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हिंदी:राष्ट्र भाषा की राह में रोड़ा कौन ?

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों के अधिकांश पढ़े-लिखे लोग भी यही मानते हैं कि भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी है। यह जरूर है कि भारतीयों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान लिया है परंतु हमें शायद यह ज्ञान नहीं है कि संवैधानिक तौर पर हिन्दी आज भी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है। भले ही समूचे विश्व में हिन्दी को जानने वाले लोगों की तादाद २०० करोड़ से अधिक हो चुकी है, पर हिन्दी को अपने देश में न्याय नहीं मिल पाया है। इतना ही नहीं, संस्कृत भाषा की तकनीक को संगणकीय पृष्ठभूमि पर खरा पाए जाने के कारण आज हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में प्रतिस्थापित किए जाने की मुहिम शुरू हो चुकी है, क्योंकि संस्कृत तो अब अधिकतर चलन की भाषा नहीं रही पर उससे उद्भूत हिन्दी को यह सम्मान दिए जाने की पूरी पैरवी की जा रही है, पर भारत में हिन्दी नगण्य क्यों है ? इसके लिए हमें इतिहास से लेकर वर्तमान तक को एक नजर में जरूर देखना होगा।
भारतीय इतिहास का ज्ञान रखने वाले प्रत्येक भारतीय को यह पूरी तरह से मालूम है कि हजारों वर्ष भारत की भाषाएं राजकाज के कार्यों से विदेशी आक्रांताओं की शासकीय पकड़ के चलते नदारद रही। मुगल शासन काल में राज-काज की भाषा अरबी और फारसी रही। उसके बाद अंग्रेजी शासन काल में यह स्थान अंग्रेजी ने लिया। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए आजादी की लड़ाई लड़ने वालों का एक लंबा-चौड़ा इतिहास है। उसी इतिहास में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक विशेष स्थान रखते हैं। उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए विशेष प्रयास किए थे। इसी के चलते उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के लिए सन १९१७ में भरूच (गुजरात) में पहली मर्तबा हिंदी को राष्ट्रभाषा का नाम दिया था। इस मुहिम में नेहरू जी ने भी गांधी जी का साथ दिया था, यह भी पढ़ने को मिलता है। इसी के चलते आजादी के बाद इस मुद्दे पर संविधान सभा ने १४ सितंबर १९४९ को मुंशी आयंगर समझौते के तहत हिन्दी को संस्कृत की लिपि देवनागरी में टंकित किए जाने और राजभाषा का दर्जा दिए जाने की बात स्वीकार की।
भारतीय संविधान में केवल २ आधिकारिक (राजभाषा भाषाओं) भाषाओं(अंग्रेजी और हिंदी) को स्थान दिया गया है। वहां किसी भी राष्ट्रभाषा का जिक्र न होने के कारण शायद हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा देने के संदर्भ में एक बहुत बड़ा अड़ंगा बन गया है। इसमें यह भी जिक्र किया गया था कि २६ जनवरी १९५० को भारत के संविधान के लागू होने से लेकर १९६५ तक धीरे-धीरे अंग्रेजी का प्रयोग शासकीय कार्य में कम किया जाएगा और १५ साल के बाद हिन्दी में ही भारत के शासकीय कार्य किए जाने हैं।
संविधान के अनुच्छेद ३४३ (१) के तहत देवनागरी लिपि में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया एवं १४ सितंबर १९५३ को राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर पहली बार ‘हिंदी दिवस’ मनाया गया था। धीरे-धीरे हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की मुहिम और तेज होने लगी। इसमें हिन्दी के पक्षधर नेता बालकृष्ण और पुरुषोत्तम दास टंडन के आंदोलनों ने विशेष भूमिका निभाई।
