डॉ.शैलेश शुक्ला
बेल्लारी (कर्नाटक)
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हिंदी भाषा केवल भारत की नहीं, बल्कि वैश्विक सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी है। वर्तमान में हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। लगभग ६० करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं, जिनमें से करोड़ों प्रवासी और विदेशी नागरिक हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में हिंदी भाषी समुदायों की मौजूदगी के कारण वहाँ हिंदी के सीखने और सिखाने की मांग तेजी से बढ़ी है।
फिर भी, हिंदी को एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की भाषा के रूप में स्थायित्व प्रदान करने के लिए केवल उसकी सांख्यिकीय उपस्थिति पर्याप्त नहीं है। ज़रूरत है सुव्यवस्थित, तकनीक-सक्षम, रोजगार-उन्मुख और सांस्कृतिक रूप से अनुकूलित शिक्षण व्यवस्था की।
विदेशों में हिंदी सिखाने की सबसे बड़ी समस्या प्रशिक्षित और प्रमाणित हिंदी शिक्षकों की कमी है। बहुत से देशों में हिंदी शिक्षा प्रवासी समुदाय के स्वयंसेवी प्रयासों पर निर्भर होती है, जहाँ शिक्षक शुद्धतापूर्वक पढ़ाने के लिए न तो पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त कर पाते हैं और न ही उन्हें संस्थागत सहयोग मिलता है। कई बार स्थानीय विश्वविद्यालयों में हिंदी को पढ़ाने के लिए केवल भाषा जानना ही योग्यता मान ली जाती है, जबकि भाषा शिक्षण एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसके लिए विषय विशेषज्ञता, भाषाशास्त्र की समझ, और पद्धतिगत प्रशिक्षण आवश्यक होता है। इस स्थिति का समाधान तभी संभव है, जब भारत सरकार या विश्व हिंदी सचिवालय जैसे संस्थान वैश्विक स्तर पर हिंदी शिक्षकों के लिए प्रमाणित प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारंभ करें। यह ग्लोबल हिन्दी टीचर सर्टिफिकेशन प्रोग्राम न केवल शिक्षकों को प्रशिक्षित करेगा, बल्कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता भी प्रदान करेगा, साथ ही विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों को भी यह उत्तरदायित्व दिया जाना चाहिए कि वे स्थानीय स्तर पर ऐसे शिक्षकों की पहचान कर उन्हें समय-समय पर आवश्यक प्रशिक्षण उपलब्ध कराएं।
हिंदी सीखने वाले विदेशी छात्रों की भाषा पृष्ठभूमि, संस्कृति, और उद्देश्य भारत के छात्रों से भिन्न होते हैं, लेकिन वर्तमान में जो पाठ्य पुस्तकें और पाठ्यक्रम उपयोग में लाए जा रहे हैं, वे अधिकतर भारतीय छात्रों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। इससे विदेशी विद्यार्थियों के लिए न तो भाषा सीखना सुगम होता है, न ही उनकी रुचि लंबे समय तक बनी रह पाती है। उदाहरण के लिए- भारतीय व्याकरण की गहन संरचनात्मक पढ़ाई शुरुआती विदेशी छात्रों के लिए बोझिल हो सकती है। इसके अतिरिक्त कई देशों में आधुनिक शिक्षण उपकरणों जैसे इंटरैक्टिव सामग्री, ऑडियो-विज़ुअल सहायता, ऑनलाइन अभ्यास, आदि की भी भारी कमी है। परिणामस्वरूप शिक्षण पारंपरिक ढाँचे में सीमित रह जाता है, जो आज के युवाओं के लिए आकर्षक नहीं है। इस समस्या के समाधान के लिए एक बहुस्तरीय और लचीला पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए जो विभिन्न स्तरों (शुरूआती, मध्यवर्ती, उन्नत) और उद्देश्य (सांस्कृतिक, रोजगारपरक, शैक्षणिक) के अनुसार अनुकूलित हो। इस कार्य में भारतीय भाषा विज्ञान संस्थानों, तकनीकी विशेषज्ञों और विदेशी भाषा विवि की साझेदारी होनी चाहिए। इससे सामग्री की गुणवत्ता और प्रासंगिकता दोनों बढ़ेगी।
आज का युग डिजिटल युग है और भाषा शिक्षा भी इससे अछूती नहीं रह सकती, लेकिन हिंदी भाषा सिखाने के डिजिटल माध्यम अब भी सीमित और अपर्याप्त हैं। हिंदी सीखने के लिए कुछ ऐप्स (जैसे ड्यूलिंगो, हेलो हिन्दी आदि) उपलब्ध हैं, पर उनकी गुणवत्ता, व्यापकता और गहराई अभी विकसित देशों की भाषाओं के समान स्तर तक नहीं पहुँच पाई है। इसके अलावा, हिंदी में अच्छे ऑडियोबुक, इंटरैक्टिव वेबसाइट्स, वर्चुअल रियलिटी आधारित भाषा शिक्षण प्लेटफॉर्म या मूक्स कोर्स बहुत ही कम हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि हिंदी भाषा को तकनीकी निवेश के लायक नहीं माना जाता, जिससे स्टार्ट-अप या डिजिटल कंटेंट निर्माता इस दिशा में ध्यान नहीं देते।
