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संसार ही स्वर्ग बन जाता

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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काश! सासें, बहुओं को बेटी ही मानती,
बहुएं, सासों को मानने लग जाएं माता
क्या जरूरत थी तब भिस्त की चाह की ?
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।

बाप-बेटे,भाइयों को पत्नियाँ न लड़ाए,
दोस्त-सा व्यवहार करने लगे हर भ्राता
घर की बहुएं-बेटियाँ बहनों-सी रहें सब,
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।

बहुओं को न सताएं हम और बेटे हमारे,
बेटियों को न सताए ससुराल- जामाता
हर रिश्ते में प्यार ही प्यार फैल जाए तो,
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।

काश! पड़ोसी से कोई पड़ोसी न लड़ता,
ईर्ष्या, राग, द्वेष का भाव खत्म हो जाता
मोह, ममता, नफरत की दीवारें गिर जाती,
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।

रहते न रोग-शोक, दम्भ, आधी और व्याधि,
न रहता झगड़े का हेतु जोरू, जमीं और बुढ़ापा
सबके घरों में रहती बराबर-सी सुविधाएं तो,
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।

सर्पणी-सा न लीलती निज जाए को जननी,
पिता पर नारी के झांसे में सुत को न भुलाता
बहू-बेटे न ठुकराते अपने ही माँ- बाप को तो,
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।

रंग भेद, जाति-धर्म के सब झगड़े ही मिट जाते,
आता न अजीवन किसी को इस जग में बुढ़ापा।
दया, करुणा, सहजता, सरलता सबमें फैल जाती,
तो फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता॥