ऋचा गिरि
दिल्ली
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जो आदि शक्ति है, ना जिसका कोई अंत,
जो मुक्तिस्वरूप, सर्वव्यापक, वही है जो ब्रह्म
जो निराकार, ओंकार, कैलाशनाथ,
वही विकाराल, महाकाल, है वो कृपाल।
जो जटाओं में लिए हुए हैं गंग,
जिनके माथे पर सुशोभित श्वेत चंद्र
गले में सर्प माल है लटक रही,,
वही तो है शिव: शिवम, उन्हें नमन नम: नमन।
जिनके नेत्र है विशाल, गले में मुंड माल,
जो प्रचंड है, पूर्ण है, वही प्रकाशमान
त्रिशूल जिनके हाथ में त्रिनेत्र वाले हैं वही,
वही तो है, त्रिलोकनाथ, विश्वनाथ, लोकनाथ।
जो कंठ में है विष भरे, बाघ चर्म वस्त्र धरे,
वही तो है ईश्वर, अर्धनारीश्वर।
उन्हीं पार्वती रमण को ‘ऋचा’ का नमन नम: नमन,
सतत नमन नम: नमन॥