डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली)
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हिजाब को लेकर कर्नाटक में जबर्दस्त खट-पट चल पड़ी है। यदि मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनने को लेकर प्रदर्शन कर रही हैं तो हिंदू लड़के भगवा दुपट्टा लगाकर नारे जड़ रहे हैं। उन्हें देख-देखकर दलित लड़के नीले गुलूबंद डटाकर नारे लगा रहे हैं। अच्छा है कि वहां समाजवादी नहीं हैं,वरना वे लाल टोपियां लगाकर शोर-शराबा मचाते। समझ में नहीं आता कि शिक्षा-संस्थाओं में सांप्रदायिकता का यह जहर क्यों फैलता जा रहा है ? न हिजाब पहनना अपने-आपमें बुरा है,न भगवा दुपट्टा लपेटना और न ही लाल टोपी लगाना लेकिन आपकी वेशभूषा, खान-पान और भाषा-बोली यदि आपस में बैर करना सिखाती है तो निवेदन है कि आप उसे तुरंत तज दीजिए। इकबाल ने क्या खूब लिखा था, ‘‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,हिंदी हैं, हम वतन हैं,हिंदोंस्तां हमारा।” अब मजहबी संकीर्णता और जिद का प्रदर्शन हिजाब,दुपट्टे और टोपी से हो रहा है। कोई इनसे पूछे कि कौन-से धर्मग्रंथ में-वेद में,बाइबिल में,कुरान में,पुराण में, जिंदावस्ता में या त्रिपिटक में-कहां लिखा है कि आप फलां चीज खाएं या न खाएं,फलां कपड़ा पहनें या न पहनेंइस करवट सोएं या उस करवट सोएं ? इन सब रोजमर्रा के मुद्दों को धर्म-पंथ या संप्रदाय से जोड़कर खून बहाना कौन-सी ईश्वर-भक्ति है ? यदि यही ईश्वर भक्ति है तो ऐसा विभाजनकारी और विभेदकारी ईश्वर तो ईश्वर हो ही नहीं सकता। वह जगत पिता कैसा जगत पिता है,जो अपने बच्चों के बीच ही लड़ाई के बीज बो देता है। सारे मजहब मानते हैं कि ईश्वर एक ही है। कोई उसे ईश्वर,कोई अल्लाह,कोई खुदा,कोई यहोवा,कोई अहुरमज्द कहता है। रोजमर्रा की जिंदगी हम किस शैली में गुजारते हैं,इससे उसका क्या लेना-देना है ? सारी दुनिया के लोग जो अलग-अलग ढंग के कपड़े पहनते हैं,अलग-अलग ढंग के खाने खाते हैं,अलग-अलग शैली के गाने गाते हैं,वे सब अपने देश-काल से संचालित होते हैं। जो धर्म या पंथ जब और जहां पैदा हुआ है,उस पर उस देश (स्थान) और काल (समय) का असर बना रहता है लेकिन उसे दुनिया के हर स्थान और सैकड़ों वर्षों बाद भी जस का तस अपनाने की बात करना घोर अंधविश्वास के अलावा क्या है ? क्या धोती-कुर्त्ता पहनकर कोई साइबेरिया की ठंड में जिंदा रह सकता है ? क्या अरब लोगों को अब भी ऊँट की सवारी ही करते रहना चाहिए ? ईसाई कन्याओं को माता मरियम की तरह क्या अविवाहित ही रहना चाहिए? क्या भारत के लेाग अब भी राजा दशरथ की तरह ३ पत्नियां और द्रौपदी की तरह ५ पति रख सकते हैं ? क्या आप किसी ऐसे घोर ईश्वरभक्त को जानते हैं,जो कोई आकाशवाणी सुनकर संत इब्राहिम की तरह अपने प्यारे बेटे इजहाक को कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाए ? मनुष्य जाति का इतिहास बताता है कि मजहबों या तथाकथित धर्मों ने जहां करोड़ों मनुष्यों को नैतिकता और मर्यादा का पाठ पढ़ाया है,वहीं उन्होंने राजनीति से भी ज्यादा गंदी भूमिका अदा की है। इसीलिए जरुरी है कि हम पंथ,संप्रदाय और धर्म के नाम पर आपस में लड़ने से बाज आएं। जो लोग ईश्वर और अल्लाह के नाम पर खून बहाने को तैयार रहते हैं,वे उस परम शक्ति के अस्तित्व के प्रति अविश्वास पैदा कर देते हैं। वह ईश्वर ही क्या है,जो अपने भक्तों के बीच झगड़े करवाता है ?
परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।