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भौतिकवाद युग में ईश्वर व आस्था का तोल-मोल

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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ईश्वर और मेरी आस्था स्पर्धा विशेष…..

हे भगवान! हे भगवान! कैसी है तेरी शान,
तूने सूरज-चाँद सजाए,धरती और आकाश बनाए।
मनुष्य-मनोवृत्ति की गंध में ईश्वर का मानवीय साक्षात् दर्शन करने या ईश्वर की बनाई सृष्टि के रहस्यों को खोजने की प्रथम उत्सुकता व जिज्ञासा सदैव से रही है। ब्रह्मांड व सृष्टि का रचयिता कौन ?, दोनों की संरचना प्रक्रिया और चिरंतन गतिमान रहना कैसे संभव हुआ ? रहस्यमयी जगत के चिंतन पर ऋषि-मुनियों,आचार्य व विद्वानों,संप्रदायों, पंथों आदि ने अपनी-अपनी दृष्टि से अनेक दार्शनिक व अध्यात्मिक धारणाएँ परिभाषित की हैं-‘ईश्वर एक है।’ ‘ईश्वर और जगत दोनों की अलग-अलग सत्ता है’ ,‘ईश्वर की पहचान मनुष्य की स्व-अंतरात्मा है।’ ‘ईश्वर सूक्ष्म रूप में कण-कण में है।’ ‘सृष्टि में कोई ईंश्वर नहीं है,रचयिता ने उसे निर्बाधगति से चलने के लिए छोड़ दिया है‘ आदि हैं। ईंश्वर के प्रति आस्था रखने वाले मनुष्य में उदात्त गुण होने पर ही ब्रह्मांड व सृष्टि के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। आचार्यों ने ईश्वर के अर्थ को संस्कृत की ‘ईश‘ धातु का अर्थ है-नियंत्रित करना और आस्था का अर्थ है ‘ ईश्वर के प्रति अगाध प्रेम’ से स्वीकार किया है। इन्हीं उक्त धारणाओं के अनन्तर संसार में ईश्वर की सगुण व निर्गुण भक्ति उपासना के लिए अनेक धर्मों की उत्पत्ति हुई ।
संसार के समस्त धर्म एक ही ज्ञान व भाव अभिव्यक्त करते हैं कि सत्य-प्रतीति करने वाले ग्रन्थ ही ईश्वर-ज्ञान के आस्था साधन हैं। ईश्वर सर्वशक्तिमान,अजन्मी,उदात्त,अजर-अमर व सच्चिदानंद स्वरूप है। पाप-पुण्य,सुख-दु:ख रूपी फल देने व सत्यकर्म का मार्गी ईश्वर ही है। ईश्वर देश,जाति,मत व पंथ से ऊपर है। ईश्वर के प्रति निष्पक्ष आस्था ही केंद्र रूप में माता-पिता,गुरु-शिष्य,मित्र-शत्रु व अन्य मानवीय रिश्तों में स्थूल रूप से समाहित है। ईश्वर के प्रति बिना आशा और अपेक्षा से समर्पण भाव ही उदात्त चरित्र का परिचायक है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ईश्वर के प्रति शुद्ध आस्था शोक-संताप आदि सब मात्र परिस्थितिवश होती है। यही ज्ञान भक्तिकालीन कवियों कबीर,रसखान,तुलसी,सूरदास,केशवदास, आदि शंकराचार्य व जैन पंथ में अरिहंत व सिद्ध, महावीर और आधुनिक युग के अनेक दार्शनिकों धर्म स्थापक चिंतकों ने दिया है।
