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हम हिंदी वाले खुश होना भी भूल गए ?

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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लगता है हम हिंदी वाले खुश होना भी भूल गए हैं। हिंदी कथाकार, उपन्यासकार गीतांजलि श्री के मूल हिंदी ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी में अनुदित उपन्यास ‘टूम ऑफ सेंड’ को मिले प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार की सुखद बयार भी आपसी तू- तू मैं-मैं, खेमाई चश्मों और मेरे-तेरे के दुराग्रहों के बीच खोती लग रही है। गीतांजलि की कृतित्व के बजाए बहस उस तकनीकि बिंदु की ओर मोड़ने की कोशिश जारी है कि पुरस्कार मूल कृति को मिला या अनुवाद को ? यानी पुरस्कृत अनुवाद का क्या जश्न मनाना ? यह सोच मूल रचना तो छोड़िए, अनुवाद की महत्ता को लेकर हमारी कमतर सोच को प्रकट करती है। कुछ लेखकों, साहित्य मनीषियों ने इस पर खुशी जाहिर की और इसे ‘हिंदी में नई सुबह’ तक कहा, लेकिन कुल मिलाकर इस अंतरराष्ट्रीय कामयाबी पर हिंदी जगत का रूख उपेक्षा और उपहास भरा ज्यादा दिखा। सबसे ज्यादा निराशाजनक रवैया उन राजनेताओं का रहा, जो हिंदी की बदौलत ही अपने काम और राजनीति का डंका बजवा रहे हैं। बुकर विजेता गीतांजलि के लिए बधाई का एक पंक्ति का ट्वीट तक नहीं। सत्ता पक्ष और विपक्ष लगभग एक ही तराजू में। इसे राजनेताओं की साहित्यिक निरक्षरता मानें या हिंदी की किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठापना को भी दुर्लक्षित करने की सोच ? वरिष्ठ कथाकार प्रभात रंजन ने नेताओं की हिंदी के प्रति इस (सोची-समझी ?) बेरूखी पर गंभीर सवाल उठाया है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने जरूर गीतांजलि श्री को इस उपलब्धि के लिए बधाई दी,पर उसके पीछे असल वजह साहित्यिक उपलब्धि से गीतांजलि का उप्र के उस मैनपुरी से होना है, जो सपा का गढ़ माना जाता है। नेताओं की इसी वृत्ति में यह प्रश्न भी छटपटा रहा है कि क्या हिंदी केवल मतदाताओं की भाषा है ? महज मत कबाड़ने के लिए जरूरी भाषा है ? उसकी साहित्यिक बुलंदियों से किसी को कोई लेना-देना नहीं है ? या फिर किसी पुरस्कार के लिए आपके साहित्य में कहीं न कहीं ‘राष्ट्र’ अथवा ‘जन’ शब्द आना जरूरी है ? यह निहायत स्वार्थी और अज्ञानी सोच है। दुर्भाग्य से हिंदी जगत इसी मानसिकता का शिकार है अथवा उस दिशा में धकेल दिया गया है। ज्यादातर लोग अपनी चिरकुट रचनात्मकता को ही महान मानकर आत्ममुग्ध है, जबकि सा‍हित्य की श्रेष्ठता के अंतरराष्ट्रीय मानदंड बहुत कड़े और बड़े हैं।
इसे क्रेंकस्टार्ट चैरिटेबल फाउंडेशन प्रायोजित करता है। इसे इंटरनेशनल बुकर प्राइज के नाम से जाना जाता है। यह पुरस्कार अंग्रेजी में लिखी गई श्रेष्ठ कृति अथवा किसी विदेशी भाषा के अंग्रेजी में किए गए अनुवाद के लिए दिया जाता है। यह पुरस्कार लेखक की निरंतर सृजनात्मकता, विकास तथा वैश्विक मंच पर उपन्यास के क्षेत्र में समग्र योगदान के लिए दिया जाता है, लेकिन यहां भी सम्बन्धित कृति का यूके अथवा आयरलैंड से प्रकाशित होना जरूरी है। ये सभी पुरस्कार बुकर प्राइज फाउंडेशन देता है। गीतांजलि श्री के मूल हिंदी उपन्यास के अंग्रेजी अनुवाद को इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार श्रेणी में पुरस्कार मिला है। पुरस्कार में मूल लेखक और अनुवादक दोनों का समान महत्व रखा गया है। इस पुरस्कार का मूल उद्देश्य यही है कि मूल भाषा के साथ उसके अनुवाद की महत्ता को भी लोग समझें। इस सूची में पहली बार ‘हिंदी’ का नाम जुड़ा है, जो हर हिंदीभाषी के लिए गौरव की बात होनी चाहिए, लेकिन जिस दिन पुरस्कार घोषित हुआ, उसी के साथ उसकी छिछालेदारी भी हिंदी जगत में शुरू हो गई। कुछ प्रतिक्रियाओं में उपहास, बौखलाहट, विद्वेष या उलाहना भी दिखा। मानो बुकर पुरस्कार देने वालों ने कोई महान गलती कर दी हो।
