दिल्ली
***********************************
शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) शिखर बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई द्विपक्षीय बातचीत पर अगर दुनिया भर की नजरें टिकी थीं तो यह उद्देश्यपूर्ण एवं वजहपूर्ण थी, क्योंकि बदलती दुनिया में हाथी और ड्रैगन का साथ-साथ चलना जरूरी हो गया है। दोनों शीर्ष नेताओं की सौहार्दपूर्ण बातचीत ने न केवल दोनों देशों के रिश्तों में बढ़ते सामंजस्य की प्रक्रिया को मजबूती दी है, बल्कि कई तरह की अनिश्चितताओं के बीच विश्व अर्थ-व्यवस्था के लिए भी नई संभावनाएं पैदा की हैं। दोनों देशों के मिठासभरे संबंध अनेक नई आशाओं एवं उम्मीदों को नया आकाश देने वाले बनते हुए प्रतीत हुए हैं। दोनों देशों के रिश्तों में लंबे समय बाद सकारात्मकता की नई हवा बहती दिखाई दे रही है. इस मुलाकात ने संकेत दिया है कि दोनों देश पुराने मतभेदों और अविश्वास को पीछे छोड़कर साझेदारी की नई इबारत लिखना चाहते हैं। यह मुलाकात केवल कूटनीतिक शिष्टाचार नहीं थी, बल्कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में सहयोग और संवाद की अपरिहार्यता को स्वीकार करने का प्रयास थी।
भारत-चीन दोनों ही विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं और विशाल जनसंख्या वाले देश हैं। ऐसे में यदि दोनों साथ आते हैं तो न केवल आपसी विकास संभव है, बल्कि वैश्विक संतुलन और शांति की दिशा में भी बड़ा योगदान होगा। हालांकि, सीमाई विवाद और विश्वास की कमी जैसे मुद्दे अब भी बने हुए हैं, परंतु यदि इन्हें परे रखकर साझा आर्थिक, सामरिक और सांस्कृतिक सहयोग को प्राथमिकता दी जाए तो यह संबंध नई ऊँचाइयों को छू सकते हैं। भारत और चीन के बीच यह संवाद केवल २ देशों तक सीमित नहीं है, बल्कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के दबदबे के बीच एशियाई शक्ति संतुलन को नई दिशा दे सकता है। यदि दोनों राष्ट्र व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर आपसी हितों पर ध्यान केंद्रित करें तो न केवल तनाव कम होंगे, बल्कि विश्व राजनीति में एशिया की भूमिका भी मजबूत होगी। निश्चित ही लंबे समय से चली आ रही अविश्वास की दीवारों और तनाव की बर्फ को पिघलाने का प्रयास हुआ है। इन वार्ताओं ने यह संकेत दिया है कि भारत और चीन अब केवल मतभेदों में उलझे रहने के बजाय साझेदारी की संभावनाओं पर ध्यान दे रहे हैं। व्यापार, निवेश और तकनीकी सहयोग की दिशा में नए आयाम खुल सकते हैं। चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और यदि यह संबंध संतुलन और पारस्परिक विश्वास पर आधारित हो जाए, तो दोनों देशों की अर्थव्यवस्था को अपार गति मिल सकती है। इस मुलाकात ने अमेरिका की ‘दादागिरी’ पर भी चोट की है। डोनाल्ड ट्रम्प की आक्रामक आर्थिक नीतियाँ और संरक्षणवादी रुख एशिया के उभरते राष्ट्रों को नई गठबंधन राजनीति की ओर धकेल रहा है। भारत-चीन के बीच बढ़ती समझदारी और रूस की भूमिका के साथ एक ‘त्रिकोणीय शक्ति’ का उभार संभव है, जो पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देगा। यह विश्व शांति की दिशा में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। पाकिस्तान पर भी इसका असर दिखना स्वाभाविक है। भारत-चीन की नजदीकी पाकिस्तान के लिए असुविधा का कारण बनेगी, क्योंकि उसकी विदेश नीति लंबे समय से चीन पर आश्रित है।
भारत-चीन संबंधों का यह नया अध्याय यदि संतुलित, यथार्थवादी और सावधानीपूर्वक आगे बढ़ाया जाए तो एशिया ही नहीं, पूरे विश्व की राजनीति में एक स्थिरता और संतुलन स्थापित हो सकता है। यह विश्व को बहुध्रुवीय बनाने की दिशा में ठोस कदम होगा, लेकिन इन सकारात्मक संकेतों के बावजूद भारत को सावधानी बरतनी होगी। इतिहास गवाह है कि चीन के साथ हर मित्रवत वार्ता के पीछे उसका रणनीतिक हित गहराई से काम करता है। डोकलाम, गलवान और सीमाई विवाद आज भी अधर में हैं। चीन की आर्थिक नीतियों और विस्तारवादी प्रवृत्ति को अनदेखा करना भारत के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है। इसलिए यह साझेदारी अवसर तो है, लेकिन चुनौती भी। भारत को यह ध्यान रखना होगा कि व्यापारिक रिश्तों और राजनीतिक साझेदारी में आत्मनिर्भरता और सुरक्षा सर्वोपरि रहे। भारत को हर स्थिति में अपनी संप्रभुता, सुरक्षा और रणनीतिक हितों के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहिए। भले ही शंघाई सहयोग संगठन में आतंकवाद से लड़ना भी शामिल हो, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि चीन ने इस मुद्दे पर किस तरह भारतीय हितों के खिलाफ काम किया है। पाकिस्तान के खिलाफ ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के समय चीन की भूमिका को ओझल नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके चीन भारत की निकटता वक्त की जरूरत है। गलवान घाटी की झड़प के बाद यह प्रधानमंत्री मोदी का पहला चीन दौरा है। जाहिर है, दोनों देशों के रिश्तों के मद्देनजर यह सवाल महत्वपूर्ण था कि इस बैठक में दोनों शीर्ष नेताओं के बीच बनी सहमति कितनी दूर तक जाती है, लेकिन इसी बीच अमेरिकी टैरिफ की घोषणाओं से जो असामान्य हालात पैदा हुए हैं, उसने दोनों नेताओं की बातचीत की अहमियत को और बढ़ा दिया है। अमेरिका एवं चीन, अमेरिका एवं भारत के नए बने तनावपूर्ण माहौल में हुई मोदी और शी की इस बातचीत ने कई स्तरों पर सकारात्मक संकेत दिए हैं। खासकर प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना अर्थपूर्ण है कि भारत और चीन दोनों ही देश सामरिक स्वायत्तता रखते हैं और इनके आपसी रिश्तों को किसी तीसरे देश के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग की मुलाकात न केवल द्विपक्षीय रिश्तों को पुनर्परिभाषित करती है, बल्कि वैश्विक राजनीति पर भी गहरा असर डाल रही है। इस वार्ता को महज़ दो पड़ोसी देशों का संवाद मानना भूल होगी;यह इक्कीसवीं सदी के बदलते शक्ति समीकरणों का प्रतीक है, यह एक नए शक्ति का अभ्युदय दुनिया में संतुलन एवं शांति का सशक्त माध्यम बनेगा।
अभी दोनों देशों को लंबी दूरी तय करनी होगी, बहुत सारे मतभेद और विवाद दूर करने होंगे। इसका अंदाजा दोनों पक्षों को है। तभी बैठक के बाद जारी बयान में कहा गया कि मतभेद झगड़े में तब्दील नहीं होने चाहिए।