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पिता:प्रेरणा, प्रकाश और पुत्र के व्यक्तित्व की सुघड़ता

ललित गर्ग

दिल्ली
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उनकी साँसों से मेरी खुशियाँ (पिता दिवस विशेष)…

पिता एक ऐसा शब्द, जिसके बिना किसी के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक ऐसा पवित्र रिश्ता, जिसकी तुलना किसी और से नहीं हो सकती। बचपन में जब कोई बच्चा चलना सीखता है, तो सबसे पहले अपने पिता की उंगली थामता है। नन्हा-सा बच्चा पिता की उँगली थामे और उसकी बाँहों में रहकर बहुत सुकून पाता है। बोलने के साथ ही बच्चे जिद करना शुरू कर देते हैं और पिता उनकी सभी जिदों को पूरा करते हैं। बचपन में चॉकलेट, खिलौने दिलाने से लेकर युवावर्ग तक बाइक, कार, लैपटॉप और उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने तक संतान की सभी माँगों को वो पूरा करते रहते हैं, लेकिन एक समय ऐसा आता है जब भाग-दौड़ भरी इस जिंदगी में बच्चों के पास अपने पिता के लिए समय नहीं मिल पाता है। इसी को ध्यान में रखकर पितृ दिवस मनाने की परंपरा का आरम्भ हुआ।
सोनेरा डोड जब नन्हीं-सी थी, तभी उनकी माँ का देहांत हो गया। पिता विलियम स्मार्ट ने सोनेरो के जीवन में माँ की कमी नहीं महसूस होने दी और प्यार दिया। एक दिन यूँ ही सोनेरा के दिल में ख्याल आया कि, आखिर एक दिन पिता के नाम क्यों नहीं हो सकता ? इस तरह १९ जून (१९१०) को पहली बार ‘पितृ दिवस’ मनाया गया। फिर १९६६ में राष्ट्रपति लिंडन जानसन ने जून के तीसरे रविवार को इसे मनाने की आधिकारिक घोषणा की। जर्मनी में इसकी परंपरा चर्च और यीशू मसीह के स्वर्गारोहण से जुड़ी हुई है। आम धारणा के विपरीत वास्तव में यह सबसे पहले पश्चिम वर्जीनिया के फेयरमोंट में ५ जुलाई १९०८ को मनाया गया था। किया था।
मानवीय रिश्तों में दुनिया में सबसे बड़ा स्थान माँ को दिया जाता है, लेकिन बच्चे को बड़ा और सभ्य बनाने में उसके पिता का योगदान कम करके नहीं आँका जा सकता। बच्चे को जब खरोच लग जाती है, तो जितना दर्द माँ महसूस करती है, वही पिता भी महसूस करते हैं। यह अलग बात है कि, बेटे को चोट लगने पर माँ पुचकार देती है, चोट लगी जगह पर फूंक की ठंडक देती है, वहीं पिता चोट पर व्यथित तो होता है, लेकिन उसे बेटे के सामने मजबूत बने रहना है। ताकि, बेटा उसे देख कर जीवन की समस्याओं से लड़ने का पाठ सीखे, सख्त एवं निडर बनकर जिंदगी की तकलीफों का सामना करने में सक्षम हो। माँ ममता का सागर है पर पिता उसका किनारा है। माँ से स्वर्ग है, बैकुंठ, चारों धाम है, पर इन सबका द्वार तो पिता ही है। उन्हीं पिता के सम्मान में आज आधुनिक समाज में पिता-पुत्र के संबंधों की संस्कृति को जीवंत बनाने की अपेक्षा है।
