डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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भक्ति, संस्कृति, और समृद्धि की प्रतीक ‘हिन्दी’ (हिन्दी दिवस विशेष)…
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।” -भारतेंदु हरिश्चंद्र
साहित्यिक अनुभूति एवं अभिव्यक्ति के लिए व्यक्तिगत व सांस्कृतिक सभ्यता की स्वतंत्रता आवश्यक होती है। मुग़ल सल्तनतों के आक्रमण का विरोध करने वाले राजा, भक्तिमार्ग का प्रसार करने वाले संत, विलासिता को उजागर करने वाले कवि एवं आधुनिक काल में स्वतंत्र भारत की प्रतिमा बने साहित्यिक इन सबमें हमें सामाजिक कुण्ठा, क्रांन्तिकारी विचारधारा और ईश्वर पर श्रद्धा-भक्ति जैसी भावनाओं के आंदोलन का अनुभव होता है।
हिन्दी भाषा के विकास का इतिहास लगभग १००० साल पुराना माना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को इसी ४ काल खंडों में बांटा था। कुछ विद्वानों ने इस पर संदेह भी व्यक्त किया था। मेरे विचार में इससे बेहतर विकल्प न मिलने की स्थिति में इस विभाजन को मान लिया जाना उचित है। यह धारणा अत्यंत समर्पक है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। हिंदी भाषा के समृद्ध साहित्य की सर्जनशील धारा भी इसी बदलते समाज की नीतिमत्ता, विचारधारा एवं सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। अगर हम इन कालखंडों की हिंदी साहित्य रचनाएं देखें तो उनमें सबसे अधिक भारतीय समाज के बदलते राजकीय समीकरणों का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। जनमानस की पारिवारिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों का गहरा प्रभाव लेखकों की रचनाओं पर पड़ा है। इसलिए उस विशिष्ट कालखंड के लेखकों की कलम भी उसी दिशा में अग्रसर हुई, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। साहित्यकारों के विषय के चयन से हम समाज के बदलते रुख का अनुमान लगा सकते हैं। देखें कि इन कालखंडों की मुख्य उपलब्धियाँ क्या थीं-
◾आदिकाल-इस काल को वीरगाथा काल भी कहते हैं। इस काल की प्रमुख रचनाएं पृथ्वीराज रासो और परमार रासो हैं। हमारे देश में मुग़लों का आक्रमण होने पर कुछ पराक्रमी राजाओं ने उनका डटकर सामना किया। इसके कारण तब की रचनाओं में वीर रस छलकता है।
◾भक्तिकाल-इस स्वर्णिम युग में समाज को भक्तिधारा में समाहित करने वाले प्रसिद्ध कवि सूरदास एवं तुलसीदास थे। संत सूरदास की मधुर मुरलिया जैसी ब्रज भाषा में लिखी नटखट कान्हा की बाल लीलाओं का वर्णन उनकी कृष्ण भक्ति को चरम सीमा तक ले गया। उन्हें अंध कहना उनको दिव्य दृष्टि का अपमान ही हुआ। महान संत तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ काव्य ग्रंथ को उत्तरभारत में मंदिर में रख कर पूजा जाने लगा। संत कबीर के दोहे उस काल में फैले दंभाचार पर तीखा व्यंग्य कसते रहे। मलिक मुहम्मद जायसी उनकी कालजयी रचना ‘पद्मावत’ के लिए जाने गए तो रसखान के सवैयों ने कृष्ण की बाल लीला एवं रास लीला का अद्भुत चित्र प्रस्तुत किया। भक्ति काल के इन कवियों ने समाज में ईश्वरभक्ति एवं सत्चरित्र के सुन्दर बीज बोए।यह साहित्य समाज में फैली अराजकता और मुग़लों के भारतीय संस्कृति पर किए आक्रमण पर अनोखा प्रहार था।
◾रीतिकाल-इस युग में श्रृंगार रस की प्रधानता थी। लगता है लोगों में प्रतिकार की भावना अब लगभग समाप्त हो गई थी, परतंत्र होने का दुःख भुलाने के लिए ऐसे काव्य क्षणिक सुख की अनुभूति देते थे। फ़ारसी और उर्दू काव्य का प्रणय रस इस काल में छलकता है। मुगल राजा और सरदारों के ऐश्वर्य और आलीशान जीवन-शैली का प्रभाव तब के हिंदी साहित्य में दिखता है। इसलिए उसमें रचे साहित्य को ‘दरबारी साहित्य’ भी कहा जाता है। इस काल के प्रमुख कवि केशव दास और बिहारी थे। इनमें भी अपवाद था कवि भूषण का। उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज एवं छत्रसाल राजा पर वीर रस से ओतप्रोत काव्य लिखे।