१९७१ में क्षेत्रीय भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ने की कवायद तेज हुई। अब २००७ तक इनकी संख्या २२ हो चुकी है। फिर १९७६ में राजभाषा अधिनियम की धारा ४ के तहत राजभाषा संसदीय समिति बनाई गई, जिसने राष्ट्रपति की अनुशंसा पर राजभाषा नीति बनाकर लागू की।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के संबंध में गुजरात उच्च न्यायालय में भी एक याचिका दायर की गई थी। २५ जनवरी २०१० को इस याचिका का फैसला सुनाते हुए याचिकाकर्ता की दलीलों के आधार पर यह निर्णय दिया था कि यह पैरवी निराधार है। इस टिप्पणी के बाद यह मामला पुनः ठंडे बस्ते में चला गया।
रही बात हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने वाले गुट और न देने वाले गुट की तो उसमें हिन्दी का विरोध करने वाले गुट का यह मानना है कि जब भारत के २९ में से २० राज्यों में हिन्दी बोलने वाले लोग बहुत ही कम हैं, तो फिर हिंदी को ही राष्ट्रभाषा का दर्जा क्यों दिया जाए ? राष्ट्रभाषा तो वह होनी चाहिए जिसे समूचे देश के अधिकतर भागों के लोग जानते, बोलते और समझते हों। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने वालों की यह दलील कि देश की पूर्ण जनसंख्या का ५० फीसदी हिस्सा हिंदी बोलता और समझता है तथा शेष गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोगों का भी २० फीसदी हिस्सा हिन्दी समझता है। ऐसे में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना ही चाहिए।
तर्क-वितर्क का यह सिलसिला तब तक चलता ही रहेगा, जब तक किसी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल जाता। चर्चा में तो यह भी एक विषय उठता है कि संविधान सभा के समक्ष नेहरू जी ने यह भी प्रस्ताव रखा था कि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों को ही राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए, परंतु वह प्रस्ताव भी खारिज कर दिया गया था। खैर कुछ भी हो, किसी भी राष्ट्र की निजी पहचान और उन्नति के लिए उसकी अपनी राष्ट्रभाषा का होना बहुत जरूरी होता है। इस संबंध में हमारा भारत देश आज तक बौना है। एनडीए सरकार ने २०१४ में अपने मंत्रियों और अधिकारियों को सारे शासकीय कार्य हिन्दी में करने की हिदायत जरूर दी थी, परंतु दर्जा दिलाने के संदर्भ में वह भी चुप्पी साधे है। बड़ी हैरत में डालता है संविधान समिति का वह निर्णय, जिसने हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा का दर्जा दिलाया। सब जानते हैं कि लंबी जद्दोजहद के बाद भारत ने मुश्किल से अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा प्राप्त किया है। असल में यह गुलामी आज भी बरकरार है। यह सत्य है कि संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया, परंतु हिंदी की हालत आज भी ऐसी है कि मानो अपने ही घर में अपनी ही माँ के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा हो। न्यायालय की बड़ी-बड़ी टिप्पणियां, बहसें और न्याय प्रक्रिया के बाद आने वाले निर्णय के लिखित प्रारूप, चिकित्सा व्यवस्था की सारी लिखित और मौखिक जानकारी, शिक्षा व्यवस्था के वैज्ञानिक पहलुओं का लिखित एवं मौखिक ढांचा तथा अधिकतर उच्च प्रतियोगिताओं की परीक्षा भाषा आज भी अंग्रेजी ही है। इतना ही नहीं, ये सब प्रारूप इतने जटिल और दुरूह होते हैं कि इन व्यवसायों और प्रक्रियाओं पर जिसने शिक्षा प्राप्त नहीं कर के रखी है, उस शिक्षित व्यक्ति को भी इन प्रारूपों और व्यवस्थाओं की भाषा शैली को समझने के लिए, इन्हीं व्यवसायों में काम करने वाले लोगों के पास जाना पड़ता है।
