कुल पृष्ठ दर्शन : 251

You are currently viewing ‘कोरोना’ का द्वन्द्व-ईश्वर या विज्ञान

‘कोरोना’ का द्वन्द्व-ईश्वर या विज्ञान

डॉ. वरुण कुमार
दिल्ली
******************************

यह ‘तालाबंदी’ काफी लंबी खींची गई है और उसके बाद धीरे-धीरे खोलने (अनलॉक) की कोशिशें चल रही हैं। जब यह शुरू हुई थी तो नई स्थिति और नई चुनौती ने कई तरह से मनुष्य को उद्धेलित किया था-भय,बेबसी,गुस्सा,संवेदना,भविष्य में क्या होगा इसकी आशंकाएं आदि। इसने नए सिरे से एक वैचारिक प्रश्न को भी उभारा-क्या कोई ईश्वर- अल्लाह-परमेश्वर नहीं है हमारी मदद के लिए ? क्या हमारी प्रार्थनाएं,पूजा-पाठ,विधि -अनुष्ठान आदि व्यर्थ हैं ? तालाबंदी के शुरुआती दौर में इन प्रश्नों पर विचार करते कुछ अच्छे लेख आए थे जिनमें प्रेमपाल शर्मा,तस्लीमा नसरीन के लेख उल्लेखनीय थे। प्रेमपाल शर्मा वैज्ञानिक बुद्धि के पक्ष में अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ते रहे हैं और तसलीमा तर्क-बुद्धि और मानवीय संवेदना की थाती लेकर हमारे समय की संभवत सबसे बड़ी चुनौती-मजहबी कट्टरपंथ से लड़ती रही हैं।
तालाबंदी के चौथे दौर तक आते-आते अब इस वैचारिक उद्धेलन में भी थकान आती दिख रही है। धीरे-धीरे लगता है,लोगों ने नियति को स्वीकार कर लिया है। ये प्रश्न नए नहीं हैं,लेकिन इनके साथ जो बेचैनी,जो तड़प थी,वह घट रही है। हर नई चुनौती नए विचार के साथ एक तड़प का भी दौर लाती है। कभी-कभी उस बेचैनी के दौरान ही उत्तर मिल जाते हैं,कभी गुजर जाने के बाद,जब तटस्थ होकर देख पाना संभव होता है। कभी उत्तर नहीं भी मिलते, हमीं उससे किनारा कर जाते हैं। कभी इतने सारे उत्तर मिलते हैं कि हम विश्रृंखल हो जाते हैं।
तालाबंदी ने ईश्वर की सत्ता,उसके मनुष्य के साथ संबंध पर नए प्रश्न नहीं उठाए हैं,बल्कि इन शंकाओं के पीछे की यातना का नए सिरे से एहसास कराया है।
‘कोरोना’ से सारा विश्व लड़ रहा है। इसकी दवा खोजने के लिए तेजी से अनुसंधान व प्रयोग चल रहे हैं। किसी ईश्वरीय चमत्कार से इस बीमारी के समाप्त हो जाने की आशा भी धूमिल पड़ रही है। तस्लीमा हों,प्रेमपाल हों,सबने कहा कि कोई ईश्वर हमारी मदद नहीं करता। ईश्वर एक अंधविश्वास है। हमारी मदद तो विज्ञान करता है। आज के वैज्ञानिक युग में हमें किसी एक को चुनना पड़ेगा- विज्ञान या ईश्वर। मुद्दा ईश्वर बनाम विज्ञान का हो गया है।
मानव इतिहास में अनास्था के पहले भी बड़े-बड़े दौर आए हैं। दो महायुद्धों ने ही मानवीय आस्था पर जितना बड़ा प्रहार किया उसकी तुलना नहीं है,किंतु महायुद्ध का अनुभव मुख्यतः यूरोप केन्द्रित था। भारतीय संदर्भ में उसका अनुभव बहुत हल्का और क्षीण था। महामारी का प्रभाव विश्वव्यापी है, हालाँकि अभी भी इसकी तीव्रता और भयावहता से हमारा परिचय उतना नहीं हुआ है जितना इटली, स्पेन आदि यूरोपीय देशों,अमेरिका आदि को हुआ है,लेकिन जितना हुआ है वह भी कम आतंककारी नहीं। हमारे धर्मप्राण देश में इन शंकाओं का होना भी कम बड़ी बात नहीं।
