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प्रकृति का श्रेष्ठ नियम है ‘जियो और जीने दो’

पी.यादव ‘ओज’
झारसुगुड़ा (ओडिशा)
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आ तू मेरी परछाई बन जा,
मैं तेरी परछाई बन जाता हूँ
जी लेंगे दोनों साथ-साथ,
दोनों में हो जाए जो याराना।
जी हाँ, जिंदगी संग-संग, साथ जीने की सबसे बड़ी इबादत है। इस धरती पर जो भी मनुष्य या अन्य प्राणी जन्म लेता है, उसे किसी न किसी की आवश्यकता अवश्य ही पड़ती है। इंसान अकेला इस विस्तृत संसार में जी तो सकता है, परंतु जीने के लिए उसे जितनी भोजन और पानी की आवश्यकता होती है, उतनी ही अधिक उसे अपने साथ कुछ अपनों की आवश्यकता भी पड़ती है। हम जब समाज में रहते हैं, तो समाज के कई दायरों एवं नियमों के साथ अपने जीवन को बिताते हैं । समाज सुचारू रूप से चले, आम नागरिक अपने जीवन को स्वस्थ, सुखद और खुशहाल तरीके से जी सके, इसीलिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम समाज में ‘समता’ स्थापित करें। ‘समता’ अर्थात समाज में रहने वाले किसी भी व्यक्ति या प्राणी के साथ कोई भेदभाव ना हो। दृष्टिकोण केवल बस इतना ही हो, कि इस संसार में जो भी जन्म लिया है और जो भी निवास कर रहा है, उसका बराबर का अधिकार है। प्रकृति या संसार यूँ कहें धरती,जल, पेड़-पौधे, खेत, जंगल आदि जितनी भी प्रकृति से जुड़ी चीजें हैं, सभी में किसी एक का अधिकार नहीं है। उस परमात्मा ने सभी प्राणियों को एकसाथ सब प्रकार की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए इस धरती पर भेजा है। जितना अधिकार मनुष्य का इस धरती और प्रकृति में है, उतना ही अधिकार अन्य प्राणियों का भी है। ईश्वर द्वारा दी गई प्रत्येक वस्तु प्राणियों के विवेकसम्मत उपभोग हेतु निमित्त है। ईश्वर प्रदत्त नियम के अनुसार सभी प्राणियों का प्रकृति की सभी वस्तुओं में समानाधिकार व्यवस्थित किया गया है।
प्राचीनकाल से आज तक यह देखा गया है, कि मनुष्य प्रकृति की हर वस्तु में अपना एकाधिकार जमाता आया है। जो कहीं ना कहीं न्यायोचित नहीं है, साथ ही सामाजिक विषमता का विषम रूप ही है। जीवन जीने का सबका अपना अधिकार है। इसके लिए जरूरी है कि हर किसी को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने का अधिकार है और वह अपने तरीके से अपना जीवन-यापन सकता है। मनुष्य अपनी बुद्धि, बल और पराक्रम से प्रकृति पर एकाधिकार जमा कर स्वार्थपूर्ण जीवन जी रहा है। मनुष्य को लगता है, कि यह पूरा का पूरा संसार उसका ही है, जो बहुत बड़ा भ्रम है, क्योंकि संसार किसी एक का नहीं;अपितु सभी प्राणियों का इसमें समान अधिकार है।
मनुष्य अपने जीवन को जीने के लिए नाना प्रकार की चेष्टाएं करता है। इसके अंतर्गत वह अपनी बुद्धि-चातुर्य, बल-पराक्रम से संसार के अन्य प्राणियों को कमजोर करता है। उनके अधिकार को छीनता हुआ वह सब पर अधिकार जमाते हुए स्वार्थपूर्ण जीवन जीने के लिए स्वयं को तैयार करता है, जो किसी भी दृष्टि से न्यायोचित या सही नहीं है।आज यही कारण है, कि प्रकृति विनाश की ओर जा रही है। हर पल कुछ न कुछ ऐसी प्राकृतिक घटनाएं घट रही है, जिससे प्रकृति का विघटन हो रहा है और मनुष्य उसके कोप का भाजन बन रहा है।आज का मानव अपनी कुबुद्धि और बल के अहंकार में इतना ज्यादा स्वार्थी एवं अहंकारी हो गया है कि वह प्रकृति को चुनौती दे रहा है। मानव अपनी सुख-सुविधा हेतु प्रकृति को निरंतर नष्ट करता ही चला जा रहा है। जिस कारण पेड़-पौधे जहां नष्ट हो रहे हैं, वहीं अपना आशियाना बनाने वाले अन्य जीव-जंतु भी प्रकृति के सानिध्य से दूर जा रहे हैं, क्योंकि मनुष्य लगातार प्रकृति का दोहन और हनन कर रहा है। प्रतिदिन वन्य पशु-पक्षियों की घटती संख्याएं व समूहों का कम हो जाना बताता है कि मनुष्य का प्रकृति पर एकाधिकार कहीं न कहीं प्रकृति को विनाश की ओर ले कर जा रहा है।
धीरे-धीरे हमारे आसपास रहने वाले पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों की जाति-प्रजातियाँ लुप्त-सी होते ही जा रही है। जंगल नष्ट हो रहे हैं। जंगली जानवर जंगलों को छोड़कर अन्य स्थानों एवं शहर ओर भाग रहे हैं। जंगलों के कटने या नष्ट होने के कारण पक्षियों को उनका आशियाना न मिलने से उन के समूह की संख्या घटते ही जा रही है, साथ ही साथ जंगली जानवर भी समय पर पेट के लिए भोजन, पानी और रहने का ठिकाना न मिलने कारण उनके जीवन की लीला समाप्त होती जा रही है।
