दिल्ली
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श्रद्धांजलि…
दुनियाभर में शास्त्रीय संगीत में भारत को अलग पहचान दिलाने वाले उस्ताद मशहूर तबला वादक जाकिर हुसैन अब हमारे बीच नहीं रहे। ७३ साल की उम्र में जाकिर हुसैन ने अमेरिका में आखिरी साँस ली। उनके निधन से भारतीय संगीत की लय थम गई, सुर मौन हो गए, भाव शून्य हो गए। मौसिकी की दुनिया में हुसैन के तबले की थाप एक अलहदा पहचान रखती है, वे दुनियाभर के अनगिनत संगीत प्रेमियों द्वारा संजोई गई एक असाधारण विरासत छोड़ गए हैं, जिसका प्रभाव आने वाली पीढ़ियों तक बना रहेगा। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत एवं तबला वादन का दुनिया में विशिष्ट स्थान है, क्योंकि यह सत्यं, शिवं और सौन्दर्य की युगपत् उपासना की सिद्ध एवं चमत्कारी अभिव्यक्ति है। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत में क्रांति का शंखनाद किया।
जाकिर हुसैन का जन्म ९ मार्च (१९५१) को हुआ और १२ साल की उम्र से ही संगीत की दुनिया में अपने तबले की आवाज को बिखेरना शुरू कर दिया था। पहला एलबम ‘लिविंग इन द मैटेरियल वर्ल्ड’ आया था। उसके बाद तो जैसे जाकिर हुसैन ने ठान लिया कि अपने तबले की आवाज को दुनिया भर में बिखेरेंगे। १९७९ से अब तक जाकिर हुसैन विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समारोहों में अपने तबले का दम दिखाते रहे। जाकिर हुसैन भारत में तो बहुत ही प्रसिद्ध थे, साथ ही विश्व के विभिन्न हिस्सों में भी समान रूप से लोकप्रिय थे। वे पारम्परिक कौशल, रचनात्मकता एवं संवेदनशीलता से युक्त तबला वादन में कल्पनाशील विस्तार, गहन अलौकिकता और अचूक कलात्मक संयम एवं वैभव के लिए विख्यात थे। ईश्वर को आलोकपुंज मानते हुए उससे एकाकार होकर अपनी कला को प्रस्तुति देते हुए हुसैन ऐसा प्रतीत कराते थे, मानो उनका ईश्वर से सीधा साक्षात्कार हो रहा है। यही कारण है कि उनके तबले वादन एवं संगीत साधना से रू-ब-रू होने वाले असंख्य लोग उनकी साधना में गौता लगाते हुए मंत्रमुग्ध हो जाते थे। उनके निधन से तबला वादन संसार की एक पाठशाला आज वीरान हो गई।
उन्हें जब पद्मश्री पुरस्कार मिला था, तब वह महज ३७ वर्ष के थे।इस उम्र में यह पुरस्कार पाने वाले सबसे कम उम्र के व्यक्ति भी थे। इसी उन्हें पद्म भूषण और पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया।
उस्ताद जाकिर हुसैन तबले को हमेशा आम लोगों से जोड़ने की कोशिश करते थे। यही वजह थी कि शास्त्रीय विधा में प्रस्तुतियों के दौरान बीच-बीच में वे अपने तबले से कभी डमरू, कभी शंख तो कभी बारिश की बूँदों जैसी अलग-अलग तरह की ध्वनियाँ निकालकर सुनाते थे। जाकिर हुसैन की शख्सियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने महज ११ साल की उम्र में अमेरिका में पहला कार्यक्रम किया। यानी तकरीबन ६२ साल तक उनका और तबले का साथ नहीं छूटा।
उन्हें उनकी पीढ़ी के सबसे महान तबला वादकों में माना जाता है। उन्होंने न सिर्फ अपने पिता उस्ताद अल्ला रक्खा खां की पंजाब घराने (पंजाब बाज) की विरासत को आगे बढ़ाया, बल्कि तबले के शास्त्रीय वादन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ले गए। उस्ताद को संगीत की दुनिया का सबसे बड़ा ग्रैमी पुरस्कार १९९२ में मिला। इसके बाद ३ अलग-अलग संगीत एलबम के लिए एकसाथ ३ ग्रैमी मिले।जाकिर हुसैन ने कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया।
उनके भारतीय शास्त्रीय संगीत की साधना एवं तबला वादन का उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति, प्रशंसा या किसी को प्रभावित करना नहीं, अपितु स्वान्तः सुखाय, पर-कल्याण एवं ईश्वर भक्ति की भावना है। इसी कारण उनका शास्त्रीय संगीत एवं तबला वादन स्वरों की साधना सीमा को लांघकर असीम की ओर गति करता हुआ दृष्टिगोचर होता है।भगवान शिव की जीवंतता को साकार करने वाला यह महान् कलाकार सदियों तक अपनी शास्त्रीय-संगीत साधना एवं तबला वादन के बल पर हिन्दुस्तान की जनता पर अपनी अमिट छाप कायम रखेगा, क्योंकि ताजमहल चाय के ‘वाह ताज’ विज्ञापन ने उन्हें हर घर में पहचान दिलाई।
जाकिर हुसैन वह एक दिव्य एवं विलक्षण चेतना थी, जो स्वयं संगीत एवं तबला वादन में जागृत रहती और असंख्य श्रोताओं के भीतर ज्योति जलाने का प्रयास करती।
भले ही मृत्यु उन्हें छिपा ले और महत्तर मौन उन्हें घेर ले, फिर भी उनके स्वर, तबला वादन एवं संगीत का नाद इस धरती को सुकोमलता का अहसास कराता रहेगा।