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नारी जीवन समाज संरचना का आधार

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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नारी और जीवन (अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस)….

नारी और जीवन के अनगिनत मनोभाव व विचार युगों से यदा-कदा प्रकट होते ही रहे हैं। हिंदी कवियों की कविताओं में नारी की पहचान कभी ‘ श्रद्धा सुमन’ बन जाती है तो कभी ‘अबला।’ अन्य भाषाओं की रचनाओं में है-भाव भंगिमा में श्रृंगार रस की परिणति। नारी को आवश्यकता पड़ने पर शौर्य-शक्ति की पहचान बताकर लोलुप करना भी कहाँ भूल सकते हैं। अमूमन नारी को पुरुष वर्ग में यह मान-सम्मान तभी मिला,जब उनके समक्ष अन्य कोई योद्धा पुरुष नहीं उपलब्ध था। सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन की संरचना में नारी एकमात्र वस्तु की भाँति ही समझी गई,जिसे किसी न किसी के अधीन रहकर ही व्यक्तिगत जीवन को व्यतीत करना आवश्यक है। परंपराओं व रीति-रिवाजों के मूल्यों को इस तरह से थोपा गया कि नारी स्वयं के सोच-विचार को अभिव्यक्त करने का दुस्साहस न कर सकी। कोल्हू के बैल की भाँति जीवन-यापन को अपने भाग्य का लेखा-जोखा मान तूष्णी बन गई।
युगों के ऐतिहासिक पन्नों पर कई वीरांगनाओं की साहसिक गाथाएँ अंकित हैं। सामाजिक क्रूर प्रथाओं को बदलने का विरोध करने वाली नारियों का भी परिचय प्राप्त होता है,लेकिन नारी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पन्ना आज के युग से संबद्ध है,जिसका उद्भव द्वितीय युद्ध के पश्चात हुआ। हालाँकि,इस नारी सजगता का प्रथम चरण पाश्चात्य देशों में प्रारंभ हुआ। पुरुषों के समान शिक्षा,कार्य क्षेत्र में समानता,समान राजनीतिक अधिकार, समान नैतिक दंडों की स्थापनाओं-विशेषतया नारी की नियति संबंधी आदि तत्वों का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए व्यवस्थाओं को जागरूक करने का कार्य किया। आज यह मानने से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि नारी ने इस क्षेत्रों में सफलता भी अर्जित की है। पाश्चात्य परिवेश व संस्कार भले ही भारतीय धार्मिक व सामाजिक परिवेश से भिन्न हों,किंतु नारी संबंधी प्रश्न व समस्याएँ एक ही लक्ष्मण रेखा-सी ही रहीं। वास्तव मेंजहाँ एक ओर वर्तमान प्रचलित समाज व अन्य क्षेत्रों में नारी अपनी प्रतिभा को स्थापित करने में हठ किए हुए है, वहीं अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए,पहचान बनाते हुए पुरुषों की तरह मान-सम्मान अकेले अपने-अपने स्तर पर प्राप्त करने लगी है। अर्थात् नारी अपने विवेक के प्रति सजग हो रही है।
आधुनिक समय में नारी का संघर्ष न किसी धर्म से प्रेरित है,न ही किसी राजनीतिक व सामाजिक विचारधारा से। आज की भारतीय नारी का मात्र एक ही संघर्ष है,’ नारी का निजी और विशिष्ट अनुभूतियों में कर्तव्य परायण होते हुए राजनीतिक, सामाजिक,पारिवारिक अधिकारों के प्रति सजगता। ’ यानि कि नारी का स्वयं को पहचानने और अपनी अस्मिता के प्रति विवेकशील होना। नि:संदेह अत्यंत जद्दोजहद के बाद संवैधानिक रूप से आज नारी को पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त हुए हैं,और नारी में भी गुणात्मक विकास हुआ है,लेकिन यह अभी भी अधूरा और अक्रमिक उत्थान ही माना जा सकता है। भारतीय समाज की संरचना की मूलभूत जड़ें धार्मिक आस्थाओं में नींव के रूप में विद्यमान हैं। इस आधार पर यह कहने में संकोच कैसा कि धर्म व कर्म क्षेत्र में नारी की शक्ति-मुक्ति दोनों ही दिशा में भोग का साधन हैं।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि,इस दिशा में प्रत्येक नारी को अपना संघर्ष स्वयं ही करना है। इस संघर्ष में दिल्ली अभी भी दूर है। सूक्ष्मता से देखा जाए तो भारतीय शिक्षित व अशिक्षित समाज में नारी का संघर्ष पुरातन ही है,केवल संघर्ष की रूप-रेखाएँ ही परिवर्तित हुईं हैं। जहाँ बाह्य स्तर पर कार्यक्षेत्र में कार्य करने की स्वतंत्रता मिली है,वहीं नए संघर्ष का जन्म भी हुआ है,मसलन- कार्यालयों में नारी को हीन नज़र से देखना,व्यापार वृद्धि के लिए उपयोग की वस्तु मानना,उठने-बैठने तक के प्रत्येक क्रम पर फबतियाँ कसना आदि,और निजी जीवन में नारी का दोहरा संघर्ष उत्पन्न होना, पारिवारिक घरेलू कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भरता, बच्चों की परवरिश व शिक्षा पर स्वयं के कर्तव्य से मुख मोड़ना आदि शामिल है। आंतरिक स्तर पर नारी का अति महत्वाकांक्षी बन जाना भी संघर्षों की नई गाथा साथ में रच रहा है,जो सामाजिक, पारिवारिक व व्यक्तिगत दृष्टि से तलाक़,लिव इन रिलेशनशिप जैसे नए प्रतिमान स्थापित कर विघटन की स्थिति भी पैदा कर रहा है। अत: नारी और जीवन के प्रश्न पर नए सिरे से विचार-विमर्श की आवश्यकता है कि,नारी अपने विवेक को जागृत करते हुए किस प्रकार के समाज का निर्माण व विकास करना चाहती है ? इस चिंतन में यह ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि नारी व पुरुष में प्रकृति गुणों में भिन्नता है। दोनों की इस भिन्नता के गुणों में सामंजस्य करते हुए समाज,परिवार व व्यक्तिगत धारणाओं में क्या स्वाभाविक परिवर्तन होने चाहिए और कौन से परिवर्तन समाज,परिवार व व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए उचित हैं ?
आज नारी सजगता,नारी चेतना,नारी पहचान आदि से अधिक प्रबल है वर्तमान में धीरे-धीरे पाँव फैला रही नवयुवकों व नवयुवतियों की सामाजिक कुरीतियाँ-
‘नारी जीवन है समाज की संरचना का आधार,
मान लो नारी नहीं है कोई वस्तु व्यापार।’