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मानसिक शांति का सर्वश्रेष्ठ सूत्र ‘न्यूनतमवाद’

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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थोड़ा है, ज्यादा की जरूरत नहीं’ के सिद्धांत पर जापान चल रहा है। बड़े घर, बड़ी गाड़ियाँ, बड़ी जमीनों को तिलांजलि दे रहे हैं। यहाँ कें लोगों ने सीमित कपड़े, न्यूनतम सामान की नई राह पकड़ी है, और दावा किया जा रहा है कि वे पहले से अधिक खुश हैं। दिखावटी साजो-सामान वे नापसंद करने लगे हैं। यहां जो दिखावे को तवज्जो देता है, उसे असभ्य माना जाता है! और यह जीवन-शैली मजबूरी नहीं, उनके जीने का आसान सलीका है।
तकनीक और आधुनिकतम मशीनी युग में परचम फहरा कर यदि किसी देश के लोग ऐसा करने लगे हैं, तो वाकई यह वास्तविक ‘प्रतिक्रमण’ (जैन धर्म की एक साधना.. जिसमें साधक प्रमादजन्य दोषों से निवृत होकर आत्मस्वरूप में लौटने की ओर प्रवृत्त होता है) है।
धीरे ही सही, लेकिन पनपते रहेंगे और जिएंगे या सर्वनाश देखते देखते मरेंगे। इन २ विकल्प में से यदि एक को चुनना पड़े तो मानव जाति पहला ही चुनेगी, लेकिन इसके पहले वह दृष्टि पैदा करनी होगी, जो जापान के लोगों में हुई है। अभी तो हमने इस और सोचना भी शुरू नहीं किया है।
किसी भी देश के विकास के मापदंड जब तक आर्थिक वृद्धि और जीडीपी के आँकड़े रहेंगे, तब तक इस धरती को बचाने की योजनाएं और कवायदें सिर्फ और सिर्फ भ्रम फैलाने वाले झूठ ही रहेंगे। कौन ऐसी कंपनी होगी, जो आज १ लाख स्कूटर या ३० हजार कारें बना रही है, तो उसके अगले वर्ष का लक्ष्य १० फीसदी या उससे भी अधिक होगा। उत्पादन चाहे कोई भी हो, बिक्री लक्ष्य बढ़ते ही जाएंगे और उपभोग भी।
अधिक ‘एसी’, अधिक टीवी, अधिक माइक्रोवेव, अधिक मकान, अधिक वेतन, सब कुछ अधिक….!! तो फिर क्यों न होगा अधिक कार्बन उत्सर्जन और अधिक नुकसान पर्यावरण का। फिर कैसे बच पाएगी यह धरती ?? क्या व्यक्तिगत रूप से हम अपने उपभोग को कम करने को तैयार, ईमानदार और गंभीर हैं, जैसे जापान ने किया है ? हर घर में जिस तरह से पानी बहाया जाता है, उसे नहीं रोकेंगे, लेकिन धरती और पर्यावरण संरक्षण की बड़ी-बड़ी बातें अवश्य करेंगे। हम आत्मावलोकन करें कि, किस कदर हमारा उपभोग बढ़ा है ? हमें ईमानदार कोशिश अपने घर और अपनी आदतों में करनी होगी। जब तक उपभोग कम नहीं करेंगे, तब तक उत्पादन कम नहीं होगा। जब तक उत्पादन कम नहीं होगा, अपशिष्टों के खंजरों से धरती लहूलुहान होती रहेगी।
जब तक इसे जीने का तरीका और सलीका नहीं बनाएंगे, तब तक आगे की पीढ़ी न्यूनतमवाद की आवश्यकता को नहीं समझ पाएगी। शुरुआत स्वयं और घर से करेंगे, तब शायद धरती बची रहेगी।
जैन दर्शन में न्यूनतमवाद को अपरिग्रहवाद जैसा समझा जा सकता है। परिग्रह मूर्छा है, तो अपरिग्रहवाद व्रत है। अपरिग्रह का मतलब सामग्री सीमित रखें। आज इसका पालन न होने से जमाखोर, घूसखोर अपराधी की श्रेणी में आ जाते हैं। जितना अधिक संग्रह, उतना अधिक तनाव और सुरक्षा का भाव, भय आदि अलग।
न्यूनतमवाद का अर्थ सभी सुविधाएं होने पर भी अल्प सामग्री में शांति-सुख महसूस करके संतोषी जीवन बिताना है। हमें पशु-पक्षियों से सीख सीखना चाहिए। जैन मुनि इस धरा पर इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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