ईश्वर चेतन है या जड़ ? योग-साधन से प्राप्त होगा या नहीं ? ऋषि वचन से चित्त शुद्धि होगी या नहीं ? जगत में सामंजस्य व समन्वय का एक मात्र साधन चेतना है या कोई और ? ईश्वर ही कर्ता-धर्ता-संहर्ता है,मान लेने से क्या ईश्वरीय ज्ञान-रहस्य को समझा जा सकता है ? या ग्रन्थों में निहित पदों से ही ईश्वर के अस्तित्व को जाना जा सकता है ? यह स्थिति अनेक विचारों व मतों के बीच ईश्वर व आस्था के संबद्ध में मनुष्य को संशयग्रस्त कर देती है।
वर्तमान समय में ईश्वर के प्रति आस्था मात्र एक ढोंग बनकर रह गई है। प्राचीन समय से प्रत्येक धर्म के विद्वानों से लेकर मंदिर,मस्जिद व चर्च का स्वरूप प्रत्येक देश,महानगर,शहर व गाँव तक में प्रचार-प्रसार में दिखाई देता है। आधुनिक संसाधनों के नित नवीन आविष्कारों ने मनुष्य को अपनी कठपुतली बना दिया है। मनुष्य अपने-अपने धर्म के विचारों से अवगत है। प्रत्येक वर्ग जाति व धर्म, वैज्ञानिक व चिकित्सक तक पूँजीवादी दृष्टि से लबालब होकर भी ईश्वर के प्रति आस्था रखता है, किन्तु आज संसार में बढ़ते शक्तिशाली हथियार बनाने की होड़,धर्म की आड़ में अनेक देशों में घटित अप्रिय घटनाएँ,धर्म के नाम पर मानव का मानव के प्रति बढ़ता अविश्वास,द्वेष,परिवार व समाज की चरमराती पारंपरिक संस्कृति और युद्ध की ओर अग्रसर होती शासकीय व्यवस्थाएं आदि ईश्वर के प्रति आस्था को अलग-थलग और कमजोर बना देती हैं। संदेहयुक्त प्रश्न उत्पन्न होता है कि,जब संपूर्ण विश्व के लगभग समस्त मानव ईश्वर या अज्ञात सत्ता के प्रति अटूट आस्था रखते हैं तो इस दृष्टि से संपूर्ण विश्व में आशानुकूल शांति व मानवता हित का ही स्थाई भाव होना चाहिए,लेकिन परिणाम पूर्णतया विपरीत है। कोई माने या न माने, पर ईंश्वर के प्रति आस्था भौतिकवाद की भेंट स्वीकार कर अंतर्मन की आवाज को सुनने से गुरेज़ करती है। कोई बस इतना बता दे,पृथ्वी पर सबसे पहले कौन-सा जीव या मनुष्य या पशु या पक्षी मृत हुआ ? उसका नाम क्या था ? वह पुरूष था या स्त्री ? चलो छोड़ो! कोई बता दे-पृथ्वी पर सबसे पहला पौधा कौन-सा उत्पन्न हुआ था ? सारे प्रश्नों के तोल-झोल में सारा विज्ञान डार्विनवाद पर अभिभूत हो जाएगा और धर्म सरल-सीधे यह कह कर बच जाएगा,संपूर्ण पृथ्वी पानी-पानी हो गई थी,रह गया था मनु हिम-शिखर पर…! घंटों बहस छेड़कर, नतीजा निकलेगा- ‘तू डाल-डाल,मैं पात-पात।’
संक्षेप में,भौतिक युग में नई पीढ़ी में ईश्वर-आस्था के प्रति तोल-मोल करती दिखाई देती है,लेकिन सृष्टि व ब्राह्मंड के ‘गुरूत्वाकर्षण’ को वैज्ञानिक कसौटी पर खरा मानती है। प्राचीन व पारंपरिक धर्म के सिद्धांतों में वर्णित ज्ञान को विज्ञान की परख से कसना चाहती है। समयानुसार विचारों में परिवर्तन होने के कारण अंधा-अनुकरण करने से परहेज़ करती है,साथ ही जीवन संघर्ष से उपजे मानसिक तनाव का समाधान योग व ईश्वर में ही तलाश करती है ।

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