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भारत का मन

डॉ. विकास दवे
इंदौर(मध्य प्रदेश )

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इन दिनों व्हाट्सएप जैसे आधुनिक संप्रेषण माध्यमों में बढ़ रही अनर्गल सामग्री और रील्स की भरमार के युग में हम सब इन चलचित्रों (वीडियो) को देख-देख कर हैरान-परेशान हैं। कई बार तो मन करता है कि, एक भी वीडियो डाउनलोड न करें, क्योंकि जिस तरह की अनर्गल और बेसिर-पैर की सामग्रियाँ हमें प्राप्त होती हैं, वह मन को निराश करने लगती हैं, परन्तु… इसी माध्यम पर कभी-कभी कुछ बहुत ही अच्छे वीडियो प्राप्त हो जाते हैं।
आज मैं जिस चलचित्र का उल्लेख कर रहा हूँ, वह एक सीसीटीवी में दर्ज चलचित्र है, जिसमें एक अत्यंत गरीब वृद्ध माता जो लगभग भिक्षुक की तरह दिखाई दे रहीं हैं, एक चौराहे पर खंभे के पास आकर बैठीं हैं और कहीं से प्राप्त भोजन का पैकेट खोलकर भोजन करने लगती हैं। उनके भोजन करने की शैली से यह प्रतीत होता है, मानो वे अत्यंत भूखी हैं। उनके पास पीने के पानी की प्लास्टिक की १ बॉटल भी रखी है। अनायास एक महिला पुलिसकर्मी चौराहे पर यातायात नियंत्रण के लिए आती है और उस वृद्ध माता को वहाँ पर भोजन करते देख क्रोधित हो उठती है। सामान्यत: पुलिस विभाग के जवानों को यह निर्देश ‘ऊपर’ से ही रहते होंगे कि, वह भिक्षुकों को चौराहे पर न रहने दें, क्योंकि इनके कारण कई बार अत्यंत अप्रिय स्थितियाँ भी पैदा होती हैं, किंतु इस चलचित्र में वह पुलिसकर्मी बहन अत्यंत निर्दयता से घुटने और पैरों के जूते से न केवल उस वृद्ध माता को धक्का देती है, बल्कि भोजन भी पूरा बिखेर देती है। जैसे-तैसे गिरती-पड़ती वह वृद्धा अपनी पानी की बॉटल लेकर पुनः दूर जाकर बैठ जाती है। इस दृश्य को देखने वाला एक सामान्य व्यक्ति आकर पुलिसकर्मी से बहस भी करता है, किंतु उसे भी अत्यंत क्रुद्ध होकर पुलिसकर्मी भगा देती है। वर्दी के कारण संभवतः वह पुरुष भी खुलकर प्रतिकार नहीं कर पाता है, किंतु ईश्वरीय न्याय देखिए कि, इस पूरी प्रक्रिया के सम्पन्न पन्न होते-होते तक अनायास तेज धूप के कारण यह पुलिसकर्मी चक्कर खाकर ज़मीन पर गिर जाती है और इसके बाद दर्शन होते हैं भारत के मन के। वह वृद्धा माता, जिसे इसी पुलिसकर्मी ने लातों से पीट-पीटकर दूर भगाया था, अचानक आकर उस अचेत पुलिसकर्मी को संभालने लगती है। जल्दी से अपनी पानी की बॉटल से उसके मुँह पर जल छिड़कने लगती है और उसे बैठाने का प्रयास करती है।
थोड़ी देर पूर्व स्वयं के द्वारा किए गए कृत्य के कारण यह महिला पुलिसकर्मी हीनता बोध से ग्रस्त होकर उस महिला का यह सहयोग प्राप्त करना नहीं चाहती, किंतु फिर से चक्कर खाकर जब गिरती है तो अंततः यह वृद्ध माता उसके मुख पर पानी के छींटे डालते हुए उसे होश में लाकर सहारा देकर खड़ा करती है। फिर से चक्कर आने पर उसे खंबे के सहारे न केवल बैठाती है, बल्कि उसको हवा करते हुए उसकी टोप सिर पर से उतरते ही शेष बचा हुआ पूरा पानी सिर पर खाली कर देती है। उसके होश में आने तक वह माता उसके चेहरे को बड़े प्यार से पोंछती रहती है। दृश्य के अंत में यह पुलिसकर्मी अत्यंत विनम्रता के भाव से उस वृद्ध माता को उसके बैठने के स्थान तक छोड़ती नजर आ रही है।
