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शहर से अच्छा अपना गाँव

डॉ.राम कुमार झा ‘निकुंज’
बेंगलुरु (कर्नाटक)

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भारत गाँवों का देश है। गाँव को स्वर्ग सम माना जाता है। शान्त,सुखद,मनोहर खेत,खलिहान,कूप- नदी,पोखर,वन-पादप,कच्ची एकपथिया केदारी पथ,मन्द-मन्द सतत् प्रवाहित शीतल पवन,हरियाली फसलों भरी सुन्दर मनभावन खेत और मिट्टी की दीवाल से बने खपरे,घासों से बनी छतरूप छज्जियों वाले घर,उसमें की गई खूबसूरत रंगीली दुल्हन-सी नक्काशियाँ,बाँसों के तोरण द्वार,लालटेन,दीया, बैलगाड़ियाँ,टायर गाड़ियाँ, प्रतिदिन किसी न किसी घर से आनेवाले भोजनार्थ निमंत्रण,पत्ते पर भोजन, पुआल की बिड़िया के आसन,पान,जल मखानी, जल सिंहारा,फूलों के खिले सुगन्धित सुन्दरतम बाग-बगीचे इत्यादि कहाँ चकाचौंध भरे भीड़-भड़ाके प्रदूषित शहरों में कहाँ पाएँ…? हल बैल ले किसान खेतों को सुबह से शाम तक अनवरत जोतता रहता। अपने बगीचे घर के सामने लगाई शुद्ध स्वादिष्ट शाक-सब्जियाँ,नानाविध स्वयं उपजाए फल नारियल,आम,जामुन,बेर,अमरूद,कटहल, लीची,अंगूर,केले,नासपाती,सेव,नारंगी,अनार जैसे अनगिनत फल,वाह क्या सुखद अनुभूति गाँवों के निवास करने और ग्रामीण बनने की।
सामाजिक सहयोग,प्रेम,समरसता,जाति-पाति,धर्म के भेद से ऊपर उठकर,शुभ-अशुभ सब कार्यों में सबका सहयोग कहाँ शहरों में मिले। गाँव की रामलीला और उस अवसर पर खेला गया नाटक ओस गिरती रात में खुले आकाश के नीचे बैठकर बिना कुर्सी कितना आनंद प्रदान करता है। गाँव की चौबटिया,सड़क पर खुली चाय और पान की दुकानों पर सजी राजनीति की संसदीय वाद-विवाद, उत्तेजना,चाय की चुस्की और एक सौ बीस या सोलह नम्बरी जर्दे के साथ या मीठा गाल के नीचे दबाए चबाए पान और बीच-बीच में फिच स्वर जिह्वा और अधरों की लालिमा को चमत्कृत करता हुआ,कहाँ तम्बाकू की थाप कर्ण को दलमलित करती हुई रौनकता,सबकुछ स्वाभाविक निश्छल ठेठ ग्रामीण सना परिवेश,शिक्षा-दीक्षा संस्कार षोडश आचार-विचार,परस्पर सम्मान,विद्यालय-महाविद्यालय,वाचनालय,पुस्तकालय,सुबह-सुबह हिन्दी अंग्रेजिया समाचार-पत्र,कंधे में टंगी रेडियो, साइकल की गरीब सवारी,कम्पाउंडर की ग्रामीण
डाक्टरी,आयुर्वेद के घरेलू नुस्खे,जोग टोना,झाड़- फूँक,मालिकाना,खेत-खलिहान में अनवरत दिन-रात लगे गरीब मजदूर,खेतीहर,ढोल,ताशे,नगाड़े,
चिल्लाते हुए लाउड-स्पीकर,धोती,पाग,दुपट्टे,साफा, पगड़ी,दम खींचते हुक्का के पाईप,रस्सी बंधी खटिया,कुँआ की रस्सियाँ,बाँस के खूबसूरत सूप ,फुलौकी और डगरे,पक्षियों की नानाविध चहचहाहट,गाय,भैंस,बकरियों की आवाज,घोड़े की हिनहिनाहट,चने के खेत से चुराई कच्चे चने की झमटगर पौधे,गन्ने को छिपकर तोड़कर भागने का अनुपम आनंद,गिल्ली-डंडा,गोली खेल,कबड्डी, फुटबॉल कुश्ती,क्रिकेट सब कुछ उपलब्ध,क्या कहूँ..। बहुत कुछ,सब अनुपम,अद्वितीय सुन्दरतम सुखद सब कुछ सरल सहज मनभावन गाँव का अविस्मरणीय जीवन।
धन्य हूँ मैं जो गाँव के परिवेश में जन्म लिया, पालित-पोषित हुआ। मिट्टी से सने देह युक्त पोखरों में डुबकी,क्या आनंद के क्षण। बंसी ले तालाबों में मछली मारने का अद्वितीय आनंद अब कहाँ मिलेगा।
अब बस जीविका वृत्ति के पाश में फँस केवल शहरी जिंदगी बेबस,परन्तु अभी भी गाँव,गाँव है, वैसा ही शान्त,श्रमसाध्य प्रमुदित स्वर्ग सम गाँव का अप्रतिम जीवन।