इस चुनौती का समाधान एक हिन्दी डिजिटल मिशन की स्थापना से हो सकता है, जिसमें सरकार, प्रौद्योगिकी कंपनियाँ, स्टार्ट-अप्स और भाषा शिक्षाविद मिलकर हिंदी के लिए उन्नत डिजिटल समाधान तैयार करें। इसमें कृत्रिम बुद्धिमता आधारित अनुवाद, स्वचालित उच्चारण मूल्यांकन, संवादात्मक चैटबॉट, और ऑडियो-वीडियो आधारित पाठ शामिल किए जाएँ। इससे विदेशों में हिंदी सीखने वाले विद्यार्थियों को अधिक रुचिकर और सहज अनुभव मिलेगा।
भाषा की शिक्षा तभी व्यावहारिक बनती है, जब वह जीवन में किसी उपयोग से जुड़ी हो। विदेशी विद्यार्थियों के लिए हिंदी सीखना एक रोचक अनुभव हो सकता है, लेकिन यदि इसका करियर में कोई प्रत्यक्ष लाभ न हो तो उनमें दीर्घकालिक रूचि बनाए रखना कठिन हो जाता है। हिंदी को वैश्विक मंच पर केवल सांस्कृतिक या साहित्यिक भाषा के रूप में प्रस्तुत करने की बजाय इसे व्यवसाय, पर्यटन, मीडिया, अनुवाद, और तकनीकी संवाद की भाषा के रूप में स्थापित करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, भारत में बीपीओ सेक्टर, यात्रा और पर्यटन, योग-आयुर्वेद सेवाओं और डिजिटल मार्केटिंग में काम करने वाले विदेशी युवाओं के लिए हिंदी का ज्ञान एक अतिरिक्त योग्यता हो सकता है।
यदि अंतरराष्ट्रीय विवि में हिंदी को इन क्षेत्रों से जोड़ते हुए पाठ्यक्रम तैयार किए जाएँ तो यह हिंदी को कैरियर उन्मुख बना सकता है। इसके साथ-साथ भारतीय कंपनियों और सरकारी विभागों को भी ऐसे कर्मचारियों की आवश्यकता महसूस करानी चाहिए जो हिंदी और अंग्रेजी दोनों में दक्ष हों। इससे हिंदी का वैश्विक औपचारिक उपयोग भी बढ़ेगा।
इन सभी समस्याओं का समाधान केवल व्यक्तिगत या संस्थागत प्रयासों से संभव नहीं है। इसके लिए एक समग्र और समन्वित नीति की आवश्यकता है, जिसे ‘वैश्विक हिंदी नीति’ कहा जा सकता है। यह नीति भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों, विश्व हिंदी सचिवालय, आईसीसीआर और अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के संयुक्त प्रयास से तैयार होनी चाहिए। इस नीति में निम्नलिखित पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिए-शिक्षकों का प्रशिक्षण और प्रमाणन, अंतरराष्ट्रीय स्तर का पाठ्यक्रम विकास, डिजिटल कंटेंट और टेक प्लेटफॉर्म का निर्माण, हिंदी को रोजगार से जोड़ने की रणनीति एवं प्रवासी समुदाय की भागीदारी और समर्थन। यह नीति केवल सरकारी प्रयासों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए, बल्कि निजी कंपनियों, तकनीकी संस्थानों, एनजीओ और अंतरराष्ट्रीय भाषायी मंचों को भी इस मिशन में भागीदार बनाना चाहिए।
हिंदी भाषा आज विश्व में केवल भारत की प्रतिनिधि नहीं रही, बल्कि यह एक ऐसे समुदाय की आवाज़ है जो संस्कृति, भावना, विचार और संवाद को जोड़ती है, लेकिन इस भाषा को वैश्विक स्तर पर सशक्त करने के लिए हमें योजनाबद्ध, संसाधन-संपन्न और व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। हिंदी को केवल साहित्य या भावनात्मक जुड़ाव की भाषा के रूप में देखने के बजाय उसे तकनीकी, वैज्ञानिक, आर्थिक और वैश्विक संवाद की भाषा के रूप में स्थापित करना समय की मांग है। इस दिशा में डिजिटल माध्यमों, वैश्विक शिक्षक प्रशिक्षण, रोजगारपरक पाठ्यक्रम और सरकारी नीति की ठोस भूमिका आवश्यक है।
हमें यह समझना होगा कि हिंदी का वैश्विक भविष्य केवल उसकी वर्तमान स्थिति पर निर्भर नहीं है, बल्कि हमारे समर्पित प्रयासों और दूरदर्शी रणनीतियों पर आधारित है। यदि हम समवेत प्रयास करें, तो हिंदी निश्चय ही वैश्विक भाषाओं की अग्रिम पंक्ति में स्थान पा सकती है।