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अब तो न्याय मंदिर से बड़ी अपेक्षा

अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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अतुल सुभाष कांड:गंभीर प्रश्न….

बैंगलोर निवासी अतुल सुभाष (कृत्रिम मेधा-अभियंता) का दुखद अंत एक बार फिर हमारे समाज के सामने कई गंभीर प्रश्न खड़े कर रहा है। इस आत्महत्या से विडंबना के साथ यह बड़ा प्रश्न सामने खड़ा हुआ है कि क्या हमारी कानूनी प्रणाली में खामियाँ हैं ?, क्या महिलाओं के खिलाफ अपराधों को रोकने के नाम पर पुरुषों के अधिकारों को नजरअंदाज किया जा रहा है ? सबसे महत्वपूर्ण बात कि क्या सरकार दहेज जैसे कानूनों का दुरुपयोग रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठा रही है ?

इस बड़ी घटना के बाद यह चिंतन करना बहुत आवश्यक हो गया है कि आखिर टूटते रिश्तों को नि:स्वार्थ हो बचाने की बजाए उससे पैसा हड़पना, पति को प्रताड़ित करना और पुलिस के नाम से डराना कौन से नजरिए से सही है। मरने से पहले २४ पन्नों का पत्र लिखना और ९० मिनिट की आप-बीती का वीडियो बनाकर जाना यह साबित करता है कि उस व्यक्ति (अतुल) को कितनी मानसिक यातनाएं दी गई कि न चाहकर भी ऐसा अ-कानूनी कदम उठाना पड़ा। वरना जीवन से किसे प्रेम नहीं है।
सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि महिलाओं को ‘सुधारने’ की बात करना पूरी तरह से गलत है। हर व्यक्ति के सम्मान और समानता के अधिकार की भाँति महिला भी समाज का अहम हिस्सा है। इसलिए महिलाओं को सशक्त बनाने और उनके अधिकारों की रक्षा करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए इन्हें किसी भी तरह से कम मानना अनुचित होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो दहेज विरोधी कानून का आज जमकर दुरुपयोग हो रहा है। दहेज प्रथा के सामाजिक रावण बनाम अत्याचार को खत्म करने के लिए कड़े कानून बनाए गए, लेकिन इन कानूनों का दुरुपयोग अधिक हो रहा है। इसी का नतीजा है-अतुल सुभाष की आत्महत्या। कई बार महिलाएँ दहेज के झूठे मामले दर्ज करवा देती हैं, जिससे निर्दोष पुरुषों का जीवन तबाह हो जाता है। अतुल सुभाष का मामला भी ऐसा ही फिर एक ताजा उदाहरण है। कोई भले ही इस मामले में पत्नी निकिता सिंघानिया का कितना भी पक्ष ले, पर अदालत में अतुल सुभाष द्वारा फर्जी मुकदमे के कारण आत्महत्या की बात कहने पर महिला न्यायाधीश के सामने ही पत्नी द्वारा यह कहना “तुम भी क्यों नहीं कर लेते ?” से पता लगता है कि यदि तब ही न्याय के आलय से न्याय कर दिया जाता और महिला न्यायाधीश इस समस्या का आसानी से हल कर देतीं एवं पत्नी के दिमाग को पढ़ लेतीं तो शायद अतुल सुभाष ऐसा कदम नहीं उठाते।
पहले दहेज़ के लालची लोग बहू की जान लेते थे, पर आज स्थिति उलट हो गई है। एक आदमी की जान इसी कानून के गलत उपयोग से चली गई। इसके लिए अब आवश्यक है कि दहेज कानूनों में संशोधन किए जाएँ, ताकि उनका दुरुपयोग रोका जा सके, साथ ही ऐसी घटना में पत्नी पर सख्त कार्रवाई भी की जानी चाहिए, ताकि कानून और न्याय का सम्मान बना रहे। इसके अलावा पुलिस और अन्य जाँच एजेंसियों को मजबूत बनाने, झूठे मामलों को पहचानने तथा दोषियों को दंडित करने की भी सख्त जरूरत है। दहेज प्रथा के दुष्परिणामों के बारे में सबको जागरूक करने के साथ ही विवाह संबंधी विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की प्रक्रिया को अधिक बढ़ावा दिया जाना चाहिए। ऐसे सभी मामलों में जाँचकर्ताओं को सिर्फ पुरुष को दोषी मानने की अपेक्षा स्त्रियों की स्थिति और सबूतों को भी देखना होगा, क्योंकि अनेक बार देखा हुआ भी सच नहीं होता है।
अतुल सुभाष का मामला हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हमारी न्याय प्रणाली में इस कानून के ५४ साल बाद भी कमी है। ऐसे में ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है, जहाँ हर व्यक्ति को न्याय मिले और बेगुनाह को सजा नहीं भुगतना पड़े।
अगर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करनी है तो पुरुषों के अधिकारों को भी देखना होगा।
अतुल सुभाष मामले के बाद आलोक मित्तल सहित कुछ अन्य पीड़ित भी सामने आए हैं, जिनकी दास्तान सुनकर पता लगता है कि जिन कानूनों का उद्देश्य महिलाओं को शोषण से बचाना और उनके अधिकारों की रक्षा करना था, वही हाल के वर्षों में पारिवारिक युद्ध में दुरुपयोग का हथियार बना लिए गए हैं। अतुल सुभाष मामला इस बहस को जन्म दे गया है कि कानूनी प्रणाली में महिलाओं और पुरुषों दोनों के अधिकारों का संतुलन बनाए रखा जाना चाहिए, क्योंकि वर्तमान में अधिकांश महिलाएँ ऐसे आरोप केवल आर्थिक लाभ और प्रतिशोध के उद्देश्य से लगा रही हैं। महिलाएँ इन कानूनों का उपयोग व्यक्तिगत फायदे के लिए कर रही हैं, जिससे निर्दोष पुरुष और उनके परिवार कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग का शिकार हो रहे हैं। यह समस्या बस पुरुषों के लिए ही नहीं है,बल्कि उन वास्तविक पीड़ित महिलाओं के लिए भी हानिकारक है, जो वास्तव में पीड़ित होकर इन कानूनों के माध्यम से इंसाफ चाहती हैं।
इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए प्रक्रिया के दुरुपयोग की दिशा में समाधान और सुधार के लिए झूठे मामलों पर सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए, और इनका सामाजिक बहिष्कार भी, ताकि इनको सबक मिले। पुरुषों के लिए भी ऐसे कानून बनाए जाने चाहिए, जो उन्हें झूठे आरोपों से बचाएं। इतना ही नहीं, पुलिस एवं न्यायपालिका को पुरुषों के अधिकारों का भी ध्यान रखना चाहिए।
निष्कर्षत:, अतुल सुभाष जैसे मामले दर्शाते हैं कि वर्तमान में आवश्यकता है कि ऐसा संतुलन बनाया जाए, जिससे न तो महिलाओं को शोषण का सामना करना पड़े और न ही पुरुष झूठे आरोपों के शिकार हों। न्याय मंदिर से अपेक्षा है कि ऐसे कदम उठाएं, जो समान न्यायपूर्ण व्यवस्था को सुनिश्चित करें, ताकि भविष्य में फिर किसी अतुल सुभाष को अपनी जान नहीं देना पड़े।

अंततः यह याद रखना जरूरी है कि नारी जगत की धुरी है तो नर को भी सम्मान और समानता का पूरा अधिकार है।