डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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२०२५ में बैठकर अगर हम पिछली सदी के शुरूआती २५ सालों के इतिहास में झांकें, तो यह दौर ऐसा है जिसे कई घटनाओं, बदलावों और नाटकीय मोड़ों के लिए याद किया जाएगा। यह दौर किसी बड़े बजट की मसाला फिल्म से कम नहीं लगता, जिसमें हास्य है, नाटक है, गम है, और द्वन्द भी। यह कालखंड ऐसा लगता है, जैसे इतिहास ने खुद को किसी ‘रियलिटी शो’ में बदल दिया हो। यह दौर वैश्विक बदलाव, भारत के उत्थान-पतन और तकनीक से लेकर राजनीतिज्ञों के ठुमकों तक का अद्भुत मिश्रण रहा है। आइए, चलते हैं इस मज़ेदार यात्रा पर और देखते हैं कि कैसे दुनिया और भारत ने इस समय में रंग बदले।
सबसे पहले २००० में आई वाय २के विषाणु की अफवाहें फैलने लगीं। ऐसा लग रहा था जैसे कम्प्यूटर हाथ खड़े कर देगा, “अरे भाई, २००० में हम भी बूढ़े हो जाएंगे!” लेकिन आखिरकार, सभी ने मिलकर कम्प्यूटर प्रोन्नत किए, और बड़ा कोई जलवा नहीं हुआ। कम्प्यूटर ने भी राहत की साँस ली।
पिछले २५ सालों में तकनीक ने रफ्तार पकड़ी है, छलांगें लगाई हैं, लेकिन इंसान अभी भी लंगड़ी टांग खेलता ही नजर आ रहा है। २००० में जो लोग नोकिया ३३१० पर ‘साँप’ खेलते थे, वे अब २०२५ में ‘कृत्रिम बुद्धिमता’ से आभासी बातचीत कर रहे हैं, लेकिन इंसान का हाल वही है-सोशल मीडिया पर ज्ञान बांटता है और असली जीवन में गूगल से पूछता नजर आता है कि “खांसी का इलाज घर पर कैसे करें ?”
२००० से २०२५ तक का दौर वह था, जब मोबाइल फोन ‘स्मार्ट’ हो गए और इंसान उतना ही पुराना। व्हाट्सएप पर ‘गुड मॉर्निंग’ भेजने वाली आंटी और अंकल ने संचार क्रांति का झंडा उठाया। फेसबुक और इंस्टाग्राम ने हमें ‘फिल्टर वाली हकीकत’ दी, तथा लोग इस पर लड़ने लगे कि बिल्लियों के मीम्स ज्यादा मजेदार हैं या डॉगी के।
भारत ने डिजिटल इंडिया का सपना देखा, और पेटीएम ने हमारे पर्स से बटुए गायब कर दिए। हर गली में एक प्रभावक (इन्फ्लुएंसर) पैदा हुआ, और गली का पप्पू भी ‘रील्स’ बनाकर सितारा बन गया। सोशल मीडिया ने राजनीति में भी अपनी पकड़ बना ली। ट्वीट्स ने नीतियों को प्रभावित किया । ‘हैशटैग’ ने हर समस्या का समाधान होने की उम्मीद जगाई।
फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम जैसे मंच ने हमारी जिंदगी में नई रंगत जोड़ दी। पहले लोग पत्र लिखते थे, अब १४० अक्षरों में अपनी भावनाएं प्रकट कर लेते हैं। ‘लाइक’ बटन ने हमें इस बात का अहसास दिलाया कि यह दिल “ऑलवेज मांगे मोर लाइक्स!”
