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पिछड़े की कोई जाति नहीं होती

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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सर्वोच्च न्यायालय के एक प्रश्न के जवाब में भारत सरकार का यह कहना पूर्णतया तर्कसंगत है कि जनगणना करते समय अन्य पिछड़ी जातियों की जनगणना नहीं की जाएगी। महाराष्ट्र सरकार ने अदालत से कहा है कि वह केन्द्र सरकार को यह निर्देश दे कि वह इस साल हो रही जनगणना में पिछड़ी जातियों की भी गणना करे। महाराष्ट्र की शिवसेना और कांग्रेस की गठबंधन सरकार का तर्क यह है कि २०११ की जनगणना में सरकार ने एक आयाम जोड़ा था,जिसके अंतर्गत जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर आँकड़े इकट्ठे किए गए थे। सरकार ने वे आँकड़े उस वक्त जाहिर नहीं किए थे,उन्हें वह अब जाहिर करे। इस तर्क को रद्द करते हुए सरकार ने कहा है कि उस समय इकट्ठे किए गए आँकड़े इतने अजीबो-गरीब थे कि उन्हें जाहिर करना उचित नहीं होता। यह ठीक है कि अब तक सिर्फ अनुसूचित जातियों और कबीलों की गणना की गई है। जहां तक पिछड़ों की गणना का सवाल है,पहली बात तो यह है कि हर जाति के लोग अपने-आपको पिछड़ा बताने के लिए तैयार हो जाते हैं,क्योंकि नौकरियों में आरक्षण की चूसनी उनके लिए लटकाई जाएगी। उसका नतीजा यह होना है कि किसी प्रदेश के एक जिले में जो जाति सवर्ण है,वही दूसरे प्रदेश के अन्य जिले में पिछड़ी है। अकेले महाराष्ट्र में जो हुआ,वही हमारे लिए बड़ा सबक है। महाराष्ट्र की आबादी १०.३ करोड़ है। उसमें से १.१७ करोड़ ने लिखाया कि उनकी कोई जाति नहीं है। शेष लोगों ने अपनी-अपनी जातियां लिखवाई, जिनकी संख्या ४.२८ लाख थी। इनमें अनुसूचित और पिछडी जातियों की संख्या सिर्फ ४९४ थी। इनमें भी ज्यादतर जातियों में १०० से ज्यादा लोग नहीं होते थे। १९३१ की जनगणना में जातियों की संख्या पूरे भारत में ४१४७ थी,लेकिन २०११ की जनगणना में उनकी संख्या छलांग मारकर ४६ लाख तक पहुंच गई। किसी भी व्यक्ति की जाति को निर्धारित करने का कोई निश्चित वैज्ञानिक पैमाना नहीं है। वह जो कह दे,वही सही है। सच्चाई तो यह है कि पिछड़ा,पिछड़ा होता है। उसकी कोई जाति नहीं होती। हर जाति में पिछड़े हैं और हर जाति में अगड़े हैं। इसीलिए जनगणना करने वाले बाबू लोग कभी-कभी बड़े विभ्रम में पड़ जाते हैं। वे देखते हैं कि गाँवों के बड़े-बड़े जमींदार, जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं,वह अपनी जात के आधार पर अपने को पिछड़ों में शामिल करवा लेते हैं। सरकार ने २०११ में पिछड़ेपन का सर्वेक्षण करवाया था। उसमें जाति संबंधी जानकारी भी मांग ली जाती थी लेकिन २०१०-११ में चले हमारे सर्वदलीय ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ आंदोलन ने इतना तगड़ा दबाव बनाया कि सरकार ने उन आँकड़ों को प्रकट ही नहीं किया। वर्तमान भाजपा सरकार का यह संकल्प स्वागत योग्य है कि वह जातिय जनगणना नहीं करवाएगी। महाराष्ट्र सरकार में शामिल सभी वर्तमान और पूर्व कांग्रेसियों को अपनी महान परम्परा का पालन करते हुए जातिय जनगणना का विरोध अवश्य करना चाहिए।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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