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साहित्य को आम लोगों से जोड़ने में सोशल मीडिया खेमेबंदी से बाहर

पटना (बिहार)।

बात प्रिंट और सोशल मीडिया के लाभ-हानि की नहीं, बल्कि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों से, हम पाठकों की बढ़ रही दूरी से है। वह भी ऐसे समय में, जब साहित्य गंदी राजनीति का शिकार हो गया है। इनमें प्रकाशित साहित्य का जन सरोकार बिल्कुल नहीं है। इनमें प्रकाशित रचनाओं से अधिक पाठक सोशल मीडिया पर मिल जाते हैं, क्योंकि साहित्य को आम लोगों से जोड़ने में सोशल मीडिया खेमेबंदी से बाहर है।
यह बात भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वावधान में कवि-कथाकार सिद्धेश्वर ने आभासी आयोजन ‘तेरे-मेरे दिल की बात’ में कही। ‘श्रेष्ठ साहित्य, आम पाठक और साहित्यिक पत्रिकाएं’ के संदर्भ में आपने कहा कि, अब भी साहित्यिक पत्रिकाओं पुस्तकों के प्रकाशक और संपादक संभल जाएं।

इस विचार पर माधुरी भट्ट ने कहा कि रचनाकार को अपनी योग्यता का ही फल मिले, उसका आनन्द ही अलग है, जबकि आज साहित्य में भी सिफारिश का बाजार गर्म रहता है। मुरारी मधुकर ने कहा कि सोशल मीडिया के अनुपस्थिति वाले कालखंड में लोग फुर्सत के पलों का उपयोग साहित्यकारों और पत्रिकाओं को पढ़ने में व्यतीत किया करते थे। बस या ट्रेन की यात्रा में हम पत्रिका और पुस्तक पढ़ना अपने जीवन का एक प्रमुख अंग समझते थे। ऋचा वर्मा, सुधा पांडे, नलिनी श्रीवास्तव, रजनी गुप्ता, शिल्पी त्रिवेदी, इला जोशी, सुरभि सिंह, डॉ. प्रतिभा पाराशर आदि ने भी विचार व्यक्त किए।