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पर्यावरण रक्षा-पूजा का अनूठा पर्व ‘सरहुल’

डॉ. आशा गुप्ता ‘श्रेया’
जमशेदपुर (झारखण्ड)
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फागुनी सुगंधित बयार में प्रकृति का अनुपम सौंदर्य मानव जीवन में दैविक शक्ति और आशीष का अनुभव कराता है। हमारे जीवन में प्रकृति की भूमिका सदा अतुलनीय रही है, और रहेगी, पर आज के आधुनिक युग में कहीं न कहीं हम सब इसको समझ नहीं पाते हैं। जब अवसर निकाल प्रकृति के सानिध्य में होते हैं, तो असीम शांति से आनंदित होते हैं। वैसे प्रकृति-पर्यावरण की रक्षा करने की अनेक बातें होती हैं, और सैंकड़ों आयोजन किए जाते हैं, फिर भी हम मानव प्राणी सत्य कहाँ समझते हैं।
आदिवासी समुदाय द्वारा मनाए जाने वाले पावन ‘सरहुल’ पर्व में हरे-भरे पेड़ों की पूजा की जाती है, ताकि धरती पर सदा हरियाली रहे। प्रकृति के प्रति उनकी कृतज्ञता के प्रतीक आदिम ‘सरहुल पूजा’ पर्व में वन पूजा के गीत युगों से होते आ रहे हैं। जब वसुंधरा अनुपम श्रृंगार कर सजती
दमकती है…, वनों में खिला नारंगी पलाश दमकता है…, चारों दिशाएं, वन-खेत लहलहाते हैं…, रंग-बिरंगी कुसुम कलियाँ खिलती हैं…, तरूण आम्र की डाली पर मंजर झूमता है… तब-तब धरा पर आस्था के अनेक सुंदर आयोजन- रंग दिखते हैं।
इस समय बसंत पंचमी, होली, महाशिवरात्रि, नव वर्ष प्रतिपदा, चैत्र नवरात्र, चैती छठ और रामनवमी आदि विशेष पूजन उत्सव होते हैं।
आदिवासी समुदाय नव वर्ष का स्वागत-सत्कार सप्ताह-महीने तक करते हैं, जिसमें उत्साहित पुरूष- बच्चे-बुजुर्ग सभी सामूहिक लय- ताल पर हँसते मुस्कुराते नृत्य गीत की लय-ताल छेड़ते हुए ‘सरहुल’ पर्व श्रद्धा-उल्लास से मनाते हैं।
झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा व बंगाल में हमारे सहज-सरल आदिवासी जन समुदाय गोंड, मुंडा, उराँव, पहाड़िया, असुर, बडाइक जैसी जनजातियाँ ‘सरहुल’ का अनुपम त्योहार चैत्र शुक्ल तृतीया से मनाना शुरू करते हैं, और यह महीनेभर चलता है।
यह आदिवासी समाज का प्रमुख बसंत त्योहार है। पर्यावरण सुरक्षा और सजगता का ये सुंदर त्योहार सदियों से मनाया जा रहा है। ‘सरहुल’ शब्द विन्यास का अर्थ सर याने ‘साल’ और हुल का मतलब ‘पर्व या आंदोलनायक’ उत्सव है। मुख्यधारा में आम और आदिवासी समाज में साल वनों की पूजा की जाती है। साल पेड़ों का बौद्ध धर्म से भी संबंध है। भगवान बुद्ध का देहान्त २ साल वृक्ष की छाया में हुआ था। बुद्ध संप्रदाय में भी साल वृक्षों की पूजा की जाती है-
‘आया नव वर्ष सरहुल पूजा का अनुपम त्योहार…,
सुगंधित सरई फूलों से सजा केश झूमर है दुलार…
सरहुल की शोभा बढा़ती ढोल मांदर की है थाप…,
पूजाकरें जन मन ऊँचे साल रक्षा नव वृक्ष अपार…।’
