दिल्ली
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भारत में हिन्दी पत्रकारिता की न केवल आजादी के संघर्ष में बल्कि उससे पूर्व के गुलामी की बेड़ियों में जकड़े राष्ट्र की संकटपूर्ण स्थितियों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है, नये बनते भारत में यह भूमिका अधिक महसूस की जा रही है, क्योंकि तब से आज तक समाज की आवाज़ उठाने, सत्ता से सवाल पूछने और जनभावनाओं को मंच देने में इसका योगदान अविस्मरणीय रहा है। हिंदी पत्रकारिता या स्थानीय पत्रकारिता, लोगों को उनकी भाषा में जानकारी उन तक पहुँचाती है और देशभर में ज्ञान के व्यापक प्रसार को सुगम बनाती है। दरअसल २ शताब्दी पूर्व ब्रिटिशकालीन भारत में जब तत्कालीन हिन्दुस्तान में दूर-दूर तक मात्र अंग्रेजी, फ़ारसी, उर्दू एवं बांग्ला भाषा में अखबार छपते थे, तब देश की राजधानी कलकत्ता से हिन्दी भाषा में ‘उदन्त मार्तण्ड’ के नाम से पहला हिन्दी समाचार पत्र वर्ष १८२६ को छपा था। पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने इसे साप्ताहिक के तौर पर शुरू किया था। भले ही अब यह बंद हो गया है, लेकिन इसने हिंदी पत्रकारिता के सूर्य को उदित कर दिया था, जो आज भी देदीप्यमान है।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में हिंदी के अनेक दैनिक समाचार पत्र निकले जिनमें हिन्दुस्तान, भारतोदय, भारतमित्र, भारत जीवन, अभ्युदय, विश्वमित्र, आज, प्रताप, विजय, वीर अर्जुन आदि प्रमुख हैं। बीसवीं शताब्दी के चौथे-पांचवें दशकों में अमर उजाला, आर्यावर्त, नवभारत टाइम्स, नई दुनिया, जागरण, पंजाब केसरी, नव भारत आदि प्रमुख हिंदी दैनिक समाचार-पत्र सामने आए। लोकतंत्र में मीडिया चौथे स्तंभ के रूप में खड़ा है, पत्रकारिता एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से हम देश की वर्तमान स्थिति से अवगत रहते हैं। पत्रकार अथक परिश्रम करते हैं, ताकि समाचार हमारे घर तक तुरंत पहुंचे। चाहे अखबारों के जरिए हो, टी.वी. चैनलों के जरिए हो या सोशल मीडिया के व्यापक प्रभाव के जरिए, नित-नये बनते एवं बदलते समाज में पत्रकारिता की शक्ति को कम करके नहीं आँका जा सकता। यह हमारे दृष्टिकोण को व्यापक बनाने और सूचित संवाद को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
हिन्दी पत्रकारिता में क्रांतिकारिता का रंग गणेश शंकर विद्यार्थी ने भरा था। उन्होंने उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से ‘प्रताप’ समाचार पत्र शुरू किया था। यह काम शिव नारायण मिश्र, गणेश शंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा और कोरोनेशन प्रेस के मालिक यशोदा नंदन ने मिलकर किया था। विद्यार्थी जी के समाचार पत्र से क्रांतिकारियों को काफी बल मिला। मुंशी प्रेमचंद महान् लेखक-कहानीकार होने के साथ-साथ हिन्दी के क्रांतिकारी एवं जुझारू पत्रकार थे, उनकी पत्रकारिता भी क्रांतिकारी थी, लेकिन उनके पत्रकारीय योगदान को लगभग भुला ही दिया गया है। जंगे-आजादी के दौर में उनकी पत्रकारिता ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध ललकार की पत्रकारिता थी। वे समाज की कुरीतियों एवं आडम्बरों पर प्रहार करते थे तो नैतिक मूल्यों की वकालत भी करते थे।
आज जबकि हिन्दी देश एवं दुनिया में सर्वाधिक बोली एवं प्रयोग की जाने वाली तीसरी भाषा बन चुकी है, ऐसे में सहज ही हिन्दी पत्रकारिता का मूल्य बढ़ा है। निस्संदेह, सजग, सतर्क और निर्भीक हिन्दी पत्रकार एवं पत्रकारिता एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाकर सत्ताधीशों को राह ही दिखाते हैं। अकबर इलाहाबादी ने इसकी ताकत एवं महत्व को इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है कि ‘न खींचो कमान, न तलवार निकालो, जब तोप हो मुकाबिल तब अखबार निकालो।’ अर्थात कलम को हथियार से भी ताकतवर बताया गया है, पर खबरनवीसों की कलम को तोड़ने, कमजोर करने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निस्तेज करने के लिए बुरी एवं स्वार्थी ताकतें सत्ता, तलवार और तोप का इस्तेमाल कर रही हैं, लेकिन तलवार से भी धारदार कलम इसी लिए इतनी प्रभावी है कि इसकी वजह से बड़े-बड़े राजनेता, उद्योगपतियों और सितारों को अर्श से फर्श पर आना पड़ा।