गीतांजलि श्री को यह पुरस्कार मिलने के बाद कुछ लोगों ने उनकी कृतित्व से ज्यादा बीबीसी पर दिए गए साक्षात्कार पर निशाना साधा। कहा गया कि जिसकी बोलचाल की हिंदी ही शुद्ध न हो, वो क्या खाक उपन्यास लिखेंगी। कुछ लोग यह तलाशते रहे कि गीतांजलि श्री किस खेमे से हैं, ‘अपने’ या ‘उनके’। किसी भी खेमे में नहीं हैं तो उनके बारे में क्या बात करना ? कुछ उन्हें ‘दक्षिण भारतीय’ भी समझ रहे थे, क्योंकि किसी हिंदी लेखक का नाम अंतराष्ट्रीय मंच पर चमके यह कैसे हो सकता है और ‘गलती’ से हो ही गया है तो इसके पीछे ‘जुगाड़’ क्या है ? यह सिद्ध करने की कोशिश भी की गई कि दरअसल पुरस्कार तो अंग्रेजी अनुवाद को मिला है, ‍हिंदी मूल को नहीं। कुछ इस गफलत में रहे कि माजरा है क्या ? इससे कोई भी गैर हिंदीभाषी आसानी से यह अंदाज लगा सकता है कि हिंदी भाषियों में किसी अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार को पचाने का तमीज भी नहीं है। अव्वल तो उन्हें ऐसा कोई पुरस्कार पाने लायक ही नहीं समझा जाता, समझ लिया गया तो वो खुद अपने को इस लायक नहीं समझते, जबकि बुकर जैसा पुरस्कार साहित्य में उत्कृष्टता के लिए दिया जाता है। अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार संयुक्त रूप से पाने वाली गीतांजलि श्री पहली भारतीय महिला है। इसके पहले जिन भारतीयों को यह पुरस्कार मिला, वो सलमान रूश्दी, अरूंधती राॅय और किरण देसाई हैं, लेकिन ये पुरस्कार उनकी अंग्रेजी में लिखित कृति के लिए दिया गया था।
गीतांजलि श्री के लेखन, उत्कृष्टता, वैचारिक प्रतिबद्धता, शिल्प और भाव पर बहस हो सकती है, लेकिन पुरस्कार के औचित्य पर ही सवाल उठाना खुद को कमतर स्वीकार करने जैसा है। क्या हिंदीभाषियों में आत्महीनता का भाव अंगद बनकर बैठ गया है? बहुत थोड़े सुधीजन दिखे, जिन्होंने गीतांजलि श्री के लेखन को सराहा, उसमें नयापन खोजा और उसे पुरस्कार के सर्वथा योग्य माना। वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने कहा था, ‘गीतांजलि ने यथार्थ की आम धारणाओं को ध्वस्त किया है और एक अनूठा यथार्थ रचा है और हमारे आस-पास के यथार्थ से मिलता जुलता है और उसकी सरहदों के पार भी जाता है।’ और तो और अमूल दूध तक ने इसकी महत्ता को स्वीकार करते हुए अपने डूडल में कहा ‘जीतांजलि’…!
इस घटना से न केवल हिंदी बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं से अंग्रेजी में अनुवाद की मांग निश्चित ही बढ़ेगी, साथ ही उत्कृष्ट अनुवाद के रास्ते भी खुलेंगे। प्रकाशक भी अनुवादक के महत्व को पहले की तुलना में बेहरत समझेंगे, ऐसा माना जा सकता है, क्योंकि अनुवाद कर्म भी मूल रचनाकर्म से कमतर नहीं है। यह गीतांजलि श्री के उपन्यास के अंग्रेजी अनुवाद से सिद्ध हुआ है। अनुवाद का काम डेजी राॅकवेल ने बहुत अच्छी तरह से किया है, लेकिन सवाल यह है कि क्या हिंदी वालों के दिल और दिमाग की दुनिया भी उतनी ही व्यापक है, जिसका जिक्र गीतांजलि श्री कर रही हैं ?

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