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‘माथे की बिंदी’ बनाने में आम हिन्दी सुगम राह

कर्नल डॉ. गिरिजेश सक्सेना ‘गिरीश’
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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हिंदी दिवस विशेष…..

हिन्दी देश के माथे की बिंदी यह वाक्य या कहूँ तो यह कथ्य मैं अपने होश के साठ-पैसठ वर्षों से सुन रहा हूँ,गौरवान्वित भी रहा हूँ और आज भी हूँ। कभी-कभी परन्तु यह गौरव मुझे थोथा या ढकोसला सा लगता है। सोचा,बहुत सोचा,हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है अतः हर भारतीय का कर्त्तव्य है इसे ग्रहण करना, आत्मसात करना।हमारे पास कोई अन्य विकल्प भी नहीं है।
राष्ट्रभाषा कहा तो लगा यह राष्ट्र के हर व्यक्ति की शिरोधार्य भाषा होनी चाहिए,पर क्या ऐसा है ? क्या यह विषय आत्मआकलन का विषय नहीं है ? माना हमारे कहने मात्र से या विधान-संविधान में कुछ धाराएं समाहित करने मात्र से हिन्दी संवैधानिक राष्ट्र भाषा अवश्य हो गयी ? पर पूरे देश में जन-जन की भाषा हो पाई क्या ? देश के इस तर्क के महारथी हिन्दी पंडितों को चाहरदीवारी के बाहर आकर उच्चतम वर्ग से निम्नतम वर्ग,उत्तर से दक्षिण-पूरब से पश्चिम तक हर भारतीय के मनो-मस्तिष्क में जाना होगा।
खोलिए संविधान अनुच्छेद ३४३ (१) २२ भाषाओं को,इसमें राष्ट्र की २२ सूचीबद्ध भाषाओं के उल्लेख हैं,जिसमें मलयालम, तमिल,तेलगु,और कन्नड़ द्रविडियन मूल की है,शेष इन्डो आर्यन मूल की हैl हिन्दी हालांकि,इन्हीं २२ में से एक है,परन्तु अतिरिक्त रूप से इसे भारत की संघीय भाषा अवश्य करार दिया गया। निर्देशित है कि,सारे संघीय शासकीय कार्यों की हिन्दी अधिकारिक भाषा रहेगी,जबकि अंक अंग्रेज़ी भाषा के ही प्रयुक्त होंगे। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि,हिन्दी को संघीय शासकीय भाषा करार दिया गया है, परन्तु संविधान,संसद,न्यायपालिका और केन्द्र राज्य की संपर्क भाषा के स्थान पर अहिन्दी भाषियों के हित चिंतन हेतु अंग्रेज़ी को इसके समकक्ष रख दिया। यह प्रावधान भले ही अस्थायी रूप से १५ वर्ष के लिए रखा गया था,परन्तु अभी तक हटाया नहीं जा सका है। इस प्रकार हिन्दी एक सूचीबद्ध भारतीय भाषा मात्र रह गयी, और विदेशी भाषा अंग्रेज़ी वैल्कल्पिक हो कर भी अपना वर्चस्व बनाने में सफल हो गयी।
राष्ट्रभाषा का तमगा हिन्दी के माथे पर हिन्दीभाषियों द्वारा अक्सर जड़ा जाता है,परन्तु क्या यह सच है सूचीबद्ध २२ भाषाओं में से एक कैसे राष्ट्रभाषा हो सकती है! जो सम्मान इसे संघीय शासकीय भाषा बना कर दिया गया,वह समकक्ष अंग्रेज़ी के कारण समाप्त हो गया। संविधान में राज्यों को अपनी शासकीय भाषा चुनने का अधिकार दिया गया,अतः क्षेत्रीय भाषाएँ अंग्रेज़ी के साथ बरक़रार रहीं और हिन्दी देशव्यापी तो ना हो पाई,पर अंग्रेज़ी की व्यापक ग्राह्यता के कारण एक प्रकार से पदच्युत हो गयी।
