पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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भारतीय संविधान ने महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार दिए हैं। संविधान के अनुच्छेद १४ में कहा गया है, कि स्त्री-पुरूष दोनों बराबर हैं। अनुच्छेद १५ के अंतर्गत महिलाओं के भेदभाव के विरुद्ध न्याय पाने का अधिकार प्राप्त है। समय-समय पर इनके मान-सम्मान और अस्मिता की रक्षा के लिए भी कानून बनाए गए हैं।
किसी भी समाज के पूर्ण विकास के लिए आधी आबादी को अलग- थलग करके उसका विकास संभव नहीं है। इसके लिए महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता आवश्यक है, और इसके लिए महिलाओं का कामकाजी होना बहुत आवश्यक है। जो भारत कभी ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ की विचारधारा पर चलता था, आज महिलाओं पर अत्याचार के मामले में विश्व में अग्रणी और खतरनाक देश बन चुका है।
थॉमसन और रायटर्स फाउंडेशन ने महिलाओं के मुद्दे पर एक सर्वे जारी किया है, उसके अनुसार- घरेलू कामों के लिए मानव तस्करी, जबरन शादी और बंधक बना कर यौन शोषण के लिहाज से भारत को खतरनाक करार दिया गया है। हमारे देश की सांस्कृतिक परंपराओं के कारण भी महिलाओं को एसिड हमला, गर्भ में बच्ची की हत्या, बाल विवाह और शारीरिक शोषण का सामना करना पड़ता है। देश के हर कोने से महिलाओं के साथ बलात्कार, यौन प्रताड़ना, दहेज के लिये जलाना, मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना एवं स्त्रियों की खरीद-फरोख्त की घटनाएं रोज समाचार-पत्रों की सुर्खियाँ बनी रहती हैं। ऐसे में महिला सुरक्षा कानून या समानता का क्या अर्थ रह जाता है ?, जबकि महिला समानता दिवस के दिन विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा और आदर प्रकट करते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उपलब्धियों का गुणगान करके खुशी मनाई जाती है।
शिक्षा के प्रसार के बाद महिलाओं की स्थिति में सुधार आया है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के दौर में अब लड़कियों को बोझ की तरह नहीं देखा जा रहा है। शिक्षा के कारण उनके प्रति समाज के नजरिए में काफी सकारात्मक सुधार देखा जा रहा है। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों में महिलाएं परचम लहराती दिखाई पड़ रही हैं। समय के साथ अपने कदम बढ़ाती महिलाएं समानता के लिए संघर्ष करती हुई सफलता की ओर कदम बढ़ाती जा रही हैं। यह देश के विकास के लिए बहुत सार्थक साबित हो रहा है।
हाल ही में महिलाओं को आजादी देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद १९ और २१ पर कहा कि “अब एडल्ट्री अपराध नहीं है।” महिला की यौन स्वायत्तता पर न्यायालय ने कहा कि पत्नी संपत्ति नहीं है, यदि वह अपने को उसका मालिक समझता है तो गलत है।
सरकार समय-समय पर महिला सुरक्षा के लिए कानून में परिवर्तन और सुधार करती रहती है। उसी परिपेक्ष्य में ‘तीन तलाक’ का बिल आया, जिससे मुस्लिम महिलाओं की स्थिति में सुधार हो सके, परंतु सोचने की बात यह है कि कठोर कानून बना देने से क्या महिलाएं सुरक्षित हो जाएंगीं ? तो मेरे विचार से यह सोचना गलत है, क्योंकि शरीयत कानून करने वाले देश अफगानिस्तान व सऊदी अरब भी महिलाओं के लिए खतरनाक बताए जाते हैं ।
आवश्यकता यह है, कि व्यक्ति की मानसिकता को बदलने की बच्चों को परिवार के अंदर नारी के प्रति समानता की शिक्षा दी जाए। जब पिता बच्चे के सामने माँ पर अत्याचार करता है, तो अनायास ही वह भी स्त्री के साथ कई बार गलत व्यवहार करने लगता है।
आज हम सबको आधी आबादी के प्रति निर्मित दकियानूसी मानसिकता को बदलने की आवश्यकता है। ऐसा माहौल देना होगा, जिससे उनकी स्वतंत्र सोच विकसित हो और वह अपनी बात को खुलकर बिना किसी संकोच के समाज के सामने रख सकें।