परिचय-डॉ.राम कुमार झा का साहित्यिक उपनाम ‘निकुंज’ है। १४ जुलाई १९६६ को दरभंगा में जन्मे डॉ. झा का वर्तमान निवास बेंगलुरु (कर्नाटक)में,जबकि स्थाई पता-दिल्ली स्थित एन.सी.आर.(गाज़ियाबाद)है। हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,मैथिली,बंगला, नेपाली,असमिया,भोजपुरी एवं डोगरी आदि भाषाओं का ज्ञान रखने वाले श्री झा का संबंध शहर लोनी(गाजि़याबाद उत्तर प्रदेश)से है। शिक्षा एम.ए.(हिन्दी, संस्कृत,इतिहास),बी.एड.,एल.एल.बी., पीएच-डी. और जे.आर.एफ. है। आपका कार्यक्षेत्र-वरिष्ठ अध्यापक (मल्लेश्वरम्,बेंगलूरु) का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आप हिंंदी भाषा के प्रसार-प्रचार में ५० से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़कर सक्रिय हैं। लेखन विधा-मुक्तक,छन्दबद्ध काव्य,कथा,गीत,लेख ,ग़ज़ल और समालोचना है। प्रकाशन में डॉ.झा के खाते में काव्य संग्रह,दोहा मुक्तावली,कराहती संवेदनाएँ(शीघ्र ही)प्रस्तावित हैं,तो संस्कृत में महाभारते अंतर्राष्ट्रीय-सम्बन्धः कूटनीतिश्च(समालोचनात्मक ग्रन्थ) एवं सूक्ति-नवनीतम् भी आने वाली है। विभिन्न अखबारों में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्यिक संस्था का व्यवस्थापक सदस्य,मानद कवि से अलंकृत और एक संस्था का पूर्व महासचिव होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी साहित्य का विशेषकर अहिन्दी भाषा भाषियों में लेखन माध्यम से प्रचार-प्रसार सह सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ है। प्रेरणा पुंज- वैयाकरण झा(सह कवि स्व.पं. शिवशंकर झा)और डॉ.भगवतीचरण मिश्र है। आपकी विशेषज्ञता दोहा लेखन,मुक्तक काव्य और समालोचन सह रंगकर्मी की है। देश और हिन्दी भाषा के प्रति आपके विचार(दोहा)-
स्वभाषा सम्मान बढ़े,देश-भक्ति अभिमान।
जिसने दी है जिंदगी,बढ़ा शान दूँ जान॥ 
ऋण चुका मैं धन्य बनूँ,जो दी भाषा ज्ञान।
हिन्दी मेरी रूह है,जो भारत पहचान॥

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