एक शिल्पकार प्रतिमा बनाने के लिए जैसे पत्थर को कहीं काटता है, कहीं छांटता है, कहीं तल को चिकना करता है, कहीं तराशता है तथा कहीं आवृत को अनावृत करता है, वैसे ही मेरे पूज्य पिताश्री रामस्वरूप गर्ग जी ने मेरे व्यक्तित्व को तराशकर उसे महनीय और सुघड़ रूप प्रदान किया। आज वे देह से विदेह होकर भी हर पल मेरे साथ प्रेरणा के रूप में, शक्ति के रूप में, संस्कार के रूप में रहते हैं। हर पिता अपने पुत्र की निषेधात्मक और दुष्प्रवृत्तियों को समाप्त करके नया जीवन प्रदान करता है। वरुण जल का देवता होता है। जैसे जल वस्त्र आदि के मैल को दूर करता है, वैसे ही पिता पुत्र की मानसिक कलुषता को दूर कर सद्संस्कारों का बीजारोपण करता है एवं उसके व्यक्तित्व को नव्य और स्वच्छ रूप प्रदान करता है। जैसे चन्द्रमा सबको शांति और अह्लाद प्रदान करता है, वैसे ही पिता की प्रेरणाएं पुत्र को मानसिक प्रसन्नता और परम शांति देती है। जैसे माता का दूध पुष्टि प्रदान करता है, वैसे ही पिता पुत्र के आत्मिक बल को पुष्ट करते हैं।
पिता हर संतान के लिए एक प्रेरणा है, एक प्रकाश है और संवेदनाओं के पुंज हैं। मेरे लिए मेरे पिता देवतुल्य एवं गहन आध्यात्मिक-धार्मिक जीवट वाले व्यक्तित्व थे। उनकी जैसी सादगी, उनकी जैसी सरलता, उनकी जैसा समर्पण, उनकी जैसी धार्मिकता, उनकी जैसी पारिवारिक नेतृत्वशीलता और उनकी जैसी संवेदनशीलता को जीना दुर्लभ है।
मेरे लिए तो वे आज भी दिव्य ऊर्जा के केन्द्र हैं।
पिता आँसुओं और मुस्कान का एक समुच्चय है, जो बेटे के दु:ख में रोता तो सुख में हॅंसता है। उसे आसमान छूता देख अपने को कद्दावर मानता है तो राह भटकते देख अपनी किस्मत की बुरी लकीरों को कोसता है। पिता गंगोत्री की वह बूंद है जो गंगा सागर तक एक-एक तट, एक-एक घाट को पवित्र करने के लिए धोता रहता है। पिता वह आग है जो घड़े को पकाता है, लेकिन जलाता नहीं जरा भी। वह ऐसी चिंगारी है जो जरूरत के वक्त बेटे को शोले में तब्दील करता है। पिता समंदर जैसा भी है, जिसकी सतह पर असंख्य लहरें खेलती हैं, तो जिसकी गहराई में खामोशी ही खामोशी है। वह चखने में भले खारा लगे, लेकिन जब बारिश बन खेतों में आता है तो मीठे से मीठा हो जाता है ।
‘पिता’ वह अलौकिक शब्द है, जिसके स्मरण मात्र से ही रोम-रोम में शक्ति और साहस का संचरण होने लगता है। हृदय में भावनाओं का अनहद ज्वार स्वतः उमड़ पड़ता है और मनोःमस्तिष्क स्मृतियों के अथाह समुद्र में डूब जाता है। ‘पिता’ वो अमोघ मंत्र है, जिसके उच्चारण मात्र से ही हर पीड़ा का नाश हो जाता है। ‘पिता’ के स्नेह, अपनेपन के तेज और स्पर्श को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। वह विलक्षण, साहस और संस्कारदाता होता है। जो समस्त परिवार को आदर्श संस्कार ही नहीं देता, बल्कि जीवन निर्वाह के साधन उपलब्ध कराता है। उनके दिए गए संस्कार ही संतान की मूल थाती होती है। इसीलिए पिता के चरणों में भी स्वर्ग एवं सर्व कहा गया है, क्योंकि वे हर क्षण परिवार एवं संतान के लिए छाया की भांति एक बड़ा सहारा बनते हैं और उनका रक्षा कवच परिवारजनों के जीवन को अनेक संकटों से बचाता है। जीवन में जब भी निर्माण की आवाज उठेगी, पौरुष की मशाल जगेगी, सत्य की आँख खुलेगी तब हम, हमारा वो सब कुछ जिससे हम जुड़े होंगे, वो सब पिता का कीमती तौहफा होगा।