हिन्दी पत्रकार एवं पत्रकारिता कई संकटों का सामना कर रहे हैं- संघर्ष और हिंसा, आतंक एवं अलगाव, साम्प्रदायिकता एवं अंधधार्मिकता, युद्ध एवं राजनीतिक वर्चस्व, गरीबी एवं बेरोजगारी, लगातार सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ, पर्यावरणीय संकट और लोगों के स्वास्थ्य और भलाई के लिए चुनौतियाँ आदि जटिलतर स्थितियों के बीच हिन्दी पत्रकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। लोकतंत्र, कानून के शासन और मानवाधिकारों को आधार देने वाली संस्थाओं पर गंभीर प्रभाव के कारण ही यह भूमिका महत्वपूर्ण है। बावजूद इसके हिन्दी पत्रकारिता की स्वतंत्रता, पत्रकारों की सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हमले हो रहे हैं। कभी-कभी भारत में हिन्दी पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर सख्त पहरे जैसा भी प्रतीत होता है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। बड़ी सचाई है कि इन्हीं पत्रकारों के बल पर हमें आजादी मिली है। पत्रकारिता लोकहित में सरकार को कदम उठाने का रास्ता सुझाती रहती है, इसी लिए उसकी विश्वसनीयता होती है, मगर सरकारें जब उसके मूल स्वभाव को ही बदलने का प्रयास करती हैं, तो उसकी विश्वसनीयता पर प्रहार करती हैं। ऐसे में पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ न होकर प्रचारतंत्र में तब्दील होने लगती है। उसका लाभ उठाने के बजाय अगर गला घोंटने का प्रयास होगा, तो सही अर्थों में विकास का दावा नहीं किया जा सकता, नया भारत-सशक्त भारत निर्मित नहीं किया जा सकता। अगर कोई सरकार सचमुच उदारवादी और लोकतांत्रिक होगी, तो वह आलोचना से कुछ सीखने का प्रयास करेगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी हिन्दी पत्रकारिता के प्रति हमारे अविश्वसनीय समर्थन को दोहराने की बात कही है जो लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है।
हिन्दी पत्रकारिता कभी मिशन था, आज व्यवसाय बन गया है। आजादी के आंदोलन तक मिशन रहा। धीरे-धीरे इसमें व्यापारी आने लगे। औद्योगिक घराने उतर गए। इनका उद्देश्य समाज सेवा नहीं रहा, व्यापार हो गया। ये व्यापार करने लगे। वह छापने लगे, जिससे इन्हें लाभ हो। डिजिटल युग में टीआरपी और देखना ही सफलता का पैमाना बन गए हैं। गंभीर पत्रकारिता की जगह सनसनीखेज खबरें, गॉसिप, और ‘वाद-विवाद-बहस तमाशों’ ने ले ली है। तथ्य की जगह धारणा, विश्लेषण की जगह उत्तेजना, और संवाद की जगह शोर ने कब्जा कर लिया है। हिन्दी पत्रकारिता ऐसी अनेक चुनौतियों एवं विसंगतियों का सामना कर रही है। बीते कुछ वर्षों में पत्रकारिता का स्तर चिंताजनक रूप से गिरा है, जबकि पत्रकारों की प्रसिद्धि, प्रभाव और पहुंच पहले से कहीं अधिक बढ़ी है। यह विरोधाभास क्यों ? पत्रकार बड़े होते जा रहे हैं, पर पत्रकारिता एवं उसके मूल्य-मानक क्यों सिकुड़ रहे हैं ?इतना सब होने के बावजूद पिछले कुछ साल में खबर एवं हिन्दी पत्रकारिता की विश्वसनीय घटी है। स्तर गिरा है, पत्रकार का सम्मान घटा है। पहले माना जाता था कि अखबार में छपा है तो सही होगा, किंतु मीडिया में आई खबर की आज कोई गारंटी देने को तैयार नहीं। पहले हिन्दी पत्रकारिता वैचारिक-क्रांति होती थी, आज खबर प्रधान है, विचार लुप्त है। हिन्दी पत्रकारिता तभी सार्थक है, जब उसे व्यवसाय नहीं, मिशन के तौर पर नये व्यक्ति, नये समाज, नये राष्ट्र का प्रेरक बनाएंगे।