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‘मेघदूत’ कालिदास जी का अमर खंडकाव्य

डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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आषाढ़ प्रथम दिवस (भाग २)…

राष्ट्रीय चेतना का स्वर जगाने का महान कार्य करने वाले महाकवि कालिदास जी कवि का राष्ट्रीय नहीं, बल्कि विश्वात्मक कवि के रूप में ही गौरव करना उचित है। उनके अत्युच्य श्रेणी के साहित्य का मूल्य मापन संख्यात्मक न करते हुए गुणात्मक तरीके से ही करना होगा। आइए, अब ‘मेघदूत’ के बारे में और अधिक जानने का प्रयास करें। मेघदूत में १२१ श्लोक (पूर्वार्ध यानि, पूर्वमेघ-६६ श्लोक तथा उत्तरार्ध यानि, उत्तरमेघ-५५ श्लोक) हैं। महाकवि की काव्य प्रतिभा का चमत्कार यह है कि, यह सकल खंड काव्य सिर्फ और सिर्फ एक ही वृत्त (छंद) मंदाक्रांता वृत्त में लिखा गया है। इस वृत्त के प्रणेता स्वयं कालिदास जी ही हैं। गेय काव्य को इस तरह छंदबद्ध करने की काव्य प्रतिभा केवल विश्वकवि की ही हो सकती है।
शापित यक्ष आकाश में विचरते मेघ को ही अपना सखा समझकर उसे रामगिरी से अलकापुरी का मार्ग बताता है। अपनी प्रियतमा का विरह से क्षतिग्रस्त शरीर आदि का वर्णन करने के बाद अपना संदेश प्रियतमा तक पहुँचाने की वह अत्यंत आवेग से विनती करता है। पाठकों, यक्ष है भूमि पर, परन्तु पूर्वमेघ में वह मेघ को प्रियतमा की नगरी तक जाने का मार्ग बताता है, जिसमें ९ प्रदेश, ६६ नगर, ८ पर्वत तथा १० नदियों का भौगोलिक होते हुए भी विहंगम वर्णन (एक पक्षी को आसमान से दिखे वैसा, अभियांत्रिकी शब्दों में बताना हो तो टॉप व्यू) किया गया है। विदर्भ के रामगिरी से इस मेघदूत का हिमालय की गोद में बसी हुई अलकानगरी तक का यह प्रदीर्घ प्रवास है, जिसमें प्रकृति का अप्रतिम वर्णन है। नर्मदा, वेत्रवती नदी, विदिशा नगरी, कदम्ब वृक्षों से आच्छादित पर्वत, उज्जैन, अवंती, क्षिप्रा नदी तथा महांकालेश्वर के दर्शन करवाते हुए इस मेघ का प्रवास गंभीरा नदी, हिमालय से उगम हुई जान्हवी (गंगा) नदी और मानस सरोवर तक होता है। अंत में मेघ कैलास के तल पर बसी अलकानगरी में पहुँचता है। इस वर्णन में मेघ की प्रियतमा विद्युलता से हमारी भेंट होती है। पूर्वमेघ में सम्पूर्ण मार्ग में सरिता तरंगिणी, पर्वत श्रृंखलाएं, वृक्ष लताएं, पशु-पक्षी, विविध स्वभाव की स्त्रियाँ, इनके वर्णन करते हुए यह यक्ष निर्जीव वस्तुओं को जीवन प्रदान कर इस प्रवास के पात्र बनाते हुए मेघ को प्रणय का पाठ भी पढ़ाता है।
उत्तर मेघ में यक्ष द्वारा अपनी प्रेयसी को दिया हुआ संदेश है। प्रियतमा विरह व्याधि के कारण प्राणत्याग न कर दे और धीरज रखे, ऐसा संदेश वह यक्ष मेघ द्वारा भेजता है। वह कहता है,-“अब शाप समाप्त होने में केवल ४ मास ही शेष हैं, मैं कार्तिक मास में आ ही रहा हूँ।” विरहिणी यक्षपत्नी और अपने अलकापुरी के गृह के चलचित्र के समान दर्शन करवाते हुए काव्य के अंतिम श्लोक में वह मेघ से कहता है,-“तुम्हारा किसी भी स्थिति में तुम्हारी प्रिय विद्युलता से कभी भी वियोग न हो।”
मित्रों, कहानी कुछ विशेष नहीं, हमारे जैसे अ-रसिक व्यक्ति पत्र लिखते समय डाक पता लिखते हैं। अंदर अच्छे-बुरे हाल-चाल की ४ पंक्तियाँ, बस, परन्तु पता एकदम सही, विस्तृत और अंदर का लिखा प्यारभरा हो तो, डाकघर वालों को भाएगा ही! फिर उस लेखक को डाक विभाग टिकट छपवाकर सम्मानित करेगा या नहीं! इस कलाकृति को दर्शाता डाकघर का सुन्दर टिकट कालिदास जी के पता लिखने के कौशल्य को किया साष्टांग प्रणिपात ही समझ लीजिए! इस वक्त अगर कालिदास जी होते तो वे ही निर्विवाद रूप से इस विभाग के ‘छवि दूत’ रहे होते!
