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मातृत्व, साहस और नेतृत्व की अद्वितीय गाथा

डॉ.शैलेश शुक्ला
बेल्लारी (कर्नाटक)
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राजमाता जीजाबाई पुण्यतिथि (१७ जून) विशेष…

भारतीय इतिहास की महान विभूतियों में राजमाता जीजाबाई का नाम आदर और श्रद्धा से लिया जाता है। वे केवल छत्रपति शिवाजी महाराज की जननी ही नहीं थीं, अपितु वे विचार, दृष्टिकोण और एक प्रेरणा की मूर्तिमान अभिव्यक्ति थीं। उनका जीवन मातृत्व, नेतृत्व, राजनीतिक समझ, धार्मिकता और सामाजिक चेतना का संगम था। ‘शिवाजी अंधश्रद्धा से परे’ (जेम्स डब्ल्यू लेन) में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शिवाजी का व्यक्तित्व मुख्यतः जीजाबाई की शिक्षा, दृष्टिकोण और अनुशासन का ही प्रतिफल था।

राजमाता जीजाबाई का जन्म १२ जनवरी १५९८ को लखुजी जाधवराव और महालसा बाई के यहाँ देवगिरी (वर्तमान महाराष्ट्र) में हुआ। जाधव वंश की यह कन्या बाल्यावस्था से ही राजनीतिक घटनाओं, सैन्य चर्चा और धार्मिक वातावरण से घिरी हुई थी। डॉ. जयसिंह राव पवार अपनी पुस्तक ‘मराठों का इतिहास’ में उल्लेख करते हैं कि जीजाबाई की प्रारंभिक शिक्षा में शास्त्र, नीति, धर्म और प्रशासनिक मूल्यों का समावेश था। वे रामायण और महाभारत की गूढ़ शिक्षाओं में रुचि रखती थीं, जिससे उनके भीतर नीति और धर्म की समृद्ध समझ विकसित हुई।
जीजाबाई का विवाह शाहजी भोंसले से हुआ, जो बीजापुर दरबार में एक शक्तिशाली सैन्य प्रमुख थे। विवाह के उपरांत जीजाबाई को राजनीतिक अस्थिरता, युद्ध, दमन और पारिवारिक तनाव का सामना करना पड़ा। इस स्थिति में जीजाबाई ने पुणे में रहकर बालक शिवाजी का लालन-पालन किया। ‘शिवचरित्र’ (बाबासाहेब पुरंदरे) के अनुसार पुणे की वीरान भूमि को उन्होंने न केवल बसाया, बल्कि उसे शिवाजी की कर्मभूमि भी बनाया। वे स्वयं प्रशासनिक कार्यों में भाग लेती थीं और बालक शिवाजी को शासन कौशल की शिक्षा देती थीं।
राजमाता जीजाबाई ने मातृत्व को केवल संतान-पालन तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने इसे राष्ट्र-निर्माण का माध्यम बनाया।जीजाबाई ने बालक शिवाजी को यह सिखाया कि एक राजा का धर्म केवल शासन करना नहीं है, बल्कि प्रजा की सेवा और रक्षण करना भी है। उन्होंने बालक शिवाजी को महत्वपूर्ण सूत्र सिखाया-“राजा वह नहीं जो राजमहलों में रहे, बल्कि वह है जो रणभूमि में प्रजाजनों के लिए लड़े।”
“सत्ता सेवा का माध्यम है, अधिकार का नहीं।”
जीजाबाई कट्टर धार्मिक थीं, परंतु वह कट्टरता अंधविश्वास नहीं, बल्कि समावेशी और सहिष्णु विचारधारा पर आधारित थी। उन्होंने शिवाजी को हिन्दू धर्म की गहराई, उसकी नैतिकता और सार्वभौमिक दृष्टिकोण से परिचित कराया। ‘शिवाजी अंधश्रद्धा से परे’ में यह भी वर्णित है कि जीजाबाई के धार्मिक दृष्टिकोण ने शिवाजी को अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता का दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया।
उनकी प्रेरणा से शिवाजी ने मंदिरों के संरक्षण के साथ-साथ मस्जिदों और सूफी दरगाहों का भी सम्मान किया, जैसा १६७४ में उनके राज्याभिषेक के समय धर्मगुरुओं की बहुलता से सिद्ध होता है। जीजाबाई ने शिवाजी को सैन्य कौशल और राजनीतिक चातुर्य भी सिखाया। बालक शिवाजी को उन्होंने सिखाया कि “दुश्मन को हराना तलवार से नहीं, पहले बुद्धि से परास्त करना चाहिए।”
‘राजमाता जीजाऊ’ (दत्तोपंत आपटे) के अनुसार, वे शिवाजी के सभी रणनीतिक योजनाओं में मानसिक सहारा बनी रहीं। जब शिवाजी ने बीजापुर के विरोध में स्वराज्य की घोषणा की, तो जीजाबाई ने न केवल आशीर्वाद दिया, बल्कि उनकी योजना को विस्तार भी दिया।
राजमाता जीजाबाई उस कालखंड की महिला थीं, जब समाज में महिलाओं की स्थिति अत्यंत सीमित थी, परंतु उन्होंने सिद्ध किया कि महिलाएं केवल घर की शोभा नहीं, बल्कि समाज का नेतृत्व भी कर सकती हैं।
जीजाबाई ने पुणे में बालिकाओं की शिक्षा के लिए पाठशालाएं खुलवाईं और विधवाओं के लिए संरक्षण गृह की स्थापना करवाई। वे इस बात की पक्षधर थीं कि स्त्रियों को भी राष्ट्र के निर्माण में समान भागीदारी दी जानी चाहिए। उनका यह दृष्टिकोण मराठा समाज में महिलाओं के प्रति सम्मान और जागरूकता लाने में क्रांतिकारी सिद्ध हुआ।

