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तुमसे दूर

सवि शर्मा
देहरादून(उत्तराखण्ड)
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काव्य संग्रह हम और तुम से

तुम्हारी ठोकरों से टूट गए थे दिल की वीणा के तार,
झनझना कर बिखरे थे पाँव की पायल के मोती जो टूटते
आशा बिंदु से मेरी आँसूओं की लड़ियाँ समेटे घर के जाने,
किस कोने के घोर सन्नाटे में जाकर समाहित हो गए।

शनैः-शनै: तुम्हारा ये क्रम रोज़ का, पाषाण-सा होने लगा मेरा हृदय
छोड़ने लगी मैं वो अब रेशम की डोरी,
जो तुम तक खींच ले जाती थी
अब उसकी पकड़ भी कमज़ोर होने लगी।

वो तुम्हारी मुस्कराहट,
जो बेध देती थी मेरा दिल
और उसके साम्राज्य पर आधिपत्य कर,
मेरे होंठों पर सुनहरी मुस्कान बिखेर देता था,
अब नहीं होता उस तिरछी बांकी नज़र का असर।

नक़ली-सी लगती है तुम्हारी ये हँसती आँखें,
इस गहराई में ना जाने कितने झूठ गढ़े तलहटी में छुपे बैठे हैं
जो अब मुझे दिखाई देने लगे हैं,
हट गया है मेरी आँखों से भी वो पर्दा जो शायद मैंने ही प्रेमवश बुना था।

और अब मैं भी मुक्त हो,
आसमान के नीले रंग पर अपने परवाज़ फहराने लगी हूँ।
मुझे मुस्कुराने के लिए अब नहीं ज़रूरत,
तुम्हारी दी उधार-सी ख़ुशियाँ॥

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