राधा गोयल
नई दिल्ली
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जहाँ तक मेरी कल्पना का सवाल है, मैं तो बहुत बड़े-बड़े सपने देखती हूँ, लेकिन जानती हूँ कि इस जन्म में वे पूरे नहीं हो सकते, पर सपने देखना छोड़ भी नहीं सकती। मैं सपनों में देखती हूँ ऐसे विद्यालय… जहाँ प्राथमिक कक्षा से ही हिंदी अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ाई जाए, जिससे बच्चे अपने देश की भाषा सीखें और हिंदी एक दिन राष्ट्रभाषा बने और फिर अंतर्राष्ट्रीय भाषा बने।
मैं चाहती हूँ कि बच्चों को प्राथमिक कक्षा से ही मातृभाषा भी अवश्य पढ़ाई जाए। छठी कक्षा से हिंदी अनिवार्य हो और बाकी २ भाषाएँ वैकल्पिक रखी जाएँ। नैतिक शिक्षा पर बल दिया जाए। बच्चों में कॉमिक पढ़ने के प्रति रुचि जागृत की जाए और पुस्तकालय में ऐसी पुस्तकें हों जिन्हें पढ़कर बच्चे प्रेरित हों एवं समाज को नई दिशा दे सकें। इसमें शिक्षक वर्ग की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वह बच्चों को अपने देश की सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना सिखाएँ। आज पश्चिम की ऐसी आँधी चली है और नई पीढ़ी इसमें इस कदर बह गई है कि देखकर अफसोस होता है। यह अपनी सभ्यता भूल गए हैं और पश्चिमी सभ्यता पर गर्व करते हैं। छोटे-छोटे बच्चों को गिनती और पहाड़े तक अपनी भाषा में नहीं मालूम। सब्जियों, फलों और पशु पक्षियों के नाम हिंदी में नहीं… अंग्रेजी में जानते हैं। ३ साल के बच्चे को भी यह सब कुछ अंग्रेजी में तो मालूम है, लेकिन हिंदी में या अपनी मातृभाषा में नहीं है। इसमें पूरी तरह से माता-पिता का दोष है, किन्तु पूरी तरह से माता-पिता का भी दोष नहीं है। आजकल इतनी अधिक स्पर्धा हो गई है कि नर्सरी में दाखिला करवाने के लिए भी २०-२० शालाओं के फार्म भरने पड़ते हैं। वहाँ बच्चों का साक्षात्कार अंग्रेजी में लिया जाता है, इसलिए माता-पिता की भी यह मजबूरी हो गई है कि वे १ साल के बच्चे को भी गिनती, पशु-पक्षियों, फल- सब्जी वगैरह के नाम इंग्लिश में ही बताना शुरू कर देते हैं। मैं चाहती हूँ कि यह सब कुछ बदलना चाहिए। अपने स्तर पर अपने परिवार में… अपनी रिश्तेदारी में… अपने इस संदेश को देने की कोशिश भी करती हूँ। उसी का परिणाम है कि मेरे पोते ने भी छटी कक्षा में फ्रैंच की बजाय संस्कृत विषय चुना था और अब मेरी पोती ने भी छठी में संस्कृत विषय लिया है, किन्तु पोती की किताब देखकर मुझे बहुत निराशा हुई। रूप और धातु समझाने का तरीका संस्कृत में था, जिसे बच्चे सीख ही नहीं सकते। जब तक किसी विषय की रुचिकर प्रस्तुति नहीं होगी, बच्चे की भी उस विषय को पढ़ने में कोई रुचि नहीं होगी।
फिर भी मैं हार मानने वालों में से नहीं हूँ। मुझे मालूम है कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।