क्या सचमुच कोई ईश्वर नहीं है हमारी मदद के लिए ? वह ईश्वर जो दया का सागर है, जिसकी अहैतुक करुणा मनुष्य एवं अन्य जीव-जंतु,जड़-चेतन सब पर बरसती है ? ऐसा ईश्वर हमारी यह दुरवस्था देखकर भी चुप कैसे है ?,लेकिन हम ईश्वर से इसकी उम्मीद करें ही क्यों ? सृष्टि कार्य-कारण के नियमों से चलती है। अगर हम छत से कूदें तो नीचे गिरेंगे ही,चोट लगेगी ही। अगर कूदकर ईश्वर से प्रार्थना करें कि हमें चोट लगने से बचा ले तो ऐसा करना ईश्वर के नहीं होने का प्रमाण होगा या हमारी ही लघु बुद्धि का बचकानापन ? क्या ईश्वर हमारी प्रार्थना पर पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण को स्थगित कर देगा ? नहीं न ? कोरोना का संकट बहुत कुछ मानव की क्रूरता और सर्वग्रासी लालसा से आया है। प्रकृति की चिंंता करना हमने बहुत पहले छोड़ दिया है,कुछ विंडो ड्रेसिंग किस्म के उपायों के अतिरिक्त। फिर प्रकृति क्यों हमारे प्रति सदय हो ? यह विश्व-सृष्टि एक बहुत बड़ी प्रणाली है,उसके जो नियम हैं वह उसका पालन करेगी ही। ईश्वर इस बड़ी कल्पनातीत रूप से विशाल सृष्टि का रचयिता और संचालक है। (ईश्वर में यकीन न भी हो तो थोड़ी देर के लिए ऐसा मान लें।) तो ऐसा संचालक क्या मनुष्य के लिए सृष्टि के नियमों में बदलाव कर देगा ? कुदरत के जीवों की अनुवांशिकी में परिवर्तन (म्यूटेशन) होते रहे हैं,होते रहेंगे। कुछ मनुष्य के अनुकूल होंगे,कुछ प्रतिकूल। अगर मनुष्य ने अपनी अंधी भोग-लालसा में पर्याप्त सावधानी नहीं बरती तो उन खतरनाक उत्परिवर्तनों से हमारा सम्पर्क होगा ही और उसके जो परिणाम होंगे,उसे झेलने ही पड़ेंगे। कोरोना का नया विषाणु कोविड-१९ मनुष्य में चमगादड़ों से आया है। चीन की सर्वजीव भक्षी आहार संस्कृति ने उसे चमगादड़ों से मनुष्य में स्थानांतरित कर दिया है। आशंका यह भी है कि चीन ने अपनी प्रयोगशालाओं में जान-बूझकर इस विषाणु को विकसित किया,ताकि दुनिया को कमजोर कर उस पर अपनी आर्थिक-सैन्य ताकत से हावी हो सके। जो भी हो,अब संचार के चमत्कारी साधनों से आज की वैश्वीकृत दुनिया में पूरी मानवता उसका अंजाम भुगत रही है। अब या तो मनुष्य में स्वतः प्राकृतिक रूप से इसकी प्रतिरोध क्षमता विकसित हो जाए (इसमें काफी वक्त लगेगा और काफी मौतें देखनी पड़ेंगी) या फिर यह विषाणु स्वयं परिवर्तित होता हुआ किसी निरापद रूप में आ जाए या समाप्त हो जाए (यह भी संभावना ही है और वक्त लेने वाला है) या फिर मनुष्य स्वयं अपनी मेधा और प्रयासों से इसकी कोई दवा-टीका वगैरह विकसित कर ले। और तो कोई राह हो नहीं सकती। ईश्वर हमारी मदद इन ३ रास्तों से ही कर सकता है। पहले २ विकल्पों के बारे में कोई आश्वस्तकारी प्रमाण नहीं मिल रहे,अतः हमें तीसरे विकल्प का ही फिलहाल सहारा है। अगर ईश्वर को हम मानव-सापेक्ष,या मानव-केन्द्रित सत्ता के रूप में देखते हैं, यानी ऐसा ईश्वर जो मनुष्यों के लिए कृपानिधान,दया का अनंत सागर है तो फिर निश्चय ही ऐसी सत्ता के प्रति शंकाशील होना वाजिब है। तब यह सोचना स्वाभाविक है कि भगवान हमारी कोई मदद नहीं कर सकता,हमारी मदद विज्ञान ही कर सकता है, कि ऐसा भगवान अंधविश्वास है,लेकिन ईश्वर का यह मानव-सापेक्ष रूप हमारी कल्पना की देन है। इसकी आतुरता कि कोई हमसे बड़ी सत्ता हमारी मदद,नियमन करे हम चेतना सम्पन्न मानवों की बेहद गहरी,मूलगामी इच्छा है,लेकिन ऐसा कोई सत्ता वास्तव में हो भी यह जरूरी नहीं। कोई हमसे बड़ी सत्ता तो हो सकती है,लेकिन वह मनुष्य की सहायक हो व सृष्टि के नियमों का व्यतिक्रम करके उसपर कृपालु भी हो,यह जरूरी नहीं। वैज्ञानिक बार-बार दुहराते हैं कि