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पुस्तकें जीवन का अर्थ

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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विश्व पुस्तक दिवस स्पर्धा विशेष……

जी हाँ,पृथ्वी पर आने के बाद सर्वप्रथम मेरा परिचय माँ की गोद से हुआ। माँ की गोद में कुछ शारीरिक क्रियाएँ सीखीं। माँ ने उँगली पकड़ कर चलना सिखाया। संकेतों द्वारा एक मूक भाषा सिखाई। जब मैं तीन वर्ष की हुई तो विद्यालय में दाखिला दिला दिया। विद्यालय में मेरा परिचय हुआ एक छोटी सी रंग-बिरंगे चित्रों वाली पुस्तक से,जिसमें अ से अनार, आ से आम,छोटी इ से इमली,बड़ी ई से ईख वाले अक्षरों का ग्यान हुआ। धीरे-धीरे समझ में आया,यह भी हमारी माँ है। हमारी माँ भारती। एक माँ ने जन्म दिया है,एक शिक्षा देगी। विद्यालय में तमाम शिशु सहपाठियों के साथ दिन गुजरने लगे। साथ- साथ शिक्षा ग्रहण करते,साथ-साथ खेलते, साथ-साथ टिफिन लंच लेते और साथ-साथ पंक्तिबद्ध होकर प्रार्थना करते,-“वह शक्ति हमें दो दयानिधे कर्तव्य मार्ग पर डट जावें।”
हाँ,क्रमश: पुस्तकें पढ़ते-पढ़ते कब हाईस्कूल तक पहुंच गई,पता ही नहीं चला। बड़े आनन्द के दिन थे,गुजर गए। अब पूरा ध्यान हमारा पुस्तकों पर केन्द्रित हो गया। पुस्तकों का मतलब समझ में आने लगा। जितना अधिक पढ़ूंगी,उतना ही अच्छा भविष्य (करियर)बनेगा। पढ़-लिख कर किसी अच्छे ओहदे पर बैठूंगी। अच्छा पैसा कमाऊँगी। सुखमय जीवन यापन करूंगी।
यह मेरी सार्वभौमिक सोच थी। मैं जानती थी,सभी छात्र मेरी तरह ही सोचते होंगे और बोर्ड की परीक्षा में अच्छे से अच्छे प्रतिशत लाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे होंगे,परन्तु यह नहीं जानती थी कि कब,कैसे और क्यों मैंने पुस्तकों के साथ लेखनी,चिन्तन और साहित्य कहे जाने वाले धर्म को भी अपने मानस में पनपते हुए महसूस किया था। प्रभाव तो पुस्तकों का ही था,परन्तु उन पुस्तकों को पढ़ते-पढ़ते मेरे अन्दर भी पुस्तकें जन्म लेने लगी थीं। मैंने कक्षा छह से ही छोटी-छोटी कविताएँ, कहानियां और लेख आदि लिखना प्रारम्भ कर दिया था। पुस्तकों ने मेरे अन्दर अपना घर बना लिया था। अब न तो पुस्तकें पढ़े बिना चैन मिलता था,न लिखे बिना रहा जाता था। यानि मैं पुस्तकें पढ़ती भी थी और लिखती भी थी। ये मेरी दिनचर्या में शामिल था। धीरे-धीरे पुस्तकें मेरी आवश्यक आवश्यकताएँ बन गईं और ऐसा महसूस होने लगा कि पुस्तकें ही मेरी जीवन साथी हैं,जो अंतिम स्वांस तक मेरे साथ रहेंगीं।
आज मैं २५ -२६ पुस्तकों की लेखिका हूँ और हजारों पुस्तकें दूसरे लेखकों की पढ़ चुकी हूँ। दैनिक क्रिया-कलापों से निपटने के बाद ये स्वत: हाथ में आ जाती हैं। कभी कोई पुस्तक हाथ आती है तो पठन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और जब लेखनी उठ जाती है तो पुस्तक सृजन की।
ये दोनों ही प्रक्रियाएँ समय के साथ जीवन के रेखाचित्र में रंग भरती हैं, उसे निखारती हैं और एक नैसर्गिक आनन्द का अनुभव कराती हैं। आपातकाल में साहस देती हैं,दुख में चलते रहने की प्रेरणा देती हैं। सम्पूर्ण दुखों की चिन्ताएँ चिन्तन का रूप लेकर सृजन धर्मिता की ओर बढ़ाती हैं। जीवन के हर कठिन मार्ग को सहज और सरल बनाती हैं।
न जाने कितने महापुरषों की जीविनियाँ पढ़ीं,विद्वानों की आत्मकथाएँ पढ़ीं,कवियों की कविताएँ पढ़ीं,कहानीकारों की कहनियाँ पढ़ीं और उपन्यासकारों के उपन्यास पढ़े। जो कुछ सीखा,पुस्तकों से सीखा। जो सिखाया,पुस्तकों से सिखाया। मैं छात्र और शिक्षक दोनों बन कर रही, इसीलिए पुस्तकें कभी मुझसे दूर नहीं हुईं।
कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मैं स्वयं एक पुस्तक हूँ। मैं खुली पुस्तक बनने का प्रयास करती हूँ,ताकि सारे पाठक मुझे सहजता से पढ़ सकें। मानस का चिन्तन पुस्तकों में उड़ेलना आसान नहीं है। उसके लिए वक्त चाहिए होता है,एकान्त चाहिए होता है,शांति चाहिए होती है और अपने ही मानस में डूबने की एकाग्रता चाहिए होती है। यह सब मिलने पर पुस्तक बनती है,जिसमें मानस मंथन का अमृत भरा होता है। उसमें सभी ललित कलाएँ दृष्टिगत होने लगती हैं। उसमें संगीत होता है,सम्बंधित विषय के चित्र होते हैं। उनके मूर्तरूप स्थापित होने लगते हैं और अच्छे- बुरे वास्तु रूप प्रकट होने लगते हैं।
ऐसी पुस्तकें सिर्फ मित्र नहीं,जीवन पर्यन्त साथ रहने वाली जीवनसाथी होती हैं। ये हमारी शिक्षक होती हैं। पथ प्रदर्शक होती हैं और प्रेरणादायी होती हैं।
पुस्तकें हमारी संस्कृति की धरोहर हैं। हमारे क्रिया-कलापों का इतिहास हैं। पुस्तकें हमारी भाषाओं का प्रमाण हैं। ये हमारे जीवन का अर्थ हैं।
पुस्तकें बीते युगों से साक्षात्कार कराती हैं। भविष्य निधि तैयार करती हैं, वर्तमान को ज्यों का त्यों दिखा कर सुख-दु:ख का एहसास कराती हैं।
आज के अत्याधुनिक काल,जिसे हम कोरोना काल कह सकते हैं,पर पुस्तकें रची जा रहीं हैं। समय और साहित्य का यह अन्योनाश्रय सम्बंध एक दैवी विधान है। इसके लिए मनुष्य को कोई तैयारी नहीं करना पड़ती। वह स्वयं अपनी तैयारी करता है। स्वयं अपना लक्ष्य निर्धारित करता है और युग प्रवर्तक साहित्य सृजन से अपने-आपको सिद्ध करता है।

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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