भारत की अधिकांश जनता हिन्दी बोलती है, हिन्दी जानती है और हिन्दी समझती है। उसके बावजूद भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा आज तलक प्राप्त नहीं हो सका। राजभाषा होने के बावजूद भी राजकाज के अधिकतर कार्य आज तक अंग्रेजी में ही संपादित किए जाते हैं। कोई कुछ नया अपनी मौलिक शब्द शक्ति के साथ करना चाहे, तो कार्यालय के बड़े अधिकारी पुनः ड्राफ्टिंग करवाते हैं। यानी नकल करो बस। नया बिल्कुल भी न सोचो। यह उनका दोष नहीं है। यह तो हमारी अंग्रेजी मानसिकता का दोष है।
भले ही हिन्दी विद्यालय कितना ही अच्छा क्यों न हो ? वहां पर कितने ही पढ़े-लिखे और प्रशिक्षित अध्यापक क्यों न हो ? फिर भी लोगों की मानसिकता शटर में चलने वाले अंग्रेजी विद्यालयों के प्रति इतनी दृढ़ है कि जिसे तोड़ पाना नामुमकिन है। जब किसी कारोबार की बात है तो तब सारा का सारा बड़ा कारोबार हिन्दी में किया जाता है। राजनीति की भाषा (भाषण) हिन्दी, फिल्मी कारोबार की भाषा हिन्दी, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अधिकतम भाषा हिन्दी। अरे भाई जब अंग्रेजी इतनी महत्वपूर्ण है तो फिर ये सब कारोबार भी अंग्रेजी में ही क्यों नहीं करते ? सवाल तो बनता है। शायद इसलिए कि इन कारोबारों का उपभोक्ता या मतदाता आम व्यक्ति है, जिसे अंग्रेजी नहीं आती। कमाई तो उसी से करनी है। कमाने के लिए हिंदी और भुनाने के लिए अंग्रेजी। वाह! यह कैसी आजादी और कैसी व्यवस्था ?
शायद आजाद भारत का एक तथाकथित प्रतिष्ठित और शारीरिक रूप से आजाद तथा मानसिक रूप से अंग्रजी का गुलाम वर्ग भी यह नहीं चाहता कि भारत की आम जनता को उसकी जन भाषा में सभी जटिल भाषाई पहलुओं के साथ जटिल विषयों का ज्ञान प्राप्त हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो सभी व्यक्ति कानून के अच्छे-खासे जानकार हो जाएंगे। सभी को चिकित्सा संबंधी और राजस्व संबंधी सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारियां स्वयं प्राप्त हो जाएगी। आम जनता का मेहनती और बुद्धिमान बच्चा बड़े-बड़े ओहदों को प्राप्त कर लेगा। अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। इसके बिना आज की दुनिया में जीना असंभव है। आदि आदि बातें इतनी ज्यादा सशक्त नहीं है, जीतने की इन तथाकथित अंग्रेजी मानसिकता के गुलाम लोगों के निजी स्वार्थ हैं। ये लोग जानबूझकर आम जनमानस और विशिष्ट जनमानस के बीच में शिक्षा संबंधी दीवार खड़ी करना चाहते हैं ताकि इनकी और परिवारों की प्रतिष्ठा और विशिष्टत्व बना रहे। बाकी जनमानस इनके आगे हाजिर सलामी करता रहे। यदि ऐसा नहीं है तो फिर विश्व के अनेक विकसित देशों के लोग अपनी भाषा को महत्व दे तरक्की क्यों कर रहे हैं। पड़ोसी देश चीन को ही लिया जाए। क्या वह वैश्विक धरातल पर खड़ा नहीं हुआ है ? खड़ा होना ही नहीं बल्कि उसे तो वैश्विक धरातल पर दौड़ना आता है, परंतु इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि उसने आज जो तरक्की प्राप्त की है वह अपनी भाषा के बलबूते ही प्राप्त की है। उसने सूक्ष्म से सूक्ष्म विज्ञान को अपनी जन भाषा में लोगों को मुहैया करवाया और प्रत्येक व्यक्ति को इतना दक्ष बनाया कि वह छोटे से लेकर बड़ा उत्पाद तैयार करने के लिए सक्षम है। हमारे भारत में हमारे बच्चों की आधी जिंदगी तो अंग्रेजी सीखने में ही गुजर जाती है। जब उसे अंग्रेजी का थोड़ा बहुत ज्ञान होता है तो तब वह कहीं वैज्ञानिक पहलुओं को समझने लगता है।