आप कहेंगे यह चलचित्र तो मानवीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है ही ,मार्मिक भी है और भावुक भी करता है, किंतु इस पूरे चलचित्र को देखते हुए मुझे पता नहीं क्यों, इस वृद्ध माता में भारत के मन के दर्शन तो हुए ही, साथ ही मुझे संपूर्ण हिंदू समाज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी इस दृश्य में दिखाई देने लगी।
‘काफिर’ कहकर मौत के घाट उतारा जाता एक संपूर्ण सभ्य समाज लगातार अपने ही बंधु बांधवों की अनगिन हत्या करने वालों के प्रति मन में सद्भाव लिए यह प्रतीक्षा करता रहता है कि, यह हमसे बिना कारण नफरत करने वाले लोग कभी तो समझेंगे कि धर्मांधता के कारण वह अनावश्यक ही एक पूरी की पूरी संवेदनशील, दयालु संस्कृति और राष्ट्रवादी चेतना से युक्त संगठनों को प्रतिक्रियावादी बनाने पर तुले हैं। औरंगजेब, जहांगीर, अकबर, हुमायूं से चली हुई यह यात्रा अफजल गुरु और अजमल कसाब तक आती है। यह मजहबी घृणा देश विभाजन के कत्लेआम से लेकर डायरेक्ट एक्शन और मोपला कांड जैसी घटनाओं तक की यात्रा सम्पन्न करती चली जाती है। नेकर पहनकर शाखा जाते चलते-फिरते लोगों की हत्या करने वाले यह लोग क्या कभी यह विचार नहीं करते कि, यह पूरा का पूरा सहिष्णु समाज और संगठन बिना किसी द्वेष के ऐतिहासिक घृणा को विष की तरह पीते हुए बगैर बदले की भावना के आज भी किसी अल्लामा इकबाल का गीत-“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना…” गुनगुनाते रहता है।
कितने ही कन्हैयालाल टेलर के गले लगातार रेते जा रहे हैं। हो सकता है पुलिसकर्मी की तरह ही इन्हें भी ‘ऊपर’ से आदेश प्राप्त हो इन सबको दुनिया से हटाने का, किंतु यह समाज इसी वृद्ध माता की तरह व्यवहार करता नजर आता है।
अभी कल की ही बात है-जैसे ही वायनाड में प्रकृति का प्रकोप होता है, इसी मजहबी घृणा से ग्रसित समाज की रक्षा और सेवा के लिए खाकी नेकर पहनकर सेवा के लिए सन्नद्ध होते समाज को हमने देखा है। ये ही लोग चरखी-दादरी के प्राकृतिक प्रकोप से लेकर भुज के भूकंप तक उस समाज की सेवा करते दिखाई देते हैं, जो पहली फुरसत में इन्हें ही मारकर सवाब (पुण्य) हासिल करना चाहते हैं। पानी की बॉटल से अचेत पुलिसकर्मी को होश में लाती इस वृद्ध माता में मुझे कभी संघ के स्वयंसेवक तो कभी संपूर्ण हिंदू समाज दिखाई देता है।
बार-बार मन को कचोटता है इस चलचित्र का प्रथम दृश्य। पैरों से भोजन की सामग्री को लात मारती पुलिसकर्मी मुझे भोजन सामग्रियों पर थूकती, मूत्र विसर्जन करती, मल मूत्र मिलाती एक पूरी की पूरी धर्मांध प्रजाति दिखाई देती है। यह वृद्ध माता सचमुच भारत के मन को प्रकट कर रही है। हे भारत के मन तुम कब तक यूँ ही लातें खाते रहोगे ? कब तक ‘काफिर’ कहकर काटे जाते रहोगे और कब तक प्रेम भरे व्यवहार से भाईचारे के पानी के छींटे देकर एक पूरी कौम की अपने प्रति अनावश्यक मन में भरी हुई घृणा के समाप्त होने की प्रतीक्षा करते रहोगे ?
हे भारत! इतने वर्षों के सामूहिक नरसंहारों के बाद भी उनके मन को अच्छा लगने के लिए कब तक गुनगुना पाओगे- “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।”

मुझे स्मरण आता है गीता में अर्जुन के अनेक नाम में एक नाम भारत भी है। कभी-कभी लगता है भगवान कृष्ण के संदेश को कब यह भारत स्मरण करेगा ? हे भारत के मन!!!! जागो!!!!!