◾शाहजी की अनुपस्थिति और राजनीतिक अस्थिरता-
इन सबके बीच जीजाबाई एक दृढ़ स्तंभ बनकर खड़ी रहीं। जब शिवाजी अग्निपरीक्षा से गुजर रहे थे, तब जीजाबाई ने उन्हें साहस, धैर्य और राष्ट्रभक्ति के लिए प्रेरित किया। जब अफजल खान के साथ युद्ध की योजना बनी, तब जीजाबाई ने पुत्र को सजीव उदाहरणों के माध्यम से बताया कि “धर्म और स्वराज्य की रक्षा के लिए छल का उपयोग यदि शत्रु कर रहा है, तो न्यायसंगत उत्तर देना आवश्यक है।”
राजमाता जीजाबाई का जीवन केवल मराठा इतिहास तक सीमित नहीं है। वह भारतवर्ष की समूची मातृशक्ति की प्रतीक बन गईं। उनके विचार, शिक्षाएं और दृष्टिकोण आज भी प्रेरणास्रोत हैं।
डॉ. सदाशिव कान्हेरे अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहास की महामाताएं’ में लिखते हैं कि यदि जीजाबाई जैसी माताएं न होतीं, तो शिवाजी जैसे राष्ट्रनायक का जन्म संभव न होता। उन्होंने केवल शिवाजी को ही नहीं, भारत को एक स्वराज्य का स्वप्न देखने की शक्ति दी।
राजमाता जीजाबाई का जीवन एक जीवंत दृष्टांत है कि मातृत्व का मर्म केवल संतान का पालन नहीं, अपितु राष्ट्र का निर्माण है। उनकी शिक्षाएं, रणनीतिक समझ, धार्मिक सहिष्णुता, महिला सशक्तीकरण और साहसिक नेतृत्व आज के युग में भी प्रासंगिक हैं।
वह केवल एक माँ नहीं थीं, वह भारतमाता की प्रतिनिधि थीं- एक ऐसी प्रतिनिधि, जिनकी शिक्षाओं ने एक युग को गढ़ा और लाखों को प्रेरणा दी। उनका जीवन यह सिद्ध करता है कि जब एक माँ जाग जाती है, तो एक शिवाजी जन्म लेता है और जब लाखों माँएं जीजाबाई जैसी हो जाती हैं, तब एक सशक्त राष्ट्र खड़ा होता है।