मेटावर्स में लोग ‘आभासी औपचारिक कपड़े’ पहन रहे हैं, लेकिन कैमरे बंद करके घर में बनियान और लुंगी में बैठे हैं। भारत में ४जी से ५जी आ गया, लेकिन इंटरनेट पर अब भी गाना भरते करते वक्त ‘बफरिंग’ का नाच चलता ही है।
🔹वैश्विक ताप पर खूब चर्चा-
दुनिया ने ‘वैश्विक तापमान’ पर खूब चर्चा की, लेकिन असर ऐसा हुआ कि ‘ठंडे दिमाग से सोचना’ भी गर्मा-गर्म बहस का मुद्दा बन गया। २०२० में ‘तालाबंदी’ ने प्रकृति को थोड़ी राहत दी थी, मगर इंसान ने फिर से वही किया, जो वह सबसे अच्छे से करता है-कचरा। यह कचरा सिर्फ कूड़ा-करकट तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसका भी डिजिटलीकरण हो गया। अब कचरा उत्पादन के नए रूप में सामने आया-पैसा पहले प्लास्टिक बना और फिर आभासी हो गया। वैश्विक ताप पर सबने ‘वातानुकूलित हाल’ में भाषण दिया। ‘ग्रीन एनर्जी’ पर सेमिनार करने वाले लोग डीजल कार से आते हैं और ग्रीन टी पीकर लौट जाते हैं।
प्लास्टिक प्रतिबंधित हुआ, पर ज़िंदगी में प्लास्टिक जैसी ‘फेकनेस’ बढ़ती गई। दिल्ली की हवा इतनी जहरीली हो गई कि फेफड़े खाँस-खाँसकर इस्तीफा देने की कगार पर आ गए हैं।
वैश्विक तापमान ने पिंग पोंग के स्थान पर ‘हीट वेव्स’ को पदोन्नत कर दिया। ‘कार्बन फुटप्रिंट’ अब फैशन का हिस्सा बन गया है।
भारत ने तकनीकी क्षेत्र में धूम मचा दी। स्टार्ट-अप्स की बौछार और ‘सूचना प्रोद्योगिकी बहार’ ने दुनिया को चौंका दिया। ‘बिटकॉइन’ और ‘क्रिप्टोकरेंसी’ ने निवेशकों को नए उन्माद में डाल दिया, लेकिन कभी-कभी ऐसा लगता था कि ये भी अगले दिन फेंक दिए जाएंगे!
🔹राजनीति बनी अखाड़ा-
पिछले २५ सालों की राजनीति ऐसा अखाड़ा बन गई, जहाँ ‘भाषण कला’ और ‘हवाई किले’ बनाना एकमात्र योग्यता हो गई। हर चुनाव में दलों ने वादे किए, और जनता ने ऐसे भरोसा किया, जैसे आम आदमी अपने लॉटरी के टिकट पर करता है। नेताजी का फोकस ‘डिजिटल इंडिया’ पर इतना बढ़ गया कि उनकी असली रैलियों से ज्यादा ‘मीम रीलें’ दौड़ने लगीं।
फेमिनिज्म ने जड़ें पकड़ीं, मगर सोशल मीडिया पर लड़के- लड़कियाँ एक-दूसरे पर ‘फेक फेमिनिस्ट’ और ‘मिसोगिनिस्ट’ का ठप्पा लगाने में जुट गए। रिश्ते भी डिजिटल हो गए। ‘स्वाइप राइट’ वाली प्रेम कहानियाँ शादी तक कम और ‘अनफॉलो’ तक ज्यादा पहुंचीं।
🔹’कोरोना’ महामारी-
२०२० की ‘कोरोना’ महामारी ऐसा इम्तिहान लाई, जिसने दुनिया को रुकने पर मजबूर कर दिया। २०२० की ‘तालाबंदी’ ऐसा समय था, जब घर बैठे लोगों ने १५ तरह की चाय बनाई और इंसानियत ने ‘मुखपट्टी’ पहनकर साँस लेने का तरीका सीखा।
चीन ने ‘मेड इन चाइना’ का झंडा हर तरफ लहराया, लेकिन विषाणु भी। दूसरी तरफ रूस और यूक्रेन के झगड़े ने २०२० में इतिहास को फिर से जंग के पन्नों में धकेला।
लोग ‘मुखपट्टी’ पहनकर बाजार गए, मगर नाक ‘मुखपट्टी’ से बाहर रही, क्योंकि नाक तो इज्जत का सवाल है। सूजी लेने गए, लेकिन सूजे नितम्ब लेकर आने लगे।
🔹’तालाबंदी’ में १९-
‘तालाबंदी’, आभासी कक्षा, हैंड सैनिटाइज़र, डोसा कैसे बनाएं ? और घर में जिम कैसे करें ?, जैसे सवाल गूगल पर खूब तलाशे गए। तालाबंदी, मुखपट्टी व सामाजिक दूरी ने हमारी जिंदगी बदल दी, लेकिन हाँ, घर में ही रहकर हमने नए शौक भी सीखे- बेकिंग, योगा और आभासी बैठक में ‘चुप’ रहना। ऑफिस जाना अब पुरानी बात हो गई। घर से काम करना एक नया चलन बन गया।
भारत पिछले २५ सालों में ‘विकासशील’ से ‘विकसित’ बनने की दौड़ में लगा रहा। भारतीय राजनीति ने इस दौरान खूब करवटें लीं। नेता ट्विटर पर सक्रिय हो गए और जनता ईवीएम पर ‘संदेह’ जताने लगी। विकास हर चुनावी भाषण का केंद्र बना, लेकिन ढूंढने पर भी नहीं मिला। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका में राष्ट्रपति बदलते रहे, और भारत में नेता बदलने का सपना देखा जाता रहा।
🔹राजनीति में ‘योग’ का तड़का भी लगा-
हमारे प्रधानमंत्री ने दुनिया को बताया कि योग सिर्फ व्यायाम नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक कदम है। योग दिवस ने ऐसा तहलका मचाया कि ओबामा भी ‘सूर्य नमस्कार’ करने लगे।
हर बजट में ‘मध्यमवर्गीय’ को कुछ देने का वादा किया गया, लेकिन हर बार बजट सुनते हुए पापा का यही संवाद सुनने को मिला-“हमें क्या मिला ?”
