिशीलता। कहा जा सकता है कि आचार्य महाप्रज्ञ ऐसे सृजनधर्मा साहित्यकार, विचारक एवं दार्शनिक मनीषी थे जिन्होंने प्राचीन मूल्यों को नए परिधान में प्रस्तुत किया। वे अध्यात्म-चेतना को परलोक से न जोड़कर वर्तमान जीवन से जोड़ने की बात कहते थे। उनका साहित्य केवल मुक्ति का पथ ही नहीं, वह शांति का मार्ग है, जीवन जीने की कला है, जागरण की दिशा है और रूपांतरण की सजीव प्रक्रिया है। उनका साहित्य जादू की छड़ी है, जो जन-जन में आशा का संचार करती रही है।

आचार्य महाप्रज्ञ के निर्माण की बुनियाद भाग्य भरोसे नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, पुरुषार्थी प्रयत्न और तेजस्वी संकल्प से बनी थी। हम समाज एवं राष्ट्र के सपनों को सच बनाने में सचेतन बनें, यही आचार्य महाप्रज्ञ की प्रेरणा थी और इसी प्रेरणा को जीवन-ध्येय बनाना उस महामानव के जन्म दिवस को मनाने की सच्ची सार्थकता है।