आँकड़ों के अनुसार २०११ की जनगणना के आधार पर मात्र ४४ फीसदी भारतीय हिन्दीभाषी हैं,शेष ५६ फीसदी अहिन्दी भाषी हैं। और यह ५६ भी शेष २१ भाषाओं में बंटें हैं। यदि अंग्रेजी को सेतु भाषा या वैकल्पिक ना रखा जाता तो हिन्दी को वरीयता मिलती, पर संविधान लिखे जाते समय भी हम अंग्रेजों और अंग्रेज़ी के मानसिक दास रहे और उसे सेतु भाषा बना बैठे। नतीजा यह है कि हर प्रदेश में क्षेत्रीय भाषा को वरीयता प्राप्त है,रहा बचा काम अंग्रेज़ी में,हिन्दी रही चिंदी चिंदी,जबकि संभवतः तब यदि द्वि-भाषा पद्धति अपनाई जाती तो क्षेत्रीय भाषों का भी मान रहता और हिन्दी का भी देशव्यापी प्रवरण होता, अंततोगत्वा हिन्दी को वरीयता मिलती ही।

मध्यप्रदेश,उत्तर प्रदेश,राजस्थान,हरियाणा, हिमांचल,उत्तराखंड तथा बिहार मिला कर तथा कथित ‘हिन्दी हृदय स्थल’ बन जाता है, पर यहाँ भी शिक्षण,शासन आदि में अंग्रेजी का ही वर्चस्व है। हाँ गाँव-कस्बों में,रेहड़ी- सड़कों पर अवश्य बातों-बातों में हिन्दी दृष्टिगोचर होती है। जैसे ही स्तर ज़मीन से ऊपर उठता है,हिन्दी नीचे रह जाती है और काले अंग्रेजों का वर्चस्व उभरने लगता है।
प्राथमिक विश्लेषण से हिन्दी माथे की बिंदी की ओर कदम बढ़ाते हैं। सुविधा हेतु हम २ रास्ते पकड़ते हैं- हिन्दीभाषी और अहिन्दीभाषी। हिन्दी भाषी भले ही नाम को हो,पर है तो हिन्दीभाषी वह भी वृहत प्रतिशत ४४ फीसदी,पर यहाँ भी विभाजन का कृष्ण मुख प्रस्तुत है। हिन्दीभाषी भी अवधी, भोजपुरी,मालवी,निमाड़ी आदि में खंड-खंड है। हर १० किलोमीटर पर इसका वाचाल रुप बदलता है और साहित्यिक खंड भण्डार के नाम पर हिन्दी विभाजित हो जाती है। जब खंड-खंड हिन्दी स्वयं के माथे की बिन्दी नहीं बन पा रही तो है,तो भिन्न खंडी अहिन्दी के भाल की बिंदी कैसे बनेगी ?
अगला कष्ट है ७३ साल बाद भी हिन्दीभाषी क्षेत्रों की अंग्रेजी परस्ती मानसिक दासता। आज भी इंग्लिश माध्यम शालाओं में बच्चों को पढ़ाना एक उच्चकुल होने की मान्यता रखता है। व्यक्तिगत रूप से ग्यारहवीं तक अनिवार्य हिन्दी की शिक्षा के बाद आठ वर्ष की घणी अंग्रेजी माध्यम से स्नातक तथा चिकित्सा शिक्षा के बाद तैंतीस वर्ष धुरंधर अंग्रेज़ी माहौल में सैन्य सेवा तथा चिकित्सा व्यवसाय में रह कर हिन्दी मुझे कुछ मुश्किल तो लगी,पर हिन्दी लेखन के व्यसन से मुँह ना मोड़ पाया। हाँ दुःख हुआ तो,तब जब हिन्दी भाषी प्रदेश के शासकीय कार्यालयों में हिन्दी में बात करने को हलके लिया गया। अंग्रेज़ी बोलते ही काम द्रुतगामी हो जाते। यानि,हम तिहत्तर साल में भी हिन्दी को हिन्दी भाषी क्षेत्रों में माथे की बिंदी ना बना पाए, अंग्रेजी का वर्चस्व अभी भी सर चढ़ कर बोलता है |
पांडित्य दोष हिन्दी का अगला नासूर है। मेरे लेखन को अक्सर साहित्यकार साहित्य की श्रेणी में नकारते हैं,इसलिए कि संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट हिन्दी का पांडित्य नहीं झाड़ता। मैं नहीं चाहता मेरा लिखा,भाषा पंडितों की व्याख्या और पुस्तकालयों में धूल दीमक का भोज्य बने। मैं सरल सौम्य सुग्राह्य जन-जन की भाषा का पक्षधर हूँ,ताकि हिन्दी भाषा रूप में १०० फीसदी जन आन्दोलन हो सके।