यह अपार सृष्टि,ब्रह्मांड मनुष्य की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के लिए नहीं बना है। हम अपने जीवनकाल में अपनी ही निहारिका (गैलेक्सी) आकाशगंगा के निकटतम तारे तक भी नहीं जा सकते,जो मात्र ४ प्रकाश वर्ष दूर है। हमारी आकाशगंगा में ही खरबों तारे हैं और ब्रह्मांड में ऐसी निहारिकाओं की संख्या खरबों-खरबों है। ऐसी वृहदाकार सृष्टि की संचालिका शक्ति के समक्ष एक नामालूम से तारे सूरज के अदने से ग्रह पृथ्वी के अदने से जीव की क्या हैसियत है! ऐसी शक्ति मानव-निरपेक्ष ही हो सकती है। तो फिर ऐसे दूरस्थ,मनुष्य के प्रति निर्मम और निरपेक्ष शक्ति का मानव के लिए भी क्या महत्व है ? हम चाहे तो उसे मानें या न मानें। वह है भी तो उसका होना हमारे लिए न होने-जैसा ही है,लेकिन मनुष्य के पास सिर्फ तर्क बुद्धि ही नहीं,भावनाएँ भी हैं। वह एक अकेला व्यक्ति नहीं,समाज भी है। उसके निजी जीवन से लेकर समाज तक को चलाने के लिए ऐसे मूल्यों-उपकरणों की जरूरत है जो विज्ञान के दायरे से बाहर हैं। विज्ञान मनुष्य की तर्क-बुद्धि और जिज्ञासाओं का समाधान तो कर सकता है,लेकिन उसके आधिभौतिक प्रश्नों,आस्था के लिए उसके पास कोई समाधान नहीं। विज्ञान भौतिक जगत की बातें बता सकता है,जीवन-जगत के चरम मूल्यों दया,करुणा,प्रेम,समानता आदि का उत्स कोई धर्म,कोई ईश्वर ही होगा। ईश्वर अगर वास्तव में न भी हो तो भी हमें उसकी जरूरत है,कल्पना या धारणा के रूप में ही सही। तभी समाज को,व्यक्ति को,जीवन को दिशा मिलेगी। धर्म उस ईश्वर के ही सहारे हमारे समक्ष नैतिकता और मूल्यों की एक पूरी व्यवस्था प्रदान करता है,जिससे हम अपने को संचालित करते हैं, जो हमें दिशा देता है। आशय यहाँ अपने संप्रदाय से बाहर दूसरे को अवांछित या काफिर समझने वाले मजहब से नहीं है,बल्कि मानवमात्र के प्रति सहानुभूतिशील विचार पद्धति से है, जिसे धर्म कह सकते हैं। कोई अगर हमारे कर्मों का फल या दंड देनेवाला न हो तो हमें कुछ भी, कैसा भी अमंगल,कैसी भी क्रूरता करने से कौन रोक सकता है। कहने की बात नहीं कि ईश्वरविहीन सबसे बड़ी राजनीतिक व्यवस्था ‘मार्क्सवाद’ सबसे क्रूर और मानव-संहारी साबित हुई है। आज कोरोना का उत्स भी एक साम्यवादी देश ही है,जिसकी अनियंत्रित शक्ति-पिपासा और क्रूरता से विषाणु समस्त विश्व में फैला है। आग कोई एक व्यक्ति जलाता है लेकिन उससे निकला धुआँ दूसरों का भी दम घोंटता है। यह धर्म या धर्म प्रदत्त हमारे संस्कार ही हैं,जो हमें विवेक देते हैं, करुणा देते हैं,हमारी पाशविक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाते हैं। हम चाहे अपनी मेधा से जो चाहे हासिल कर लें,हमारी आतुर संतप्त आत्मा को कोई ईश्वर ही प्रेम का संस्पर्श देगा।
केवल वैज्ञानिक प्रगति हमारा भला नहीं कर सकती। विज्ञान हमारे हाथों में अस्त्र और उपकरण दे सकता है,लेकिन उसे हम कैसे इस्तेमाल करेंगे इसका विवेक भी देने की क्षमता उसके पास नहीं है। यह विवेक आखिरकार धर्म ही देगा,उसके दुरुपयोग के नतीजों के प्रति भय और चेतावनी कोई ईश्वर ही दे सकता है। अल्बर्ट आइंस्टीन का प्रसिद्ध कथन है कि धर्म के बगैर विज्ञान लंगड़ा है और विज्ञान के बगैर धर्म अंधा। इसलिए धर्म कोरा अंधविश्वास नहीं है और न ही विज्ञान कोई सर्वशक्तिमान,हर प्रश्न का समाधान कर