शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
*************************************
आज से ७ वर्ष पहले एक बूढ़ा व्यक्ति रात्रि के ठीक १२ बजे के बाद किसी पशु के सिर व टाँगें लाकर दूर एक इमारत के गेट के समक्ष अच्छी-खासी मात्रा में प्लास्टिक के थैले से निकालकर डाल देता,और भूख से बेहाल श्वान उसके आगे-पीछे दुम हिला-हिला कर घूमते रहते। सही समय पर उस बूढ़े व्यक्ति का प्रतिदिन वहीं आकर इंतज़ार भी करते। इस दौरान उनका भौंकना कदाचित लगभग बंद ही हो जाता। इमारतों में रह रहे लोग चैन की नींद में निश्चिंत हो जाते,लेकिन दिन में अक्सर लोग भूखे श्वानों को बिस्कुट,रोटी,दाल-चावल इधर-उधर खिलाते हुए अपनी सह्रदयता का परिचय देते भी दिखाई पड़ जाते। मन प्रसन्न होता भारतीय संस्कृति की विशालता देखकर। दूसरा,श्वानों के तन में बढ़ती खुजली देख क्षोभ होने की स्थिति से वे सब बेख़बर हो जाते। वे लोग भूल जाते एक मूक जानवर के तन से उठने वाली बदबू और जलवायु में फैलते जीवाणु व नई बीमारियों को भी साथ में जन्म दे रहे हैं। वे यह भी भूल जाते कि इन श्वानों की विशेष शारीरिक संरचना होती है। नमक,चीनी व खट्टे से दूर रहना उनमें ईश्वर प्रदत्त बनाई गई है,जो किसी इंसान के बस की बात नहीं। उनकी भी मनोभावनाएं एवं संवेदनाएँ इंसान की ही भाँति जीवन में समाहित रहती हैं। बेचारे का अपना तन खुजाते-खुजाते देख इंसान में उनके प्रति दया भाव जागृत होना इंसानों में एक स्वाभाविक इंसानियत की प्रक्रिया के गुण को आध्यात्मिक व दार्शनिक बना देता है।
आखिर में,श्वानों की भिन्न-भिन्न जातियाँ होने के बावजूद उनको मरहम लगाने और दवा-दारू करने का काम नगर पालिका ने अपने हाथों में ले लिया। भागौलिक दृष्टि से ऐसा करना ठीक ही है,क्योंकि हमारे देश में प्रत्येक राज्य के पर्यावरण में परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। इसका कारण यही माना जा सकता है कोस-कोस की दूरी पर भाषा,परिधान व रहन-सहन का परिवर्तन हो जाना।
कुछ भी हो,ज्ञानोदय की धारा में मुहावरे के सृजन का अर्थ कितना सटीक है-अपनी-अपनी हृदयता में हर कोई शेर होता है। बूढ़े व्यक्ति के अंतिम दिनों की यात्रा और श्वान को जीवनदान देना कितनी विचित्रता उत्पन्न कर सकता है।