डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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एक सामान्य भारतवासी जो कानून की पेचीदगियाँ और राजनीति नहीं जानता, उसके मन में भी एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि जब हम १५ अगस्त १९४७ को स्वाधीन हो गए, तब भी मुझे अपने देश में अपनी भाषा में न्याय क्यों नहीं मिलता ? मुझसे कानूनी कागजात पर हस्ताक्षर लिए जाते हैं, मुझे तो नहीं पता उसमें क्या लिखा है ? अदालत में वकील और न्यायाधीश आपस में बातें करते हैं, मुझे नहीं पता क्या हो रहा है ? यह कैसा स्व तंत्र ? यह कैसी स्वाधीनता ? अंग्रेजी का खौफ ऐसा कि वह अपनी बात कहने से भी डरता है।
प्रश्न तो बिल्कुल सही है, एकदम वाजिब है। जब पूरी दुनिया में वहाँ के लोगों को अपनी भाषा में न्याय मिलता है तो मेरे भारत में अदालत में विशेषकर उच्च न्यायपालिका में देश की जनता को जनता की भाषा में न्याय क्यों नहीं मिलता ? अगर हम स्वाधीन हो गए तो फिर यह क्या चल रहा है, और क्यों चल रहा है ? सामने से उत्तर आता है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद ३४८ में उच्च न्यायपालिका की भाषा अंग्रेजी बनाई गई है ? तो प्रश्न उठता है किस देश की जनता संविधान के लिए पैदा हुई है या संविधान के प्रावधान जनता के हितों के लिए है ? जब संविधान में जनहित के लिए संशोधन का प्रावधान है तो आजादी के ७५ साल बाद भी वह परिवर्तन क्यों नहीं किया गया ? वे कौन लोग हैं जो जनभाषा में न्याय की राह रोक कर खड़े हैं ?
हालांकि, ३४८ में यह प्रावधान है कि किसी भी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से अपने राज्य में स्थित उच्च न्यायालय में राज्य की राजभाषा लागू करवा सकता है। इन प्रावधानों के अनुसार ४ राज्यों में वहाँ की राजभाषा और जनभाषा हिंदी को लागू भी किया गया है, लेकिन बाद में सरकार ने एक ऐसी चाल चली कि आगे से किसी राज्य की मांग के बावजूद भी उसके उच्च न्यायालय में उसकी भाषा लागू न हो पाए। प्रावधानों के प्रतिकूल तत्कालीन सरकार ने निर्णय लिया कि जब किसी राज्य द्वारा उसे राज्य में स्थित उच्च न्यायालय में राज्य की भाषा लागू करने का कोई प्रस्ताव आए तो पहले सर्वोच्च न्यायालय से पूछा जाए। उन्हें पता है कि सर्वोच्च न्यायालय मानेगा नहीं। इसलिए कई राज्यों के इस तरह के प्रस्ताव स्वीकार नहीं हुए और उनके उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी का राज, अंग्रेजी में कामकाज चलता आ रहा है। राज्य की राजभाषा उच्च न्यायालय के बाहर बैठी हुई इंतजार कर रही है कब उसे उच्च न्यायालय में घुसने की अनुमति मिलेगी ?
अनुच्छेद ३४८ के प्रावधानों के अनुसार ही ४ हिंदी भाषी राज्यों (बिहार, उत्तर प्रदेश, मप्र तथा राजस्थान) में उच्च न्यायालय में वहाँ की राजभाषा और जनभाषा हिंदी में न्याय की व्यवस्था है, लेकिन वहाँ इतनी अड़चनें है कि कोई व्यक्ति, ज्यादातर अधिवक्ता हिंदी में अपनी बात रखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। अगर कोई हिम्मत जुटा भी ले और कानूनी प्रावधानों के अनुसार ही उच्च न्यायालय में जनता की भाषा में अपनी बात रखने की बात कहे, विधि-सम्मत जनता की भाषा में याचिका प्रस्तुत करे तो उसके साथ क्या-क्या होता है और क्या-क्या हो सकता है, इसका उदाहरण है, पटना उच्च न्यायालय के अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद। उन्होंने माननीय न्यायाधीश से कहा-“हजूर में अपनी बात हिंदी में रखना चाहता हूँ।” जब न्यायाधीश ने कहा कि उन्हें हिंदी नहीं आती तो उन्होंने विनम्रता से कहा, “हजूर यही तो समस्या है कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती।” क्या गलत कहा ? अगर हमें न्यायपालिका में जनता की भाषा लानी है तो इसी प्रकार तो बात उठानी पड़ेगी, किसी को तो सामने आना पड़ेगा ?