देने में समर्थ सत्ता। हमें दोनों की जरूरत है। कोरोना के वर्तमान संकट से यह संदेश निकलकर आ रहा है कि मनुष्य को प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर चलना होगा। वह प्रकृति का अंग है,उसका नियंता नहीं। ‘प्रकृति पर विजय’ जैसे मुहावरे वैज्ञानिक प्रगति पर मनुष्य के घमंड को दर्शाते हैं,पर साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि मजहब को एक जड़ विचार में बदल देने और उसे कर्मकांडों में सीमित कर देने के भी उतने ही बड़े दुष्परिणाम हैं। आज जिस मजहबी कट्टरता और आतंकवाद से दुनिया जूझ रही है उसका कारण है मजहब का जड़ीभूत होकर मानव का ही विरोधी हो जाना। इसलिए जैसे विज्ञान,वैसे धर्म भी एक निरन्तर विकासशील व्यवस्था है। दोनों नई स्थितियों,नए प्रश्नों से जूझते और उनके अनुसार ढलते हैं और एक-दूसरे को संस्कारित करते हैं। जब ऐसा नहीं होता है,तब मानवता को उसका मूल्य चुकाना पड़ता है।
कोरोना संकट के मद्देनजर धर्म और ईश्वर के प्रति जो शंकाएँ उठी थीं,वे मानव केन्द्रित और वर्तमान से बंधी दृष्टि का परिणाम थीं। मानवेतर जीव-जगत और भविष्य को भी ध्यान में लाकर देखें तो कोरोना का संकट एक दूसरा परिप्रेक्ष्य सामने लाता है। कोरोना से तालाबंदी ने पहली बार उन जीव-जंतुओं को भी खुलने और जीने का अवसर दिया है जो मनुष्य की गतिविधियों से निरंतर डरे और खतरे में रहते थे। मनुष्य के लिए कठोर दिखनेवाली यह स्थिति मनुष्येतर जीवों के लिए वरदान बनकर आई थी। निरंतर कर्मरत मनुष्य को अवकाश में जाने के लिए विवश करके प्रकृति ने अन्य जीव जंतुओं के अलावा पर्यावरण को भी एक संजीवनी प्रदान की। एक आस्तिक बुद्धि तो कहेगी कि यह कोरोना का यह संकट भी उस महाकरुणावान ईश्वर की करुणा का ही एक कृत्य हो सकती है। हो सकता है इसमें कहीं सृष्टि का या प्रकृति का या हमारा ही कल्याण छुपा हुआ हो ? ‘मंगलमय विभु अनेक अमंगलों में कौन-कौन से मंगल छुपाए रहता हम क्षुद्र मानव उसका क्या अनुमान लगा सकते हैं ?’ (जयशंकर प्रसाद,चंद्रगुप्त) यह भी हो सकता है कि यह संकट कहीं-न-कहीं ईश्वर के उस दंड-विधान की व्यवस्था हो जिसके अंतर्गत मनुष्य को प्रकृति के किए गए दोहन का दंड भुगतना पड़ रहा है। समाधान हर व्यक्ति की चेतना और आस्था अपने-अपने तरीके से निकालेगी। जो विज्ञान को ही पूरी तरह सत्ता का केन्द्र बनाते हैं और ईश्वर को नहीं,वे यही कहेंगे कि महामारी से छुटकारा वैज्ञानिक ढंग से या विज्ञान से ही संभव होगा,उसमें ईश्वर का कोई योगदान नहीं होगा,लेकिन आस्थावान के लिए यह ईश्वर की महाकरुणा का ही एक प्रकटीकरण हो सकता है। नास्तिक के लिए हमें अपना कर्म ही करना है,ईश्वर से कोई आशा नहीं करनी है। आस्तिक के लिए भी मनुष्य को सृष्टि की व्यवस्था के अंतर्गत काम करना है, उसका उल्लंघन करने पर परिणामों से ईश्वर नहीं बचा सकता। निष्कर्ष में दोनोें एक ही स्थल पर मिल जाते हैं। सामान्यीकरण जिस सीमा तक हो सकता है,उसमें यही कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक चेतना के साथ आस्तिक बुद्धि ही मनुष्य का सम्यक और प्रकृति के साथ संतुलन में विकास कर सकती है। धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक और मानव के सहयोगी हैं।

(सौजन्य: वैश्विक हिन्दी सम्मेलन,मुम्बई)

Leave a Reply