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हावड़ा-मेदिनीपुर की लास्ट लोकल….

तारकेश कुमार ओझा
खड़गपुर(प. बंगाल )

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महानगरों के मामले में गांव-कस्बों में रहने वाले लोगों के मन में कई तरह की सही-गलत धारणाएं हो सकती हैं,जिनमें एक धारणा यह भी है कि देर रात या मुँह अंधेरे महानगर से उपनगरों के बीच चलने वाली लोकल ट्रेनें
अमूमन खाली ही दौड़ती होंगी। पहले मैं भी ऐसा ही सोचता था,लेकिन एक बार अहले सुबह कोलकाता पहुंचने की मजबूरी में तड़के साढ़े तीन बजे की पहली लोकल पकड़ी तो मेरी धारणा पूरी तरह से गलत साबित हुई। खुशगवार मौसम के दिनों में यह सोच कर ट्रेन में चढ़ा कि इतनी सुबह गिने- चुने यात्री ही ट्रेन में होंगे और मैं आराम से झपकियां लेता हुआ मंजिल तक पहुंच जाऊंगा,लेकिन वास्तविकता से सामना हुआ तो लेटने की कौन कहे, डिब्बों में बैठने की जगह भी मुश्किल से मिली। हावड़ा से मेदिनीपुर के लिए छूटने वाली अंतिम (लास्ट) लोकल का मेरा अनुभव भी काफी बुरा और डराने वाला साबित हुआ।
दरअसल,यह नब्बे के दशक के वाइ टू के की तरफ बढ़ने के दौरान की बात है। अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश में मैं लगातार उलझता जा रहा था। हर तरफ से निराश-हताश होकर आखिरकार मैंने भी अपने जैसे लाखों असहाय व लाचार लोगों की तरह दिल्ली-मुंबई का रुख करने का निश्चय किया। मोबाइल तो छोड़िए,तब टेलीफोन भी विलासिता की वस्तु थी। लिहाजा,मैंने अपने कुछ रिश्तेदारों को पत्र लिखा कि मैं कभी भी रोजी- रोजगार के लिए आपके पास पहुंच सकता हूँ। मेहनत-मजदूरी के लिए आपके मदद की जरूरत पड़ेगी। जवाब बस एकाध का ही आया। सब की यही दलील थी कि छोटा-मोटा काम भले मिल जाए,लेकिन महानगरों की कठोर जिंदगी शायद तुम न झेल पाओगे। न आओ तो ही अच्छा है।
इससे मेरी उलझन और बढ़ गई। हर पल जेहन में बुरा ख्याल आता कि अब मुझे भी किसी बड़े शहर में जाकर ‘दीवार’ फिल्म के अमिताभ बच्चन की तरह सीने में रस्सा बांधकर बोझा ढोना पड़ेगा या फिर किसी मिल में मेहनत-मजदूरी करनी होगी।
श्रमसाध्य कार्य की मजबूरी से ज्यादा व्यथित मैं अपनों से दूर जाने की
चिंता से था,क्योंकि मैं शुरू से होम सिकनेस का मरीज रहा हूँ। निराशा के इस दौर में अचानक उम्मीद की लौ जगी। सूचना मिली कि कोलकाता से एक बड़े धनकुबेर का अखबार निकलने वाला है। अखबार पहले सांध्य निकलेगा,लेकिन जैसे ही प्रसार एक निश्चित संख्या तक पहुंचेगा,वह आम अखबारों की तरह सुबह निकला करेगा। पैसों की कोई कमी नहीं,लिहाजा अखबार और इससे जुड़ने वालों का भविष्य सौ फीसद उज्जवल होगा। संयोग से अखबार के सम्पादक व सर्वेसर्वा मेरे गहरे मित्र बने, जिनसे संघर्ष के दिनों से दोस्ती थी। लिहाजा मैने उनसे संपर्क साधने में देर नहीं की। उन्होंने भी मेरी हौंसला-आफजाई करते हुए तुरंत खबरें भेजना शुरू करने को