आज नारी का निर्बल नहीं, वरन् सबल पक्ष भी देखने को मिल रहा है। वह सहनशील है, मजबूत भी हो रही है। अब वह किसी के दबाव में आसानी से नहीं झुकती है। अंतरिक्ष से लेकर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में अपनी सफलता का परचम लहरा रही है।
इसी दिशा में ‘नारी शक्ति वंदन’ अधिनियम बना कर सरकार ने महिलाओं के हित में बड़ा कदम उठाया है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ योजना, ‘उज्जवला’ योजना आदि योजना बना कर सरकार बेहतर प्रयास कर रही है।
वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद महिलाएं घर के साथ-साथ हर क्षेत्र में अपनी क्षमता और प्रतिभा दिखा रहीं हैं। कई ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहाँ पुरूषों को पीछे छोड़ दिया है।
वैसे देश में आज भी महिलाओं की स्थिति में निरंतर सुधार की आवश्यकता महसूस की जा रही है। हालांकि, सामाजिक भेदभाव
के बाद भी महिलाएं घर-परिवार और समाज में असमानता झेलने को विवश हैं। पुरूष समाज को महिलाओं के साथ समानता के व्यवहार को स्वीकार करने की आवश्यकता है। महिलाओं को भी अपने अधिकार के लिए जागरुक होना चाहिए। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि महिलाएं स्वयं को इतना स्वतंत्र नहीं समझतीं कि इतना बड़ा कदम अकेले उठा सकें। जो किसी मजबूरीवश अदालत तक पहुंच भी जाती हैं, वह कानून के मकड़जाल में उलझ कर भटक जाती हैं। इस नकारात्मक वातावरण का सामना करने की बजाय वह अन्याय को सहन करना बेहतर समझती हैं। आमतौर पर आज भी लोग औरतों को दोयम दर्जे का नागरिक ही मानते हैं। महिला श्रमिकों या कर्मचारियों के साथ गाँव से शहरों तक आर्थिक और दैहिक शोषण आम बात है। महिला सुरक्षा कानून बनाए जाते हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि कितनी महिलाएं इनके प्रति जागरूक हैं या उपयोग कर पाती हैं।
साक्षरता और जागरूकता के अभाव में महिलाएं अपने खिलाफ होने वाले अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध आवाज ही नहीं उठा पातीं।
सच्चाई तो यह है, कि आजादी के हिसाब से राजनीति में आज भी महिलाओं की भागीदारी उतनी नहीं है, जितनी की होनी चाहिए। लोकसभा में ९४ और राज्यसभा में २९ महिला सांसद हैं, जो कुल संख्या का १२ प्रतिशत है। राज्यों की विधानसभाओं में तो स्थिति और भी चिंताजनक है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने के पीछे का कारण अब तक पितृ सत्तात्मक ढांचे का मौजूद होना है। यह सिर्फ महिलाओं को राजनीति में प्रवेश करने से नहीं रोकता, वरन् महिलाओं की स्वतंत्र सोच को ही विकसित नहीं होने दिया जाता है।
हर महिला चाहे किसी जाति की हो या वर्ग की हो, अमीर हो या गरीब हो, अपनी आधी जिंदगी अपने साथ होने वाले दुर्व्यवहार, भेदभाव, छेड़छाड़ की कटुता से उबरने की मानसिक यंत्रणा से उबरने में गुजारती है। वह मानसिक और शारीरिक शोषण को चुपचाप सहन करती है, क्योंकि वह इस खौफ के साए में जीती है कि लोग क्या कहेंगें…?
आवश्यकता है, कि हमारे मन से यह डर बाहर निकाला जाए। जब तक हम डरते रहेंगें, दूसरे हमें डराते रहेंगें। आज आप आवाज उठाने के लिए अकेले हैं, लेकिन जल्द ही दूसरे सभी आपके सुर में सुर मिलाने वाले आगे आएंगें।महिला, पुरूष के समान हैं, इसके लिए समाज को महिलाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में अनिवार्य रूप से बदलाव लाने की आवश्यकता है। सच तो यह है, कि आज भी स्त्री की पीड़ा, इच्छा किसी के लिए कोई मायने नहीं रखती। अपने लिए समानता की राह पर चलने हेतु मार्ग के काँटे उन्हें हर दिन स्वयं ही निकालने होंगें।