हिन्दी के जन जन की भाषा बनने में इसकी क्लिष्टता,पांडित्य ही सबसे बड़ा व्यवधान रहा है। जयशंकर प्रसाद, चतुरसेन,राहुल सांस्कृत्यायन को कितने लोग पढ़ते हैं। अधिकतर इनका लेखन मेजों और पुस्तकालयों तक ही सीमित रहता है, जबकि प्रेमचंद,शरत चन्द्र,अमृता प्रीतम आम आदमी के हाथों में पाए जा सकते हैं। सरल आम भाषा में सृजन हो,जिसमें प्रचलित शब्दावली का प्रयोग हो। ‘साइकिल’ मजदूर भी समझता है न कि द्विचक्र वाहनी,मजदूर ‘चतुश्चक्री यांत्रिक वाहन’ बोलना चाहेगा या कार, बस बोलना चाहेगा ? खास आदमी या आम आदमी ? हिन्दी साहित्य या आम हिन्दी ? माथे की बिंदी बनाने में आम हिन्दी सुगम राह होगी। एक बार राह तो सुगम हो,हिन्दी की आदत तो हो फिर भाषा परिमार्जन कर स्तर सुधार किया जाना आसान होगा।
अब हम आते हैं भाग दो अर्थात अहिन्दी क्षेत्रों में बिंदी शिरोधारण की दिशा में। तैंतीस वर्षों की दीर्घ सेवा में गर्व के साथ कह सकता हूँ कि,पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण लगभग २ बार भारत दर्शन का सौभाग्य मिला,जिसमें जनसाधारण के मध्य भी आत्मीय संपर्क रहा। पंजाब के आतंक काल में खेतों में किसानों से गाँवों-कस्बों के ग्रामीणों से,आन्ध्रप्रदेश,तमिलनाडु,सिक्किम मूल के लोगों से संपर्क रहा। हर जगह हिन्दी का दंश आमजन के मध्य पाया।
पंजाब में हिन्दी उतनी हेय नहीं लगी,पर हाँ पंजाबी मातृभाषा हर मन में रची बसी थी। हिन्दी को नकारते नहीं,तो स्वीकारते भी नहीं थे। शहरों में फिर भी बात बन जाती थी,पर गाँवों के ठेठ ग्रामीण हिन्दी को थोड़ा मुश्किल समझते थे।
दक्षिण में चेन्नई (मद्रास) में ३ वर्ष से अधिक रहा। नब्बे का दशक था,गोरे-काले का अंतर था। उत्तर भारतीयों को एक सशंक भाव से देखा जाता। हमें उनकी भाषा नहीं पता थी,पर काम चलाऊ अंग्रेज़ी सेतुबंध होती। एक स्वयम्भू आत्मरक्षा की भावना के वशीभूत अक्सर उनका कुछ ऐसा व्यवहार मिलता कि मन को चोट लगती । यह बताना आवश्यक समझता हूँ कि उन्हें हिन्दी नहीं आती,ऐसा भी नहीं था, पर हिन्दी थोपी जाना उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उनके मन में शायद हिन्दी भाषियों की अधीनता का भय काम करता है। अपनी वरीयता के आधार पर इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद नरसिम्हाराव अपने को पद का उत्तराधिकारी मानते थे,पर ना बन सके जिसका दोष उन्होंने हिन्दीभाषी न होना बताया। यही दर्द प्रणब दा का भी था।
हिन्दी के दक्षिण में परित्यक्त होने का कारण हिन्दी थोपना ही रहा है। १९३७ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सरकार थी। जब हिन्दी को आवश्यक किया गया तो पेरियार सहित सभी बड़े दक्षिण भारतीय नेताओं ने विरोध किया। १९६३ में नेहरु ने पुनः हिन्दी अनिवार्य की और मुँह की खाई। १९६५ में लालबहादुर शास्त्री ने कहा-यह स्वाध्यायी रहेगी | द्रविड़ मुन्नेत्र कज्गम ने तो एक बार भारत से अलग होने तक की धमकी दी थी।
३ वर्ष के प्रवास में मैंने तमिल, मलयालम सीखी। जब टूटी-फूटी तमिल बोलता,तो वहाँ का एक स्थानीय बोला-‘अन्ना डोंट किल तमिल,अम इन्दी बोलेगा।’