पर्व के समय महिलाएं घर-आँगन की सुंदर लिपाई कर उनको प्राकृतिक कलाकारी से दमकाती- सजाती हैं। फूलों से अपना श्रृंगार करती हैं। सरई के फूलों से केश सजाती हैं, पुरूष भी पत्तियों से सजते हैं। उल्लास, आस्था, भक्ति और प्रेम वाला ‘सरहुल’ असीम श्रद्धा का प्रतीक है। इसमें साल वृक्ष की पूजा और महुआ (हँडिया) की विशेषता है।
सांस्कृतिक मान्यता की मुख्यधारा में जहाँ आम पवित्र पेड़ व फल है, और पत्तियों से टहनी तक हवन के लिए उपयोग होते हैं, इसके विपरीत आदिवासी समुदाय में ‘सरहुल’ वन रक्षा का प्रण लेने का त्योहार है।
आदिवासी जन बडे़ पैमाने पर साल, गुलर, बाँस, तेंदू और चीड़ के पेड़ों को रोपते हैं, एवं इनके विशाल पेड़ों को पूजते हैं। यही पेड़ धरती के जैव मंडल को आक्सीजन से भर देते हैं। आदिवासी इन जीवनदायी पेड़ों को अपना पुरखा मानते हैं।
इसलिए, सरहुल पुरखौती गीतों का अनुपम त्योहार है। आदिम लगाव के कारण वन रक्षा और सुरक्षा के लिए जान तक देने वाले ऐसे उदाहरण केवल आदिवासियों में ही पाए जाते हैं।
साल का वृक्ष आदिवासियों के लिए सामाजिक और आर्थिक महत्व का है। इस बहुपयोगी पेड़ की लकड़ी, फल-फूल, पत्ता, छाल व बीज सब काम में आता है। इसलिए साल की पूजा रक्षक और सर्जनशील औरतों के समूह के रूप में की जाती है। साल की पूजा के पीछे कुछ मिथक और ऐतिहासिक कारण भी हैं। ऐसी मान्यता है, कि धरती कन्या है, जो बढ़कर विवाह योग्य हो जाती है, तब सूरज धरती से प्रणय निवेदन करते हैं, और धरती के प्यार में ढेर सारी धूप धरती पर उड़ेलते हैं। सूरज के प्रेम से प्रसन्न धरती का रोम-रोम धन-धान्य और ऐश्वर्य से भर जाता है। तब पाहन (गाँव का पुजारी) साल के फूलों से धरती का श्रृंगार कर दोनों प्रेमियों का विवाह कराते हैं, यानी धरती का हाथ सूरज को सौंपते हैं।
‘सरहुल’ पूजा अर्थात साल वृक्ष पूजा और धरती के विवाह के पश्चात ही आदिवासी समुदाय नयी फसल को चखते हैं। सारी फसल पर धरती और सूरज का ही अधिकार है, ये ऐसा मानते हैं। इस तरह इस पर्व की शिक्षा के कारण आदिवासी समुदाय में कन्या पक्ष से दहेज की परम्परा विकसित नहीं हुई।
इसी तरह उड़ाव समुदाय में धरती पर पहले केकड़ा और मछली की मान्यता है। केकड़े ने समुद्र से माटी निकाल धरती का निर्माण किया और मछली ने इसमें सहयोग दिया। अत:, दोनों प्राणी पूजनीय हैं। इन्हीं कारणों से आदिवासियत, सरना धर्म और सिंगबोगा को महत्व देते हुए झारखंड तथा छत्तीसगढ़ राज्य ने साल वृक्ष को राज्य वृक्ष का दर्जा दिया है। इस पूजा में सब जन पाहन (पुजारी) की प्रार्थना को दोहराते हैं-
‘मैं हवा पानी बाँधता हूँ,
धरती आकाश बाँधता हूँ
नौ जंगल देशों दिशाएं बांधता हूँ,
लाख पशु परेवा बांधता हूँ
सवा जड़ी-बूटी बांधता हूँ…।’
आदिवासी जन के अनुसार हवा, पानी, मिट्टी, पेड़-पौधे, नदी, साल और बड़े वृक्ष, सब जीव, नदी सब जीवन के आधार हैं। वे पुरखौती गीतों में इनसे प्रार्थना और रक्षा की कामना करते हैं। वे देवता से आकाश, दशों दिशाएं नौ जंगल, पशु, जडी़-बूटी की कामना करते हैं। सबके घर-बार सुखी सम्पन्न होने की विनती करते हैं। इस खास अवसर पर स्त्री-पुरूषों द्वारा ताल पर ताल मिला कर सामूहिक नाच- गान से पहाड़ गूँज उठता है। पक्षी पशु और वन भी झूमने लगते हैं। ऐसे उत्तम पर्यावरण रक्षा आस्था की पूजा ‘सरहुल’ पर्व को समर्पित पंक्तियाँ-