कहा। उस काल में मैं सीधे तौर पर किसी अखबार से जुड़ा तो नहीं था,लेकिन अक्सर लोग मुझे तरह-तरह की सूचनाएं इस उम्मीद में दे जाते थे कि कहीं न कहीं तो छप ही जाएगी। ऐसी ही सूचनाओं में एक सामाजिक संस्था से जुड़ी खबर थी,जिसके पदाधिकारियों ने कई बार मुझसे संपर्क किया । मेरे यह कहने पर कि खबर जल्द प्रकाशित होने वाले अखबार की डमी कॉपी में छपी है, उन्होंने इसकी प्रति हासिल करने की इच्छा जताई तो मेरे लिए यह मसला प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया।
तभी मुझे सूचना मिली कि अखबार जल्द निकलने वाला है। मैं आकर डमी कॉपी ले जाऊं। इस सूचना में मेरे लिए दोहरी खुशी की संभावना छिपी थी। अव्वल तो यदि
सचमुच बड़े समूह का अखबार निकला तो मैं अपनी मिट्टी से दूर जाने की भीषण त्रासदी से बच सकता था और दूसरा इससे दम तोड़ते मेरे करियर को आक्सीजन की नई खुराक मिल सकती थी।
बस कहीं से सौ रुपए का एक नोट जुगाड़ा और अखबार की डमी कॉपियां लेने घनघोर बारिश में ही कोलकाता को निकल पड़ा। रास्ते में पड़ने वाले सारे स्टेशन मानो बारिश में भींगने का मजा ले रहे हों। कहीं-कहीं रेलवे ट्रैक पर भी पानी जमा होने लगा था।
जैसे-तैसे मैं दफ्तर पहुंचा तो वहां का माहौल काफी उत्साहवर्द्धक नजर आया। सर्वेसर्वा से लेकर हर स्टाफ ने मेरा हौंसला बढ़ाते हुए कहा कि अपन अब सही जगह पर आ गए हैं…भविष्य सुरक्षित होने वाला है…अब तो बस मौज करनी है। उदास चेहरे पर फीकी मुस्कान बिखरते हुए मैं मन ही मन बड़बड़ाता ….भैया,मुझे न तो भविष्य सुरक्षित करने की ज्यादा चिंता है और न ऐश करने
का कोई शौक…मैं तो बस इतना चाहता हूँ कि कुछ ऐसा चमत्कार हो जाए,जिससे मुझे अपनों से दूर न होना पड़े,क्योंकि मैं किसी भी सूरत में अपना शहर नहीं छोड़ना चाहता था।
रिमझिम बारिश के बीच सांझ रात की ओर बढ़ने लगी…बेचैनी ज्यादा बढ़ती तो मैं बाहर निकल जाता और फुटपाथ पर बिकने वाली छोटी भाड़ की चाय पीकर फिर अपनी सीट पर आकर बैठ जाता।
मेरे दिल-दिमाग में बस डमी कॉपियों का बंडल घूम रहा था। पूछने पर बार-बार यही कहा जाता रहा कि बस छप कर आती ही होगी। देर तक कुछ नहीं आया तो लगा मैं फिर किसी धोखे का शिकार हो रहा हूँ।
बारिश के बीच घर लौटने की चिंता से मेरा तनाव फिर बढ़ने लगा। आखिरकार एक झटके से मैं उठा और बाहर निकल गया। किसी से कुछ कहे बगैर हावड़ा जा रही बस में सवार हो गया,लेकिन मुश्किलें यहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी। इतनी रात गए हावड़ा-मेदिनीपुर की जिस लॉस्ट लोकल में मैं कुछ आराम से यात्रा करते हुए भविष्य को लेकर चिंतन-मनन की सोच रहा था,उसमें भी ठसाठस भीड़ थी। लोग डिब्बों के बाहर तक लटके हुए थे। कोलकाता महानगर को ले एक बार फिर मेरी धारणा गलत साबित हुई।
