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महात्मा और गांधी

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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गाँधी जयंती (२ अक्टूबर) विशेष….

रात सपने में गांधी जी ने दर्शन दिए। सच पूछो तो मैंने पहचाना नहीं, न तो चश्मा.., न लाठी…, धोती भी फटी हुई, साथ में ३ बन्दर भी नहीं थे, चरखा भी नहीं, बताओ! भला कैसे पहचानता…। बस कमर झुकी हुई थी। मेरे पास आकर बैठ गए। मुँह से अंतिम बार बोले गए शब्द ‘हे राम’… ही निकल रहे थे। बस इन शब्दों से मैंने अनुमान लगाया कि गांधी जी ही हैं। बड़े दुखी नजर आ रहे थे। कह रहे थे,-“इन देशवासियों से मुझे ये आशा नहीं थी, मुझे महात्मा बना दिया, मुझे राष्ट्रपिता बना दिया, एक आले में बिठाकर बस पूजा जा रहा है। मेरे आदर्शों की खिल्ली उडायी जा रही है।”
मैं निरुत्तर था, क्या कहता! मैंने भी तो गाँधी जी के बारे में थोड़ा- बहुत जाना है। शाला की किताबों के कुछ पन्नों से, भारतीय मुद्रा में और चौराहों पर लगी मूर्तियों से ही अनुमान लगाया था कि ‘हाँ, हुआ है हाड़-मांस का पुतला कभी, जिसे हम पूजते हैं। हमारे राष्ट्रपिता हैं और शालाओं में ‘वैष्णव जन…’ गाते हैं, लेकिन सपनों में बुद्धि कुछ अतिरिक्त काम कर जाती है। न जाने कहाँ से कुछ विचार उफने और गांधी जी को प्रभावित करने के लिए उनके सामने झाड़ने लगा।
मैंने कहा-“महत्मना, आपको तनिक भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है। गांधीवाद हमेशा से वाद या विवाद दोनों रूप से राजनीति की फसल में खाद का काम कर रहा है। सच पूछा जाए तो आज भी लोकतंत्र की घिसटती गाड़ी में गांधीवाद ही ग्रीसिंग का काम कर रहा है, लेकिन मेरे देशवासियों ने आपके व्यक्तित्व में से महात्मा अलग और गांधी अलग कर दिया। मेरा मतलब लोकतंत्र के ४ स्तंभों को बदलकर इसे दोपाए पर खड़ा कर दिया गया है। एक पाया है महात्माओं का और दूसरा गांधी का। आप, जिसने इस देश को एक दिशा दी, उसे तो हमने कब का मार दिया है। हम कितना ही चिल्ला लें कि गांधी कभी मरे नहीं, उनके सिद्धांत अमर हैं, लेकिन सिद्धांत सिर्फ किताबों के पन्नों में धूल खा रहे हैं। आपको मरना जरूरी था, अगर आप ज़िंदा रहते तो फिर गांधीगिरी कैसे पनपती! लाखों छद्म भेषधारी गांधी कहाँ से पैदा होते! यहाँ आपमें से महात्मा और गांधी अलग तो किए हैं, लेकिन जुड़वाँ भाई की तरह अब भी इनका चोली-दामन का साथ है। जैसे पुलिस और अत्याचार, महंगाई और गरीबी, शिक्षा और बेरोजगार का। एक ओर जहां महात्मा के नाम पर बाबागिरी का धंधा चल निकला है, वहीं गांधी के नाम पर गांधीगिरी का बाजार सजा है। ये दोनों ही गिरी समाज में अपनी जगह बनाए बैठे हैं। महात्मा जो पहले सिर्फ धार्मिक क्षेत्र में ही थे, लेकिन धीरे-धीरे राजनीतिक क्षेत्र में पैर पसारने लगे। महात्माओं की चाँदी कटने लगी, उनके आश्रम राजनीतिक अड्डे बन गए। बड़े-बड़े बाहुबली, रसूखदार, सरकारी नुमाइंदे ,पुलिस बल महात्माओं की चरण पादुकाओं में पल्लवित होने लगे। एक कुटीर उद्योग पनप गया जी आपकी गांधीगिरी का.., एकदम ‘मेक इन इंडिया’ के तहत…, खालिस भारतीय…। खूब फल-फूल रहा है…। हर किसी को अलग-अलग तरह का गांधीवाद नज़र आ रहा है। सब अपने रंग में गांधीवाद को ढाल रहे हैं। संस्थाएं इसी उद्योग से चंदा जुटा रही हैं तो नेता मत और समर्थन जुटा रहे हैं, तथा जनता ताली बजा रही है…।. ‘महात्मा गांधी की जय’। ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ की धुन ‘चिकनी चमेली’ की धुन के साथ मिल गई है। गांधीगिरी बहुत आसान हो गई है। कईयों ने अपने नाम के आगे ‘गांधी’ लगवाकर गांधीगिरी करने का दावा किया है। नेतागिरी और गांधीगिरी एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए हैं।
