लाचार पथिक सामने अनन्त दूरी है,
जीऊँ कैसे,जीना भी तो मजबूरी है।
वक्त की गर्दिशों की गहन धूल,
अन्जान अजनबी-सा जीवन मूल।
रोग क्या मारेगा भूख के मारे हैं,
केवल कल्पना के काल के सहारे हैं।
क्षुधा की अग्नि में सब भस्म है,
जीवन तो अब केवल रस्म है।
यहाँ लोग एक-दूसरे से डरने लगे हैं,
साथ-साथ रहते थे दूर-दूर चलने लगे हैं।
क्या यहाँ रुकना जरुरी है ?
जीऊँ कैसे……..मजबूरी है॥
कपाट आशियाने का बन्द है चले हैं गाँव,
छाले का भान नहीं डगमगाते हैं पाँव।
चलने के सिवा कोई रास्ता नहीं,
यहाँ किसी को किसी से वास्ता नहीं।
कल तक जो लगता अपना था,
वह तो केवल छलिया सपना था।
कालपथ का दामन अगणित अनन्त,
आशाहीन छटपट करता चलता कंत।
राहें रुकने का नाम न लेती,
बाधाएँ आगोश भर लेती।
क्या मशवरा जीवन की धुरी है ?
जिऊँ कैसे……..मजबूरी है॥
जिसने कल तक अपना माना,
मेरे बाहुबल को सबकुछ जाना।
मैं वही पर मानवता की लेश नहीं,
जीवन जगत में बचा हुआ कुछ शेष नहीं।
निस्तब्ध कंकरीट की सड़कें,
अब वह भी खडी़ है सम्मुख अड़ के।
रुकता कहां ये जीवन रथ,
कालपथ,कालपथ,कालपथ।
आगे खाई पीछे कुँआ क्या करे आवाम,
त्राहिमाम,त्राहिमाम,त्राहिमाम।
भौतिकता की होड़ में मानवता से दूरी है,
जीऊँ कैसे………मजबूरी है॥
टाट के पैबन्द का आशियाना था,
उसी में कमाना उसी में खाना था।
वक्त के थपेडो़ं ने उजाडा़ घर का कोना,
भूख विकराल है छोटा है ‘कोरोना।’
यहाँ सघन दुपहरी छाँव नहीं है,
यहाँ भव्य भवन है गाँव नहीं है।
यहाँ बौधिकता की होड़ लगी है,
यहाँ क्षुधा में केवल भूख जगी है।
शासन के शासत में बढ़ते जाना है,
भले साँसें थम जाए पर गाँव जाना है।
राय नीति की ये कैसी मगरुरी है ?
जीऊँ कैसे! जीना भी तो मजबूरी है॥