संदीप धीमान
चमोली (उत्तराखंड)
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ये एकांत मुझे कहीं खाए जा रहा है,
मेरे पापों को मुझे गिनाए जा रहा है
रुकते नहीं कदम पापों से मेरे,
मेरा अंतर मन घबराए जा रहा है।
ये एकांत मुझे कहीं…
हर पहर मेरा, हर लम्हा मेरा,
आभास कर्म कराए जा रहा है
मृत्यु लोक मेरी शय्या कांधों पर,
मेरे ही कांधों पर ढुलाए जा रहा है।
ये एकांत मुझे कहीं…
विचलित अंतर्मन में है बोध कई,
है भीतर मन में कर्मों के शोध कई,
पाप का पलड़ा कहीं पुण्यों से भारी,
मन का तराजू दिखाए जा रहा है।
ये एकांत मुझे कहीं खाए जा रहा है..॥