किसी तरह एक डिब्बे में सवार हुआ तो वहां यात्री एक-दूसरे पर गिर-पड़ रहे थे। इस बात को लेकर होने वाली कहासुनी और वाद-विवाद यात्रा को और भी कष्टप्रद बना रहा था।
ट्रेन एक के बाद एक स्टेशन पर रुकती हुई आगे बढ़ रही थी,लेकिन यात्री कम होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे थे। बागनान स्टेशन आने पर डिब्बा कुछ खाली हुआ तो मुझे बैठने की जगह मिल पाई। देउलटि आते-आते कुछ और मुसाफिर डिब्बे से उतर गए तो मैं यह सोच कर बेंच पर लेट गया कि दिन भर की थकान उतारते हुए भविष्य की चिंता करुंगा। मैं सोचने लगा कि ट्रेन तो खैर देर-सबेर अपनी मंजिल पर पहुंच जाएगी,लेकिन अपनी मंजिल का क्या होगा,क्या कोई रास्ता निकलेगा..! इस बीच कब मुझे झपकी लग गई,पता ही नहीं चला। नींद टूटने पर बंद आँखों से ही मैंने महसूस किया कि ट्रेन किसी पुल के ऊपर से गुजर रही है। हालांकि,डिब्बे में छाई अप्रत्याशित शांति से मुझे अजीब लगा। आँख खोली तो सन्न रह गया,पूरा डिब्बा खाली। जीवन की तरह यात्रा की भी। अजीब विडंबना कि जिस ट्रेन के डिब्बों में थोड़ी देर पहले तिल धरने की जगह नहीं थी,वही अब पूरी की पूरी खाली। आस-पास के डिब्बों की टोह ली तो वहां भी वही हाल।
लूटने लायक अपने पास कुछ था नहीं, लेकिन बारिश की काली रात में एक डिब्बे में अकेले सफर करना खतरनाक तो था ही। लिहाजा,ट्रेन के एक छोटे से स्टेशन पर रुकते ही मैं डिब्बे से उतर गया और किसी डरावनी फिल्म के किरदार की तरह बदहवास इधर-उधर भागने लगा,क्योंकि हर डिब्बा लगभग खाली था। इंजन के बिल्कुल पास वाले एक डिब्बे में दो खाकी वर्दीधारी असलहा लिए बैठे थे। मैं उसी डिब्बे में चढ़ गया और जैसे-तैसे घर भी पहुंच गया।
इसके बाद के दिन मेरे लिए बड़े भारी साबित हुए,लेकिन वाकई जिंदगी इम्तहान लेती है।
एक रोज कहीं से लौटा तो दरवाजे पर वहीं बंडल पड़ा था,जिसे लेने मैं बरसात की एक रात कोलकाता गया था और कोशिश करके भी हासिल नहीं कर पाया। बंडल के साथ एक पत्र भी संलग्न था,जिसमें अखबार शीघ्र निकलने और तत्काल संपर्क करने को कहा गया था। इस घटना के बाद वाकई मेरे जीवन को एक नई दिशा मिली…।

परिचय-तारकेश कुमार ओझा का नाम खड़गपुर में वरिष्ठ पत्रकार के रुप में जाना जाता है। आपका निवास पश्चिम बंगाल के खड़गपुर स्थित भगवानपुर (जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है। आपकी लेखन विधा अनुभव आधारित लेख,संस्मरण और सामान्य आलेख है।श्री ओझा का जन्म स्थान प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) हैl पश्चिम बंगाल निवासी श्री ओझा की शिक्षा बी.कॉम. हैl कार्यक्षेत्र में आप पत्रकारिता में होकर उप सम्पादक हैंl आपको मटुकधारी सिंह हिंदी पत्रकारिता पुरस्कार तथा श्रीमती लीलादेवी पुरस्कार के साथ ही बेस्ट ब्लॉगर के भी कई सम्मान मिल चुके हैंl आप ब्लॉग पर भी लिखते हैंl  

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