परिचय-डॉ. विकास दवे का निवास इंदौर (मध्यप्रदेश)में है। ३० मई १९६९ को निनोर जिला चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) में जन्मे श्री दवे का स्थाई पता भी इंदौर ही है। आपकी पूर्ण शिक्षा-एम.फिल एवं पी-एच.डी. है। कार्यक्षेत्र-सम्पादक(बाल मासिक पत्रिका) का है। करीब २५ वर्ष से बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत हैं। सामाजिक गतिविधि में डॉ.दवे को स्वच्छता अभियान में प्रधानमंत्री द्वारा अनुमोदित एवं गोवा की राज्यपाल डॉ. मृदुला सिन्हा द्वारा ब्रांड एम्बेसेडर मनोनीत किया गया है। आप केन्द्र सरकार के इस्पात मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति में सदस्य हैं। इनकी लेखन विधा-आलेख तथा बाल कहानियां है। प्रकाशन के तहत सामाजिक समरसता के मंत्रदृष्टा:डॉ.आम्बेडकर,भारत परम वैभव की ओर, शीर्ष पर भारत,दादाजी खुद बन गए कहानी (बाल कहानी संग्रह),दुनिया सपनों की (बाल कहानी संग्रह), बाल पत्रकारिता और सम्पादकीय लेख:एक विवेचन (लघु शोध प्रबंध),समकालीन हिन्दी बाल पत्रकारिता-एक अनुशीलन (दीर्घ शोध प्रबंध), राष्ट्रीय स्वातंत्र्य समर-१८५७ से १९४७ तक(संस्कृति मंत्रालय म.प्र.शासन के लिए),दीर्घ नाटक ‘देश के लिए जीना सीखें’,(म.प्र.हिन्दी साहित्य अकादमी के लिए) और हिन्दी पाठ्य पुस्तकों में ४ रचनाएं सम्मिलित होना आपके खाते में है। १००० से अधिक रचनाओं का प्रकाशन बाल पत्रिका सहित विविध दैनिक-मासिक पत्र-पत्रिकाओं में है,जबकि ५० से अधिक शोध आलेखों का प्रकाशन भी हुआ है।डॉ.दवे को प्राप्त सम्मान में बाल साहित्य प्रेरक सम्मान २००५,स्व. भगवती प्रसाद गुप्ता सम्मान २००७, अ.भा. साहित्य परिषद नई दिल्ली द्वारा सम्मान २०१०,राष्ट्रीय पत्रकारिता कल्याण न्यास,दिल्ली सम्मान २०११,स्व. प्रकाश महाजन स्मृति सम्मान २०१२ सहित बाल साहित्य जीवन गौरव सम्मान २०१८ प्रमुख हैं। आपकी विशेष उपलब्धि म.प्र. शासन के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा समाहित करने हेतु गठित सलाहकार समिति में सदस्य,म.प्र. शासन के पाठ्यक्रम में गीता दर्शन को सम्मिलित करने हेतु गठित सलाहकार समिति में सदस्य,म.प्र. साहित्य अकादमी के पाठक मंच हेतु साहित्य चयन समिति में सदस्य। होना है। आपको ७ वर्ष तक मासिक पत्रिका के सम्पादन का अनुभव है। अन्य में सम्पादकीय सहयोग दिया है। आपके द्वारा अन्य संपादित कृतियों में- ‘कतरा कतरा रोशनी’(काव्य संग्रह), ‘वीर गर्जना’(काव्य संग्रह), ‘जीवन मूल्य आधारित बाल साहित्य लेखन’,‘स्वदेशी चेतना’ और ‘गाथा नर्मदा मैया की’ आदि हैं। विकास जी की लेखनी का उद्देश्य-राष्ट्र की नई पौध को राष्ट्रीय चेतना एवं सांस्कृतिक गौरव बोध से ओतप्रोत करना है। विशेषज्ञता में देशभर की प्रतिष्ठित व्याख्यानमालाओं एवं राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में १५०० से अधिक व्याख्यान देना है। साथ ही विगत २० वर्ष से आकाशवाणी से बालकथाओं एंव वार्ताओं के अनेक प्रसारण हो चुके हैं। आपकी रुचि बाल साहित्य लेखन एवं बाल साहित्य पर शोध कार्य सम्पन्न कराने में है |