🔹गड्ढे अभी भी-
‘चंद्रयान-३’ और ‘मंगल मिशन’ जैसी उपलब्धियों ने दुनिया को दिखा दिया कि भारत क्या कर सकता है, मगर सड़क पर गड्ढे अभी भी उतने ही हैं, जितने २००० में थे।
दुनिया ने अमेरिका-चीन की खींचतान देखी, यूक्रेन-रूस की लड़ाई देखी, और बीच में ‘नेटफ्लिक्स एंड चिल’ करते हुए देखा कि कैसे पूरा विश्व किसी बड़े रियलिटी-शो की तरह बन गया।
दुनिया तेजी से बदली, मगर इंसान की सोच अब भी वहीं अटकी है- “सरकार क्या कर रही है ?” और “मुझे इससे क्या फायदा होगा ?”
🔹’तमीज’ छूट गई-
यह दौर ऐसा रहा, जहाँ तकनीक बढ़ी, लेकिन ‘तमीज’ पीछे छूट गई। उम्मीद है कि २०२५ के बाद का दौर इससे बेहतर हो। बस आशा है कि अगले २५ सालों में कम से कम यह न कहें-“जिंदगी की गाड़ी ‘एआई’ चला रहा है, मगर ब्रेक अब भी इंसान के हाथ में है।”
भारत ने पिछले २५ सालों में अपनी स्थिति काफी मजबूत की। ‘मेक इन इंडिया’ का नारा गूंजा, लेकिन ‘मेड इन चाइना’ की वस्तुएं फिर भी घरों में भरी रहीं। गगनयान ने साबित किया कि हम मंगल पर पहुंच सकते हैं, लेकिन यातायात में फंसे ऑटो वाले का गुस्सा वैसा ही रहा।
🔹हर दिन नयी बहस-
पिछले २५ सालों में समाज इतना ‘संवेदनशील’ हो गया कि हर दूसरे दिन एक नई बहस छिड़ जाती। आधुनिकता बनाम परंपरा पर चर्चा और सामाजिक जनसंचार परीक्षण का दौर शुरू हुआ। लोग पहले बेरोजगारी से परेशान थे, अब ‘ट्रेंडिंग मीम्स’ से।
रोबोट्स ने हमारी जगह काम करना शुरू कर दिया। “हैलो, मैं आपका नया सहकर्मी हूँ। नाम है रोबो। कृपया मेरे बिना काम नहीं चलाएँ!” इस दौर में नई पीढ़ी ने कॉफी पीते-पीते क्रांतियाँ कीं। ‘घर से काम’ ने ‘लुंगी में बैठक’ का चलन शुरू किया। ‘मिलेनियल्स’ और ‘जेन-ज़ी’ के लिए चाय बनाना भी एक कौशल माना जाने लगा, और “मैं डिप्रेस हूँ” तथा “आई नीड स्पेस” एक आम बहाना बन गए।
आज जब हम इस सहस्त्राबादी (मिलेनियम) के भूतपूर्व बन रहे हैं और रजत जयंती समारोह मना रहे हैं, यह स्पष्ट है कि परिवर्तन अनिवार्य है। हमें हर स्थिति में हँसते-हँसते आगे बढ़ना चाहिए। चाहे वह तकनीकी क्रांति हो, वैश्विक महामारी हो, या सामाजिक चुनौतियाँ, हमने हर कदम पर अपनी चतुराई और जीवटता की भावना से उन्हें पार किया।
🔹और भविष्य ?-
और भविष्य ? चलो देखते हैं! शायद अगले २५ साल बाद स्वर्ण जयंती (२०५०) पर हमारे पास कुछ नए यादें, कुछ नए संस्मरण जुड़ें।