कालिदास जी ने अपने अद्वितीय दूतकाव्य में दूत के रूप में अत्यंत विचारपूर्वक आषाढ़ के निर्जीव परन्तु वाष्पयुक्त धूम्रवर्ण के मेघ का चयन किया, क्योंकि यह जलयुक्त मेघसखा रामगिरी से अलकापुरी तक की दीर्घ यात्रा कर सकेगा, इसका उसे पूरा विश्वास है। शरद ऋतु में मेघ रिक्त होता है, इसके अलावा यक्ष ने सोचा होगा कि, आषाढ़ मास में सन्देश भेजने पर वह उसकी प्रियतमा तक शीघ्र पहुंचेगा!
जिस कालखंड में संभवतः पक्षियों का उपयोग संदेशवाहक के रूप में किया जाता था, वहाँ कालिदास जी का राग ‘मेघ मल्हार’ में रचा यह परिष्कृत काव्य असामान्य, अनुपमेय, अपरिचित और अनूठा प्रतीत होता है। आषाढ़ मास का प्रथम दिन और कृष्णवर्णी, श्यामलतनु, जलनिधि से परिपूर्ण ऐसा संदेशदूत मेघ, उसे पता बताना और सन्देश पहुँचाना, बस, इतनी ही ‘छोटी और मधुर कहानी’, परन्तु कालिदास जी के पारस स्पर्श से लाभान्वित यह आषाढ़मेघ अमर दूत हो गया।
रामगिरी से अलकानगरी, परन्तु बीच में ठहराव उज्जयिनी (मार्ग तनिक वक्र करते हुए, क्योंकि उज्जयिनी है कालिदास जी की अतिप्रिय रम्य नगरी!) में। इस तरह मेघ को कैसा प्रवास करना होगा, राह में कौन-से मील के पत्थर आएंगे, उसकी विरह से व्याकुल पत्नी (और मेघ की भौजाई हाँ, कोई भ्रम नहीं) दुःख में विहल होकर किस तरह अश्रुपात कर रही होगी ?, यह सब यक्ष मेघ को उत्कट और भावमधुर काव्य में बता रहा है। मेघदूत के बाद संस्कृत साहित्य में दूतकाव्यों की मानों बाढ़ ही आ गई (इसमें महत्वपूर्ण है नल-दमयंती आख्यान), परन्तु मेघदूत के शीर्ष स्थान की बराबरी कोई काव्य नहीं कर पाया।
प्रेमभावनाओं के इंद्रधनुषी आविष्कार का यह रूप पाठकों को यक्ष की विरह व्यथा में व्याकुल ही नहीं करता, बल्कि यह अलौकिक खण्ड काव्य ‘मेघदूत’ उन्हें मंत्रमुग्ध कर देता है। इसीलिए आषाढ मास के प्रथम दिन उसका एवं उसके रचयिता महाकवि कालिदास जी का स्मरण करना अपरिहार्य है।