डॉ. संगीता जी. आवचार
परभणी (महाराष्ट्र)
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हो हरित वसुन्धरा…..
वसुन्धरा भरसक हरी-भरी
जंचती है,
वीरानों मे कहाँ इन्सान की
बस्ती है ?
पेड़-पौधों मे कितनी हरियाली
बसती है,
अनाज बिना कहॉं इन्सान की
हस्ती है ?
वृक्ष की हरियाली में साँस भी
सस्ती है,
वर्ना ऑक्सिजन सिलेंडरों में
मिलती है।
वृक्षों में आवास कई प्रजाति,
करती है,
इन्हें तोड़ना पैर पर खुद के ही
कुल्हाड़ी है।
हरियाली से खुश नुमाइंदगी
सुहाती है,
प्लास्टिक पेड़ों से नहीं खुशी
मिलती है।
धरा पे आमदा जो आड़ी-टेढ़ी
गर्दिश है,
अनदेखी ना करो ये उसकी
तपिश है।
बनाए रखो हरी, वसुन्धरा की
गुजारिश है,
इन्सान के लिए एक और भी
कोशिश है॥