कुछ महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देने से यह बात सामने आती है कि क्या मनुष्य पूरी प्रकृति का इकलौता मालिक है ? इसे मनुष्य अपना एकाधिकार क्यों समझता है ? क्यों मनुष्य प्रकृति को चुनौती नहीं दे रहा ? क्या मनुष्य अन्य प्राणियों के हक को जबरदस्ती नहीं छीन रहा है ? क्या मनुष्य अपनी बुद्धि, समझ और शिक्षा का सदुपयोग कर रहा है ? क्या मनुष्य को अपने भावी जीवन के प्रति चिंताएं नहीं है ? क्या मनुष्य को नहीं चाहिए कि वह सबके साथ समता का व्यवहार करें ?, क्योंकि प्रकृति का नियम है ‘जियो और जीने दो।’ इस नियम के तहत संसार में रहने वाले सभी प्राणियों के लिए प्रकृति का यह संकेत है, कि उसकी सभी सुविधाओं को प्राप्त करें और दूसरों को भी प्राप्त करने का अवसर प्रदान करें। तब जाकर मनुष्य स्वयं भी खुशहाल जीवन जी सकते हैं और संसार के अन्य प्राणी भी अपने जीवन का गुजर-बसर अच्छी तरीके से कर सकते हैं।
जो मनुष्य स्वयं की परवाह न करते हुए दूसरों के जीवन को संभालता है, उन्हें नई जिंदगी प्रदान करता है, साथ ही अन्य प्राणियों को भी प्रकृति के साथ मिलकर रहने का अवसर प्रदान करता है। वास्तव में ऐसा मानव समाज कल्याण की एक महान राह तैयार करता है, क्योंकि ऐसा करके वह ‘जियो और जीने दो’ की भावना को बल देता है तथा मानवमात्र के मानवीय सद्गुणों को सिद्ध करते हुए अन्य प्राणियों को सुखी जीवन जीने का एक अवसर भी प्रदान करता है।
‘जियो और जीने दो’ जीवन का वह महामंत्र है, जिसके पालन मात्र से एक सामान्य व्यक्ति भी मानव से महामानव और देवतातुल्य बन जाता है। मनुष्य का जीवन तब सफल होता है, जब वह विश्व-कल्याण हेतु जीवन को समर्पित कर देता है। स्वयं के लिए जीना मनुष्य को पशु तुल्य बना देता है। जैसे- पशु जब चारागाह में जाते हैं तो केवल अपना ही पेट भरते हैं। उन्हें अपने समूह में रहने वाले अन्य जीव-जंतुओं से कोई मतलब नहीं रहता है। ठीक उसी प्रकार जब मनुष्य अपने स्वार्थ हेतु समाज में रहकर जीवन-यापन करता है तो वह भी पशुतुल्य हो जाता है, क्योंकि उसके भीतर भी औरों को ऊपर उठाने या पेट भरने या दूसरों को आगे बढ़ाने की भावना नहीं होती है।
इसलिए, यह आवश्यक हो जाता है कि मनुष्य, मनुष्य रहते हुए मानवता के पद पर आसीन हो, न कि ‘मनुष्य’ पशुतुल्य जीवन जिए।
घर-परिवार व समाज के बीच मनुष्य जब रहता है तो, वहाँ भी कहीं ना कहीं समता के विचार को त्याग देता है। समाज में रहते हुए मनुष्य केवल अपने हित का चिंतन ही करता है। वह येन-केन-प्रकारेण धन और सुविधाएं प्राप्त करता है और चाहता है कि समाज में सबसे प्रतिष्ठित, धनी, सबसे अधिक प्रभावशाली बने। स्वयं को ऊपर उठाने की जिजीविषा के कारण वह अपने आसपास के रहने वाले लोगों तथा अन्य प्राणियों को कुचलता ही जाता है। उनकी इच्छाओं एवं अधिकारों का दमन करते ही जाता है। उनके जीने के हक को वह छीन लेता है।
यदि मनुष्य चाहता है, कि संसार अपनी श्रेष्ठ गति से नवीन परिवर्तन के साथ चलता रहे तो इसके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि मनुष्य स्वार्थी न बने। स्वयं के साथ-साथ औरों को भी जीने का अधिकार दे।
मानव की नजर में पशु-पक्षी, पेड़- पौधे प्रकृति की हर वस्तु एक समान हो। समाज के बीच मनुष्य एक-दूसरे को आगे बढ़ाएं और स्वयं की उन्नति के साथ-साथ दूसरों की उन्नति में अपना योगदान दें। खुद भी जिएं और औरों को भी जीने दें।
जो दूसरों के लिए अपने निजी स्वार्थ को त्याग देते हैं, ऐसे व्यक्ति मानवता के मार्ग पर चलकर सत्य को प्राप्त करते हैं। ऐसा मनुष्य जो जन-कल्याण, समाज-कल्याण और विश्व बंधुत्व की भावना को मानवता की मोतियों से पिरोकर तैयार करता है, वह देवता तुल्य हो जाता है।
निष्कर्षता:, कह सकता हूँ कि जीवन का एक ही उद्देश्य होना चाहिए, और वह यह है कि हम जिएं जरूर, पर औरों को भी जीने का अवसर जरूर दें-
‘जियो और जीने दो’ का,
ये महामंत्र हो हमारा।
विश्वबंधुत्व का स्वप्न,
शीघ्र पूरा हो हमारा।