दिल्ली
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आदि शंकराचार्य जयन्ती (२ मई) विशेष…
महापुरुषों की कीर्ति युग-युगों तक स्थापित रहती है। उनका लोकहितकारी चिंतन, दर्शन एवं कर्तृत्व कालजयी होता है, सार्वभौमिक, सार्वदैशिक एवं सार्वकालिक होता है और समाज का मार्गदर्शन करता है। आदि शंकराचार्य हमारे ऐेसे ही एक प्रकाशस्तंभ हैं जिन्होंने एक महान हिंदू धर्माचार्य, दार्शनिक, गुरु, योगी, धर्मप्रवर्तक और संन्यासी के रूप में आठवीं शताब्दी में अद्वैत वेदांत दर्शन का प्रचार एवं हिन्दुओं को संगठित किया। उन्होंने ४ मठों की स्थापना की, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में हैं। आदि गुरु शंकराचार्य हिंदू धर्म में एक विशेष स्थान रखते हैं, उनके विराट व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करने का अर्थ है उनके व्यक्तित्व को ससीम बनाना। उनके लिए इतना ही कहा जा सकता है कि वे अनिर्वचनीय हैं। उन्हें हम धर्मक्रांति एवं समाज-क्रांति का सूत्रधार कह सकते हैं। अपने जन्मकाल से ही शिशु शंकराचार्य के मस्तक पर चक्र का चिन्ह, ललाट पर तीसरे नेत्र तथा कंधे पर त्रिशूल जैसी आकृति अंकित थी, इसी कारण आदि शंकराचार्य को भगवान शिव का अवतार भी माना जाता है। भगवान शिव ने उन्हें साक्षात् दर्शन देकर अंध-विश्वास, रूढ़ियों, अज्ञानता एवं पाखण्ड के विरूद्ध जनजागृति का अभियान चलाने का आशीर्वाद दिया। उन्होंने भयाक्रांत और धर्म विमुख जनता को अपनी आध्यात्मिक शक्ति और संगठन युक्ति से संबल प्रदान किया था। उन्होंने नए ढंग से हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार किया और लोगों को सनातन धर्म का सही एवं वास्तविक अर्थ समझाया।
आदि शंकराचार्य के अनूठे प्रयासों से ही आज हिन्दू धर्म बचा हुआ है एवं सनातन धर्म परचम फहरा रहा है। शंकराचार्य ने अपने ३२ वर्ष के अल्प जीवन में ही पूरे भारत की ३ बार पदयात्रा की और अद्भुत आध्यात्मिक शक्ति व संगठन कौशल से उस समय के ७२ संप्रदायों तथा ८० से अधिक राज्यों में बंटे इस देश को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में इस प्रकार बांधा कि यह शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणकारियों से स्वयं को बचा सका तथा अखण्ड बना रहा। ऐसे दिव्य एवं अलौकिक संत पुरुष का जन्म धार्मिक मान्यताओं के अनुसार वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को केरल के कालड़ी गाँव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ये बड़े ही मेधावी थे। ६ वर्ष की अवस्था में ही प्रकांड पंडित हो गए थे और ८ वर्ष की अवस्था में संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। एक दिन नदी किनारे मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर पकड़ लिया, तब वक्त का फायदा उठाते हुए शंकराचार्य जी ने अपनी माँ से कहा “माँ मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दो, अन्यथा यह मगरमच्छ मुझे खा जाएगा।” इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा दी। आश्चर्य की बात है कि जैसे ही माता ने आज्ञा दी, वैसे ही मगरमच्छ ने पैर छोड़ दिया। इन्होंने गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण किया, जो आगे चलकर आदि गुरु शंकराचार्य कहलाए।
आदि शंकराचार्य ने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धांत और हिन्दू संस्कृति को पुनर्जीवित करने का अनूठा एवं ऐतिहासिक कार्य किया, साथ ही अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त को प्राथमिकता से स्थापित किया। उन्होंने धर्म के नाम पर फैलाई जा रही तरह-तरह की भ्रांतियों को मिटाने का काम किया। सदियों तक पंडितों द्वारा लोगों को शास्त्रों के नाम पर जो गलत शिक्षा दी जा रही थी, उसके स्थान पर सही शिक्षा देने का कार्य आदि शंकराचार्य ने ही किया। आज शंकराचार्य को एक उपाधि के रूप में देखा जाता है, जो समय-समय पर एक योग्य व्यक्ति को सौंपी जाती है। भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांत सूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।
आदि शंकराचार्य ने हिन्दुओं को संगठित करने के लिए सबसे पहले दक्षिण दिशा में तुंगभद्रा नदी के तट पर श्रृंगेरी मठ की स्थापना की। इसके बाद उत्तर में अलकनंदा नदी के तट पर बद्रिकाश्रम (बद्रीनाथ) के पास ज्योतिर्मठ, पश्चिम में द्वारकापुरी में एवं पूर्व में जगन्नाथ मठ की स्थापना की। इस प्रकार शंकाराचार्य जी ने संपूर्ण भारत को धर्म एवं संस्कृति के अटूट बंधन में बांधकर विभिन्न मत-मतांतरों के माध्यम से सामंजस्य स्थापित किया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर ‘शांकरभाष्य’ की रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य जी द्वारा किया गया है, जो सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है।
जिस युग में आदि शंकराचार्य ने जन्म लिया, उस समय देशी-विदेशी प्रभावों के दबाव में भारतीय संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रही थी और पतन आरंभ हो गया था। उन्होंने भयाक्रांत और धर्म विमुख जनता को अपनी आध्यात्मिक शक्ति और संगठन युक्ति से संबल प्रदान किया।
पूर्व राष्ट्रपति एवं दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हें प्राचीन परम्परा का भाष्यकार आचार्य बताते हुए लिखा है, कि देश के अन्य भाष्यकारों की तरह अपने अध्ययन में उन्होंने कभी भी किसी प्रकार की मौलिकता का दावा नहीं किया। भारत में आदि शंकराचार्य के प्रयास से एक ऐसे आंदोलन का आविर्भाव हुआ, जो सनातन वैदिक धर्म को उसकी अस्पष्टताओं और असंगतियों से निकालकर स्पष्ट तथा सर्वसाधारण के लिए स्वीकार्य बनाना चाहता था। उनकी शिक्षा का आधार उपनिषद थे। वेदांत के विरोधियों से शास्त्रार्थ करने के उनके उत्साह के कारण देश के विभिन्न दार्शनिक केंद्रों में जो जड़ता आई थी, उनमें एक नए विचार-विमर्श की प्रेरणा आरंभ हुई। शंकर द्वारा स्वीकृत दर्शन तथा संगठन बौद्धों के दर्शन और संगठन से मिलते-जुलते थे। आदि शंकराचार्य ने भारत में बढ़ते विभिन्न मतों पर उन्हीं की पद्धति से अपनी वैचारिक श्रेष्ठता सिद्ध की और सनातन वैदिक धर्म का पुनरुत्थान किया।