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जेठ की धूप

पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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जेठ महीने की चिलचिलाती धूप में पसीने से लथ-पथ सरला सिर पर ईंट रख कर ढो रही थी। आज कई दिनों के बाद उसे काम मिला था। पेट की आग जो न करवाए, वह थोड़ी है। ६ वर्षीय मुन्नी अपने ३ वर्षीय भाई नन्हें छुट्टन के साथ पेड़ की छाँव में बैठी हुई अपनी अम्मा की बात याद करके बहुत खुश हो रही थी।
“नन्हें,आज शाम को अम्मा को पैसा मिलेगा तो अम्मा दाल-भात बनाएगी। आज हम लोगों को भर पेट दाल-भात खाने को मिलेगा।” छुट्टन, बहन की बात सुन कर खुशी से नाचने लगा। उसी समय कोठी का दरवाजा खुला, प्रौढ़ मालकिन बाहर आई और उन दोनों को देखते ही चिल्ला पड़ी,-“भागो यहाँ से… अभी कुछ चुरा कर ले जाओगे…!” दोनों बच्चे सहम उठे और डर कर छाँव से निकल कर चिलचिलाती धूप में आकर बैठ गए।
वह वराण्डे मेंखेल रहे अपने बच्चों से बोली, -“तुम लोग बाहर क्यों खेल रहे हो…? अंदर चलो एसी में खेलो…, जेठ की धूप लग गई तो…!”

मासूम छुट्टन बोला,-“दीदी जेठ की धूप क्या होती है ?’’