निष्कर्ष पर आते हुए नीति- निर्धारकों-पंडितों-साहित्यकारों से कहना चाहूँगा हिन्दी थोपना बंद करें।यदि हमें हिन्दी को राष्ट्र भाषा से राष्ट्रीय भाषा,भारत माता के माथे की बिंदी बनाना है तो पांडित्य को त्यागें। पहले इसे सहज सुगम्य सुरग्राह्य-कश्मीर से कन्या कुमारी,मुंबई से मणिपुर तक जन-जन की भाषा बनाएं। पहले हिन्दी को आदत बनाएँ,फिर उन्नयन करें। कहना अतिश्योक्ति ना होगा कि,हिन्दी आज विश्व की इंग्लिश-मेंडरिन के बाद तीसरे नम्बर की भाषा है। विश्व के सभी १०० शीर्ष विश्वविद्यालयों में हिन्दी स्नातक-स्नाकोत्तर पाठ्यक्रम है। इसके अतिरिक्त भी विश्वभर में अनेक संस्था अनेक हिन्दी पाठ्यक्रम चला रही है। हिन्दी ही विश्व की एकमात्र भाषा है जिसकी इतनी समृद्ध वर्णमाला( स्वर-व्यंजन)है कि,जो बोलो,जैसा बोलो,वैसा ही लिखो,अन्य सभी भाषाओं में यह ऐसा नहीं है। अंततोगत्वा गौरान्वित,मुझे कहने में शंका नहीं कि,हिन्दी में भारत माँ के माथे की बिंदी बनने के नहीं,अपितु पृथ्वी माँ के माथे की बिंदी के सभी गुण विद्यमान हैं। २ ही तो सीढ़ी चढ़ना है,आवश्यकता है तो बस हिन्दी भक्तों के धैर्य,तपस्या,निरंतरता एवं प्रखरता के लिए प्रचण्ड प्रयास की।

परिचय-कर्नल डॉ. गिरिजेश सक्सेना का साहित्यिक उपनाम ‘गिरीश’ है। २३ मार्च १९४५ को आपका जन्म जन्म भोपाल (मप्र) में हुआ,तथा वर्तमान में स्थाई रुप से यहीं बसे हुए हैं। हिन्दी सहित अंग्रेजी (वाचाल:पंजाबी उर्दू)भाषा का ज्ञान रखने वाले डॉ. सक्सेना ने बी.एस-सी.,एम.बी.बी.एस.,एम.एच.ए.,एम. बी.ए.,पी.जी.डी.एम.एल.एस. की शिक्षा हासिल की है। आपका कार्यक्षेत्र-चिकित्सक, अस्पताल प्रबंध,विधि चिकित्सा सलाहकार एवं पूर्व सैनिक(सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी) का है। सामाजिक गतिविधि में आप साहित्य -समाजसेवा में सक्रिय हैं। लेखन विधा-लेख, कविता,कहानी,लघुकथा आदि हैं।प्रकाशन में ‘कामयाब’,’सफरनामा’, ‘प्रतीक्षालय'(काव्य) तथा चाणक्य के दांत(लघुकथा संग्रह)आपके नाम हैं। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हैं। आपने त्रिमासिक द्विभाषी पत्रिका का बारह वर्ष सस्वामित्व-सम्पादन एवं प्रकाशन किया है। आपको लघुकथा भूषण,लघुकथाश्री(देहली),क्षितिज सम्मान (इंदौर)लघुकथा गौरव (होशंगाबाद)सम्मान प्राप्त हुआ है। ब्लॉग पर भी सक्रिय ‘गिरीश’ की विशेष उपलब्धि ३५ वर्ष की सगर्व सैन्य सेवा(रुग्ण सेवा का पुण्य समर्पण) है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-साहित्य-समाजसेवा तो सब ही करते हैं,मेरा उद्देश्य है मन की उत्तंग तरंगों पर दुनिया को लोगों के मन तक पहुंचाना तथा मन से मन का तारतम्य बैठाना है। आपके पसंदीदा हिन्दी लेखक-प्रेमचंद, आचार्य चतुर सेन हैं तो प्रेरणापुंज-मन की उदात्त उमंग है। विशेषज्ञता-सविनय है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“देश धरती का टुकड़ा नहीं,बंटे हुए लोगों की भीड़ नहीं,अपितु समग्र समर्पित जनमानस समूह का पर्याय है। क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ भाषा को हिन्दी नहीं कहा जा सकता। हिन्दी जनसामान्य के पढ़ने,समझने तथा बोलने की भाषा है,जिसमें ठूंस कर नहीं अपितु भाषा विन्यासानुचित एवं समावेशित उर्दू अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग वर्जित न हो।”

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