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शब्दों की छाँव में एक दिन

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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पंखा अपनी पूरी ताक़त से घूम रहा है,
जैसे थकी हुई उम्मीदों को
हवा देने की आखिरी कोशिश कर रहा हो,
पर शब्द हैं कि उफ़ तक नहीं करते
कहीं भीग रहे हैं बाल्टी में रखे सपनों की तरह।

खिड़की से आती है
पड़ोस की झोंपड़ी की आवाज़,
जहाँ पाँच साल का छोटू
गेंद नहीं, रोटियों की मांग कर रहा है
माँ कहती है-
“थोड़ी देर सबर कर बेटा,
दाल उबाल रही है-
रोटी सेंकते हाथ भी जल रहे हैं।”
गरीब के चूल्हे की आंच कब तक रहेगी ?
जब सरकार की रसोई में
इन दिनों आँच बची ही नहीं।

अखबार में फिर एक युद्ध है-
गाज़ा, यूक्रेन या शायद मेरा मोहल्ला,
कहीं भी हो सकता है-
जहाँ हर बच्चा मलबे से निकलता है,
माँ के आँचल की तलाश में।

खेतों में आज पानी नहीं गिरा,
लेकिन बहसों की बारिश हो रही है
टी.वी. डिबेट में।

मजदूर की हथेली से लहू चू रहा है,
और एंकर पूछता है-
“आपको कैसा लग रहा है ?”
शब्द…
इन सबके बीच बैठा मैं,
कलम की स्याही को
पसीने और आँसुओं से सींचता हूँ।

कविता बनती नहीं, रच जाती है,
जैसे राख के नीचे
चुपचाप सुलगता गुलमोहर,
या टूटे आइनों में
किसी सपने की झलक।

शाम ढली है-
पर शांति नहीं, बस शोर थमा है
मैं अब निकलता हूँ-
गली के उस कोने वाले चाय ठेले तक।
जहाँ अक्सर कुछ भूखें भी,
सर्द चाय के साथ बैठी मिलती हैं॥