एक बात हमें स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। केवल कार्यक्रमों, बैठकों आदि में हिंदी की या भारतीय भाषाओं की बात करने से कुछ नहीं होगा। अगर होता तो अब तक हो चुका होता। कितने लोग हैं जो इसके लिए आवाज उठाते हैं ? अगर आज एक अधिवक्ता को पटना उच्च न्यायालय में हिंदी की मांग करने पर प्रताड़ित किया जाता है तो वह एक व्यक्ति की प्रताड़ना नहीं है बल्कि हर उस व्यक्ति को चेतावनी है जो खुलकर अपनी भाषा के लिए सामने आने की सोच रहा है। आप हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा के लिए चर्चा करें, कार्यक्रम करें, बातें करें किसी को दिक्कत नहीं है, लेकिन वास्तव में लाने की बात करें तो फिर संकट पैदा हो जाता है। और वही संकट पैदा हुआ है पटना उच्च न्यायालय के निलंबित अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद के साथ। आज उनका यह मामला देश भर में लोगों तक पहुंच रहा है। सभी भारतीय भाषा प्रेमी जनता की भाषा में न्याय की इच्छा रखने वाले लोग इससे परेशान और दुखी हैं।
इस समय तो भारत के प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री और कानून मंत्री भी भारतीय भाषा में न्याय की पैरवी कर रहे हैं। सभी भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक हैं और न्यायपालिका में जनभाषा लाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। अदालतों में प्रौद्योगिकी के माध्यम से भारतीय भाषाओं की व्यवस्था की जा रही है। यही नहीं, भारत के कई पूर्व मुख्य न्यायाधीश और वर्तमान न्यायाधीश माननीय भूषण रामकृष्ण गवई भी जनभाषा में न्याय का समर्थन कर चुके हैं। बार कौंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भी जनभाषा में न्याय के प्रबल समर्थकों में से हैं। ऐसे में लोगों की उम्मीदें बढ़ रही हैं। लोग आशान्वित हैं कि जल्द ही उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में जनभाषा में न्याय का मार्ग प्रशस्त होगा और हर भारतवासी अपनी भाषा में अपनी बात को रख सकेगा।
ऐसे में जनभाषा में न्याय की आवाज उठाने वाले अधिवक्ता को पहले विधि अधिकारी पद से हटाना और फिर अधिवक्ता के रूप में लाइसेंस रद्द करना चिंताजनक है। इससे लोगों में प्रतिकूल संदेश जा रहा है। पटना उच्च न्यायालय ही नहीं, देश के अन्य न्यायालयों और उच्च न्यायालयों तक भी यह घटना अधिवक्ताओं व लोगों में क्षोभ व रोष का कारण बन रही है। आज जनभाषा में न्याय की आवाज उठाने के चलते आज एक अधिवक्ता के साथ जो कुछ हुआ है, कल वह एक उदाहरण बन जाएगा। इसलिए शासन और न्यायपालिका दोनों द्वारा इस विषय पर गंभीरता से विचार करते हुए अधिवक्ताओं को तथा देश की जनता को सही संदेश देने के लिए सही निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है। मैं समझता हूँ कि भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश को स्वत: संज्ञान लेते हुए इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए और जिस प्रकार उन्होंने हिंदी में शपथ लेकर देश को एक संदेश दिया है, उसी प्रकार जनभाषा में न्याय के लिए सरकार को निर्देश देकर जनभाषा में न्याय का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी अपने हिंदी प्रेम के लिए जाने जाते हैं। बिहार सरकार का भी यह दायित्व है कि वह इस बात पर ध्यान दे कि बिहार की राजभाषा और जनभाषा हिंदी में न्याय की मांग करने के कारण किसी पर किसी प्रकार का अन्याय और अहित न हो। बिहार सरकार द्वारा बिहार की राजभाषा के पक्ष में खड़े होने के लिए निलंबित अधिवक्ता को सदन में सम्मानित किया जाना चाहिए, ताकि अन्य अधिवक्तागण भी उत्साह और साहस के साथ उच्च न्यायालय में हिंदी का प्रयोग करने की ओर आगे बढ़ें।
यह आंदोलन हिंदी सहित सभी भारतीय भाषा प्रेमियों और इसके लिए बनी हजारों संस्थाओं के भारतीय भाषा प्रेम की परीक्षा का समय भी है। उनका भी दायित्व है कि वे इस संघर्ष में निलंबित अधिवक्ता के साथ खड़े हों। यदि हमें अपनी भाषाओं को स्थापित करना है तो उसके लिए न केवल संघर्ष करना पड़ेगा, बल्कि जो संघर्ष कर रहा हो उसको भी हिम्मत, साहस और सहयोग देना पड़ेगा।