गाँधी जी कहिन “मुझे २ टुकड़ों में बाँट दिया, कोई नहीं…२ क्या हजार टुकड़ों में बांटों ..। मुझ पर तो तोहमत भी लगाई जा रही है कि मैंने देश को २ टुकड़ों में बांटा! मेरी पहचान छीन ली…, मेरा चश्मा…, मेरा चरखा… सब! बताओ कहाँ तक सहन करूँ मैं..? खून के आँसू रुला रहे हैं मेरे ही लोग।”
मैंने कहा “आप ज़िंदा हैं.., हमारे मन वचन कर्मों में…, लेकिन अपनी तरह से…। आपका चश्मा लूट कर उसे स्वच्छ भारत अभियान में चिपका दिया। सबने आपके चश्मे की नकल से नकली चश्मे बनवा लिए। अपने-अपने चश्मे को आपका चश्मा बता रहे हैं। आपका चरखा संग्रहालय में रख दिया। वहाँ कुछ भूले-भटके नौजवान सेल्फी खींच कर सोशल मीडिया पर ‘हविंग कूल टाइम विद कूल डैड गांधी’ज’ चरखा” शीर्षक के साथ डाल रहे हैं। बाजार में नकली चरखों पर सूत की जगह नफरत और स्वार्थ का ताना-बाना काता जा रहा है। आपकी मूर्ति चौराहे पर लगा कर साल में २ बार उन पर फूलमाला आदि चढ़ाकर आपको याद कर लेते हैं बस…। देखो हमने तो इससे बढ़कर भी किया है आपके लिए। आप तो टोपी नहीं पहनते थे न…, लेकिन हमने गांधी टोपी बना ली। उसे पहन कर गांधीवादी का लबादा ओढ़ लिया है। आपकी ढेर सारी तस्वीरें कार्यालयों में लगा दी है। आपकी तस्वीर के बगैर कार्यालय लय सरकारी लगता ही नहीं…, रिश्वत का अड्डा लगता है। आपके नाम पर खूब चाँदी कट रही है। खूब खेला चल रहा है और फिर आप हमारा असली खेला तो समझ ही गए होंगे, जब हमने आपको भारतीय मुद्रा में चिपका दिया। तस्वीर में पड़े-पड़े आप धूल-मिट्टी खा सकते हो, लेकिन जबसे भारतीय मुद्रा में छपे हो, कसम से कोई गंदी नाली में भी गिरा पड़ा हो तो उसे भी साफ़ करके जेब में रख ले। सोचो आप…, कितना महान योगदान आपने दिया है देश को, नोट में छपकर लोकतंत्र को अर्थ दिया है… सच्चा अर्थ।”
गांधी जी मेरी बात से सहमत हो रहे थे, ये तो मुझे नहीं लगा, लेकिन मैं तो बस अपनी बुद्धिमता का दौरा जो सिर्फ सपने में ही पड़ता है, उसे पूरी तरह होने देना चाह रह था!
गांधी जी भी तर्क के मूड में थे। बोले “फिर मेरे ३ बंदरों का क्या हुआ ?”
“हाँ हाँ, आपके ३ बन्दर-‘बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो।’ आज भी इन्हें बड़े जतन से पाला-पोसा जा रहा है। तीनों बंदरों की बन्दर बाँट हो गयी है बस।राजनेताओं ने ‘बुरा मत देखो वाला ‘बन्दर पाल लिया, अब राजनेताओं को कहीं-कोई बुराई नजर नहीं आती। सब जगह अच्छे दिन नजर आते हैं। गरीबी बेरोजगारी, महंगाई, अत्याचार, लूटपाट, बलात्कार जैसी बुराइयाँ छूमंतर हो गयी…। ‘बुरा मत सुनो’ वाला बन्दर, पुलिस, कोर्ट-कचहरी वालों ने पाला हुआ है। अब इन्हें कोई अन्याय, हिंसा जैसी बुरी बात सुनाई नहीं देती। लोगों की शिकायतें बुरी होती है, ऐसी बुरी बातें भला अब ये क्यों सुनेंगे ? रहा आपका तीसरा बन्दर ‘बुरा मत कहो’ तो चापलूसों, चाटुकारों ने पाला हुआ है। सब कुछ कह सकते हैं, बुरा नहीं कह सकते। देश की अच्छी तस्वीर बताई जाएगी, बुराई पर पर्दा डाला जाएगा।
“मेरी लाठी भी तो ले गए, मेरा एकमात्र सहारा था, उसे भी छीन लिया।” गांधी जी ने अपने खाली हाथ फैलाए।
“अरे वो भी तो अब असल रूप में काम आ रही है। हर जगह लाठी का ही प्रयोग हो रहा है। आपकी लाठी कभी आप अकेले का सहारा थी, अब पूरे लोकतंत्र का सहारा बन गई। लोकतंत्र, लाठी तंत्र बन गया है। जिसकी लाठी, उसी के हाथ में लोकतंत्र की भैंस पल रही है। आपकी एक ही लाठी से सभी को हांकने का प्रयास हो रहा है। कानून के हाथ में लाठी आ गई तो लोकतंत्र की ढोलक को खूब पीटा जा रहा है।”

गांधी जी की सिसकियाँ रुदन में बदल चुकी थी। मैं स्वार्थी था, अपनी बुद्धिमता के दौरे से गांधी जी को तर्कहीन संवादों से सांत्वना देने की कोशिश कर रहा था। मेरी आँखों के सामने ही गांधी जी की छवि धीरे-धीरे धूमिल-सी होने लगी, गायब! एक नीरव-सा सन्नाटा जैसे मेरे चारों ओर पसर गया! मेरे तर्कहीन संवाद जैसे मेरे ही कानों में पिघले शीशे की तरह डाले जा रहे हों।