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हिन्दी भारत के मस्तिष्क का तिलक

ललित गर्ग
दिल्ली
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हिंदी संग हम…

राजभाषा कही जाने वाली हिंदी भाषा अपने ही देश में घोर उपेक्षा की शिकार है, बावजूद आज दुनिया में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बन गई है। विश्व भाषा बनने की ओर हिन्दी के बढ़ते कदम भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। यूएई के ‘हम एफ-एम’ सहित अनेक देश हिंदी कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं, जिनमें बीबीसी, जर्मनी आदि की हिंदी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अमेरिका में ३२ विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों में हिंदी पढ़ाई जाती है। ब्रिटेन की लंदन यूनिवर्सिटी, कैंब्रिज और यॉर्क यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाई जाती है। जर्मनी के १५ शिक्षण संस्थानों ने हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन को अपनाया है। इस तरह हिन्दी में विश्व भाषा बनने की समस्त अर्हताएं एवं विशेषताएं समाई हुई है। हिन्दी स्वयं में अपने भीतर एक अन्तर्राष्ट्रीय जगत छिपाये हुए हैं। आर्य, द्रविड़, आदिवासी, स्पेनी, पुर्तगाली, जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेजी, अरबी, फारसी, चीनी और जापानी आदि सारे संसार की भाषाओं के शब्द इसकी विश्वमैत्री एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ वाली प्रवृत्ति को उजागर करते हैं। विश्व में हिंदी भाषी करीब ७० करोड़ लोग हैं। इस समृद्ध एवं वैश्विक गरिमा वाली हिन्दी की हमारे देश में दिन-प्रतिदिन उपेक्षा होती जा रही है, हिन्दी पर अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब हिन्दी हमारे अपने ही देश में विलुप्तता की कगार पर पहुंच जाएगी, जबकि हिन्दी राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा है, उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करने के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकृति दिलाने के लिए ठोस कदम उठाए जाने की अपेक्षा है। हिन्दी में यह शक्ति कब आएगी कि, वह विश्व के लिए एक ऐसी महत्वपूर्ण भाषा बन जाए, जिसकी उपेक्षा न देश में और न दुनिया में हो सके। यह तभी संभव है जब हमारी मानसिकता बदले, हम हिन्दी को बोलते हुए गर्व का अनुभव करें एवं स्वयं के देश में हिन्दी को प्रतिष्ठापित करें, सम्मान करें। आचार्य विनोबा भावे ने सही कहा कि “हिंदी को गंगा नहीं, बल्कि समुद्र बनना होगा।”
भारत अपनी विविध आबादी को एकजुट करने और विभिन्न क्षेत्रों में संचार के साधन प्रदान करने में हिंदी की भूमिका को स्वीकार करता है। यह भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषाई और सांस्कृतिक सद्भाव को बढ़ावा देने के महत्व पर भी प्रकाश डालता है। इसके अलावा ‘हिंदी दिवस’ लोगों को हिंदी भाषा सीखने और उसकी सराहना करने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिससे उनकी भाषाई विरासत पर गर्व की भावना पैदा होती है। यह हिंदी साहित्य, कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों, प्रतियोगिताओं और कार्यक्रमों के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का सबसे पहले विचार महात्मा गांधी ने वर्ष १९१८ में हिंदी साहित्य सम्मेलन में किया था। इसके अलावा देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे पहले नेता थे, जिन्होंने १९७७ में अंतरराष्ट्रीय श्रोताओं को हिंदी में संबोधित किया था। वह आज तक मिसाल के तौर पर याद किया जाता है।
हिंदी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। हमने जिस त्वरितता से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में पहल की, उसी से राजनीतिक कारणों से हिन्दी की उपेक्षा भी लगातार होती रही है। यही कारण है कि, आज भी हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए। राष्ट्र भाषा सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। भारत का परिपक्व लोकतंत्र, प्राचीन सभ्यता, समृद्ध संस्कृति तथा अनूठा संविधान विश्वभर में एक उच्च स्थान रखता है, उसी तरह भारत की गरिमा एवं गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा हिन्दी को हर कीमत पर विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में हिन्दी को राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के रूप में शालाओं, महाविद्यालयों, अदालतों, सरकारी कार्यालयों और सचिवालयों में कामकाज एवं लोक व्यवहार की भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिलना चाहिए।
देश-विदेश में हिन्दी को जानने-समझने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। अंतरजाल के इस युग ने हिंदी को वैश्विक धाक जमाने में नया आसमान मुहैया कराया है। अब विश्व भर की वेबसाइट हिंदी को भी तवज्जो दे रही हैं। ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट, सरल मोबाइल संदेश एवं वेब जगत में हिंदी को बड़ी सहजता से पाया जा सकता है। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल आदि जैसी कंपनियां अत्यंत व्यापक बाजार और भारी मुनाफे को देखते हुए हिंदी प्रयोग को बढ़ावा दे रही हैं। एक अध्ययन के मुताबिक हिंदी सामग्री की खपत करीब ९४ फीसद तक बढ़ी है। हर ५ में १ व्यक्ति हिंदी में अंतरजाल प्रयोग करता है।
हिन्दी की उपेक्षा पर महात्मा गांधी ने अपनी अन्तर्वेदना प्रकट करते हुए कहा था कि “भाषा संबंधी आवश्यक परिवर्तन अर्थात हिन्दी को लागू करने में एक दिन का विलम्ब भी सांस्कृतिक हानि है। मेरा तर्क है कि जिस प्रकार हमने अंग्रेज लुटेरों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक समाप्त कर दिया, उसी प्रकार सांस्कृतिक लुटेरे रूपी अंग्रेजी को भी तत्काल निर्वासित करें।” आजादी के अमृतकाल में हिन्दी को उसका गरिमापूर्ण स्थान दिलाना ही होगा। पूर्व उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने हिन्दी के बारे में कहा कि “अंग्रेजी एक भयंकर बीमारी है, जिसे अंग्रेज छोड़ गए हैं।’’ आजादी के ७६ साल बाद भी सरकारें अपना काम-काज अंग्रेजी में करती हैं, यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति है। वैंकय्या नायडू की हिन्दी को लेकर जो दर्द एवं संवेदना है, वही स्थिति सरकार से जुडे़ हर व्यक्ति के साथ-साथ जन-जन की होनी चाहिए। हिन्दी के लिए दर्द, संवेदना एवं अपनापन जागना जरूरी है। कोई भी देश बिना अपनी राजभाषा के ज्ञान के तरक्की नहीं कर सकता है।
वर्तमान में हिन्दी की दयनीय दशा देखकर मन में प्रश्न खड़ा होता है कि, कौन महापुरुष हिन्दी को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करेगा ? हिन्दी की उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे छांटने के लिए ईमानदार प्रयत्न करने होंगे, क्योंकि हिन्दी ही भारत को सामाजिक-राजनीतिक-भौगोलिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़ने वाली भाषा है। भाषायी संकीर्णता न राष्ट्रीय एकता के हित में है और न ही प्रान्त के हित में। प्रान्तीय भाषा के प्रेम को इतना उभार देना, जिससे राष्ट्रीय भाषा के साथ टकराहट पैदा हो जाए, यह देश के लिए उचित कैसे हो सकता है ?
हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। हिन्दी को मत मांगने और अंग्रेजी को राज करने की भाषा बनाना हमारी राष्ट्रीयता का अपमान नहीं है ? हमारी राष्ट्रभाषा दुनिया में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में तीसरे क्रम पर है, फिर हमें क्यों इसे बोलने एवं उपयोग करने में शर्म महसूस होती है ?