◾आधुनिक काल-इसे गद्य काल भी कहा गया है। देवनागरी में लिखी जाने वाली आधुनिक हिंदी भाषा के जनक थे भारतेंदु हरिश्चंद्र। वे १९ वीं सदी के उत्तरार्ध में नाटक, काव्य कृतियाँ, अनुवाद, निबन्ध संग्रह जैसी अलग-अलग विधाओं में हिंदी साहित्य लिखते थे। मात्र ३४ वर्ष के जीवनकाल में उन्होंने प्रचुर मात्रा में लेखन किया। जयशंकर प्रसाद की काव्य रचना ‘कामायनी’, मैथिलीशरण गुप्त की ‘पंचवटी’, माखनलाल चतुर्वेदी एवं सूर्य कांत त्रिपाठी ‘निराला’ की ओजपूर्ण देशभक्ति से प्रेरित रचनाएं तब के ब्रिटिश राज से जूझते भारतीयों के हृदय स्पंदनों को शब्दबद्ध कर रही थीं। छायावाद के प्रमुख कवि सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा एवं हालावाद के प्रणेता हरिवंशराय बच्चन की कविताओं ने हिंदी साहित्य को अनूठी पहचान दी। ग्रामीण भारत की आर्थिक विपन्नता, जातिभेद, पिछड़ापन, शिक्षा का अभाव आदि समस्याओं को अपनी सशक्त लेखनी द्वारा जीवंत करने वाले भावानुभूति के साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद के अमर उपन्यास ‘गोदान’ और अन्य रचनाओं ने हिंदी साहित्य के इतिहास को नया सर्जनशील रूप दिया। धर्मवीर भारती और मोहन राकेश ने आधुनिक समाज की दुविधा, शहरों के नागरिकों के समक्ष उठे प्रश्नचिन्ह, युवाओं में बढ़ी बेरोजगारी, सुशिक्षित स्त्रियों की परिस्थिति आदि पर विपुल लेखन किया।
महात्मा गांधी ने कहा था कि हिंदी जनमानस की भाषा है और उन्होंने इसे देश की राष्ट्रभाषा बनाने की सिफारिश भी की थी। देवनागरी लिपि वाली हिंदी को १४ सितंबर १९४९ को संविधान सभा ने राजभाषा के रूप में स्वीकार किया। हालांकि, पहला हिंदी दिवस १४ सितंबर १९५३ को मनाया गया। तब से इस दिन को हर वर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत सरकार ने अब तक मात्र ६ भाषाओं को ‘अभिजात भाषा’ का दर्जा दिया है। भारत के संविधान में ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं है। इसलिए हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने में कई व्यवधान हैं। सबसे बड़ा कारण यह है कि भाषा के साथ सांस्कृतिक, सामाजिक, क्षेत्रीय, राजनीतिक अस्मिता के मुद्दे जुड़े हैं, साथ ही हिंदी पर अंग्रेजियत की भारी हुकूमत चिंता का विषय है। अंग्रेजों से हमें आजादी तो मिली, पर भाषा से नहीं। अंग्रेजी माध्यम से उच्चता को जोड़ने से अभिभावक अपने बच्चों को हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में अध्ययन करवाने वाले विद्यालयों से कतराते हैं। आगे जाकर क्षेत्रीय भाषा में उचित पेशेवर शिक्षा अभी भी विकसन की प्रक्रिया में है। युवाओं में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अध्ययन करने की रूचि लगातार वृद्धिगत हो रही है। बच्चे अंग्रेजी लिपि को काफी आसानी से आत्मसात कर रहे हैं, जबकि देवनागरी में हिंदी या तत्सम भाषा को अपनाना उन्हें सुविधाजनक नहीं लगता।
हमें इस परिस्थिति में कुछ सवाल अपने-आपसे पूछने होंगे। हमने अपने घर में हिंदी-क्षेत्रीय भाषा का कितना पुरजोर समर्थन किया है ? हम रेडियो, टी.वी., समाचार-पत्र, पत्रिका, रोजमर्रा का संवाद और व्हाट्स ऐप सन्देश इन सबमें कौन-सी भाषा अपनाते हैं ? जवाब अपने-आप मिल जाएगा कि कोई भी भाषा आधिकारिक होते हुए भी समाज उसे कितना अधिकार प्रदान करता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि भाषा को सम्मानजनक स्थान देने के लिए संविधान से अधिक समाज का दृष्टिकोण अधिक महत्वपूर्ण है।
इसके अलावा भारत की भौगोलिक स्तर पर तेजी से बदलने वाली क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव हिंदी पर पड़ा है। ‘बॉलीवुड’ की बम्बइया हिंदी के अलग रूप-रंग हैं। मीडिया, टी.वी., फ़िल्में, आधुनिक नाटक, कविता आदि की और सरकारी तौर पर लिखी जाने वाली हिंदी का बेमैल जोड़ा आम आदमी को सम्भ्रम में डाल रहा है। इससे शैक्षणिक पाठ्यक्रम भी अछूता नहीं है। भाषा का अलग-अलग लहजा और उच्चारण तो संशोधन के विषय हैं। शायद इसी विविधता में हम एकता खोजने का प्रयत्न कर रहे हैं। मुझे तो बस एक ही धागे का बंधन सबसे आश्वस्त करता है कि हम सब भारतमाता की संतानें हैं और भारत भूमि की मिटटी ही हमारी एकता की पहचान है।