आस्था के रूप धरा पर देखते हैं रंग अपार,
धरती-आकाश दमके प्रकृति का ये श्रृंगार
जंगल-जंगल, कोने-कोने खेत-औ-खलिहान,
उल्लास आस्था प्रेम भक्ति है सरहुल त्योहार।

लीपे-सजे-दमके हैं चौखट चौपाल औ घर-द्वार,
हवा पानी मिट्टी पेड़ जीव सब हैं जीवन आधार।
रंग-बिरंगी खिलती रहें कुसुम अधखिली कलियाँ,
पुरखौती गीतों का मान्य सुंदर ‘सरहुल’ त्योहार॥’

परिचय- डॉ.आशा गुप्ता का लेखन में उपनाम-श्रेया है। आपकी जन्म तिथि २४ जून तथा जन्म स्थान-अहमदनगर (महाराष्ट्र)है। पितृ स्थान वाशिंदा-वाराणसी(उत्तर प्रदेश) है। वर्तमान में आप जमशेदपुर (झारखण्ड) में निवासरत हैं। डॉ.आशा की शिक्षा-एमबीबीएस,डीजीओ सहित डी फैमिली मेडिसिन एवं एफआईपीएस है। सम्प्रति से आप स्त्री रोग विशेषज्ञ होकर जमशेदपुर के अस्पताल में कार्यरत हैं। चिकित्सकीय पेशे के जरिए सामाजिक सेवा तो लेखनी द्वारा साहित्यिक सेवा में सक्रिय हैं। आप हिंदी,अंग्रेजी व भोजपुरी में भी काव्य,लघुकथा,स्वास्थ्य संबंधी लेख,संस्मरण लिखती हैं तो कथक नृत्य के अलावा संगीत में भी रुचि है। हिंदी,भोजपुरी और अंग्रेजी भाषा की अनुभवी डॉ.गुप्ता का काव्य संकलन-‘आशा की किरण’ और ‘आशा का आकाश’ प्रकाशित हो चुका है। ऐसे ही विभिन्न काव्य संकलनों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में भी लेख-कविताओं का लगातार प्रकाशन हुआ है। आप भारत-अमेरिका में कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्ध होकर पदाधिकारी तथा कई चिकित्सा संस्थानों की व्यावसायिक सदस्य भी हैं। ब्लॉग पर भी अपने भाव व्यक्त करने वाली श्रेया को प्रथम अप्रवासी सम्मलेन(मॉरीशस)में मॉरीशस के प्रधानमंत्री द्वारा सम्मान,भाषाई सौहार्द सम्मान (बर्मिंघम),साहित्य गौरव व हिंदी गौरव सम्मान(न्यूयार्क) सहित विद्योत्मा सम्मान(अ.भा. कवियित्री सम्मेलन)तथा ‘कविरत्न’ उपाधि (विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ) प्रमुख रुप से प्राप्त हैं। मॉरीशस ब्रॉड कॉरपोरेशन द्वारा आपकी रचना का प्रसारण किया गया है। विभिन्न मंचों पर काव्य पाठ में भी आप सक्रिय हैं। लेखन के उद्देश्य पर आपका मानना है कि-मातृभाषा हिंदी हृदय में वास करती है,इसलिए लोगों से जुड़ने-समझने के लिए हिंदी उत्तम माध्यम है। बालपन से ही प्रसिद्ध कवि-कवियित्रियों- साहित्यकारों को देखने-सुनने का सौभाग्य मिला तो समझा कि शब्दों में बहुत ही शक्ति होती है। अपनी भावनाओं व सोच को शब्दों में पिरोकर आत्मिक सुख तो पाना है ही,पर हमारी मातृभाषा व संस्कृति से विदेशी भी आकर्षित होते हैं,इसलिए मातृभाषा की गरिमा देश-विदेश में सुगंध फैलाए,यह कामना भी है