हमारी तो आज हालत यह है कि हम न तो अंग्रेजी के हो पा रहे हैं और न ही हिन्दी के रह गए हैं। हिंदी ने हर भाषा को अपने भीतर समेटा। तत्सम, तद्भव, देशज ,विदेशी आदि विशाल शब्दकोश के साथ अब हमारे सामने खड़ी है। हमें पुकार रही है कि ‘मैं तुम्हारे हिसाब से हर तरह से ढलने को तैयार हूँ, पर तुम मेरा दर्द समझो और मुझे राष्ट्रभाषा का दर्जा दो। मुझे हजारों सालों से आक्रांताओं के द्वारा कुचलने की पूरी कोशिश की गई, पर मैं तुम्हारे लिए आज तक जिंदा हूँ।’
दु:ख तब होता है जब आजादी के इतने लंबे दौर के बाद भी हम अपने देश की जन भाषा को राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं दे पा रहे हैं। क्या यह एक साजिश है ? ऐसे बहुत सारे सवाल आज की नई पीढ़ी के भीतर घर कर रहे हैं। क्यों न हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान करके भारतीय जनमानस के शैक्षिक धरातल पर प्रस्तुत किया जाता है ? ताकि आम व्यक्ति लुटने से बचे और अपने भारत के पुरातन विज्ञान को अपनी जन्म भाषा में खंगाल कर भारत को पुनः विश्व गुरु के स्थान पर स्थापित कर सके। इसके लिए राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति का होना और भारतीय जनमानस को अंग्रेजी मानसिकता की गुलामी से मुक्त करवाना बहुत जरूरी है। चीन ने तो अपनी भाषा को आज तक बनाए रखा है, इसीलिए वह विकसित की श्रेणी में है शायद। और एक हम हैं कि अपनी भाषा को तवज्जो ही नहीं देना चाहते।
आज लोग अधिकतर मैकाले को ही हिन्दी की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। मैं कहूंगा इसमें न तो अंग्रेजी का दोष है और न ही तो मैकाले का। यह दोष न मुगलों का है और न ही तो अंग्रेजों का है। यह हमारी राजनीतिक और व्यवस्था जनक साजिशों का परिणाम है। आज पार्टियां भले ही एक-दूसरे के सिर पर इस बात का ठीकरा फोड़ती हो, परंतु यह कटु सत्य है कि ये सब सत्ता में बारी- बारी से आ चुकी है। सबका यही परिणाम है। इसके लिए जनता भी कम उत्तरदायी नहीं है। फिर क्यों जनाक्रोश का बहाना बनाकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जाता ? यदि ३ समुदाय के लोग अपनी ऐंठ और राजनीतिक स्वार्थ छोड़ दें तो भारत के किसी भी प्रांत और किसी भी धर्म, जाति तथा संप्रदाय के लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करने से कभी मना नहीं करेंगे। वैश्विक धरातल पर आज हिंदी का बोलबाला धीरे-धीरे हो रहा है। हमारे कई कवि और धर्मगुरु विदेशों में अपने धर्म का प्रचार- प्रसार करने जाते हैं। अंग्रेजी पूरे विश्व की भाषा है, इसलिए इसे महत्व देना ही होगा। इन प्रचार – प्रसारों से यह स्वयं ही सिद्ध हो जाता है कि हिन्दी कमजोर नहीं है, कमजोर है तो वह है हमारी अपनी मानसिकता। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में यदि कोई रोड़ा है तो वह हमारी अंग्रेजी की गुलाम मानसिकता ही है।
आजादी से आज तक निरंतर राष्ट्रभाषा हिन्दी बनने का सपना बहुतों ने संजोया और वह अभी तक संजोया हुआ ही रह गया है। बस उम्मीद बाकी है कि एक न एक दिन यह सपना जरूर पूरा होगा। अब देखना यह है कि इस मुद्दे पर कौन, कब और क्या करता है ? मेरे देश की आम जनता को कब न्याय मिलता है ?

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