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मातृभाषा के बिना शिक्षा नीति अपंग

निर्मलकुमार पाटोदी
इन्दौर(मध्यप्रदेश)
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शिक्षा नीति-२०२०


नई शिक्षा नीति पर प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद केबिनेट की बैठक में अंतत: मंज़ूरी मिल जाने से एक बड़ी यह चिंता दूर हो गई है कि सरकार का कार्यकाल बीत जाता और और सारी मेहनत व्यर्थ रह जाती।
कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली शिक्षा नीति समिति के मूल प्रस्तावों को सरकार ने स्वीकार करके परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। जैसे सकल बजट का छ: प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना,शिक्षा में कौशल को निचली कक्षाओं से स्थान देना, गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा एवं विद्यालयीय और उच्च स्तर तक की शिक्षा का स्वरूप में आमूल-चूल बदलाव करने जैसा कठिन निर्णय लिया गया है। अंग्रेज़ों के ज़माने से चली आ रही नौकर पैदा करने वाली शिक्षा नीति से स्वाधीन भारत में मुक्ति का रास्ता अब आ सका है।
नई शिक्षा नीति में स्थानीय संदर्भों और भाषाओं को पूरा स्थान देने का उल्लेख है, किंतु सिर्फ़ पाँचवीं कक्षा तक स्थानीय भाषा पढ़ाने की जानकारी स्पष्ट की गयी है। छठी कक्षा से आगे पढ़ाई में देश की भाषाओं को माध्यम बना कर शिक्षा प्रदान करने पर चुप्पी धारण कर ली गई है। दुनिया के संदर्भ में देखा जाए,तो सभी उन्नत राष्ट्रों में समूची शिक्षा देश की भाषाओं के माध्यम से प्रदान की जा रही है। चीन ने विकास करके जो ऊँचाई दुनिया में पाई है,वह सिर्फ़ अपने देश की मंदारिन भाषा को शिक्षा,प्रशासन और न्याय में अपनाने का प्रतिफल है।
नई शिक्षा नीति में अपनाई गई ढुलमुलता के कारण कक्षा पाँचवीं के बाद अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम की दख़लंदाज़ी यथावत क़ायम रहेगी। मतलब सभी विद्यार्थियों पर अंग्रेज़ी की अनिवार्यता बनी रहेगी। नई शिक्षा नीति की यह सबसे बड़ी ख़ामी है।
नई शिक्षा नीति के कारण आठवीं अनुसूची की भाषाओं की हालत दयनीय बनी रहेगी। इसका परिणाम यह निकलेगा कि,भारत सरकार का और राज्यों का कामकाज अंग्रेज़ी भाषा में मूल रूप से जारी रहेगा। न्याय के क्षेत्र में भी मूल रूप से अंग्रेज़ी भाषा न्याय का कामकाज चलता रहेगा।
वास्तव में शिक्षा ही हर देश के विकास की नींव की भूमिका का निर्वाह करती है। उसमें देश की भाषाओं का स्थान मुख्य होता है। पराए देश की भाषा से मानसिक ग़ुलामी को बल मिलता है। अंग्रेज़ी भाषा को बनाए रखने वाली नई शिक्षा नीति देश के चतुर्मुखी विकास में सबसे बड़ी बाधा बनी रहेगी। दुनिया के उन्नत राष्ट्रों के समकक्ष भारत को ले जाना है,तो उसका आधार देश की भाषाएँ ही हो सकती है।
अंग्रेज़ी भाषा को नई शिक्षा नीति में महत्व दिए जाने के के पीछे कुछ राज्यों के राजनीतिक दलों से केन्द्र सरकार भयभीत होना है। इसी भय के कारण नई शिक्षा नीति में अंग्रेज़ी भाषा को क़ायम रखा गया है, जिसका दुष्परिणाम देश के करोड़ों विद्यार्थियों को भुगतना होगा।
व्यावहारिक रूप से नई शिक्षा नीति में होना तो यह चाहिए था कि अंग्रेज़ी भाषा को नई उतना ही स्थान दिया जाना था,जितना किसी अन्य विदेशी भाषा के लिए रखा जाना था।
यदि शिक्षा में से अंग्रेज़ी भाषा को हटा दिया जाता,तो सभी विद्यार्थी अपनी भाषाओं के माध्यम से सहजता से शिक्षा ग्रहण करके अपने जीवन को उन्नत बना सकते थे। पूरी शिक्षा अंग्रेज़ी भाषा के बिना प्रदान की जा सकती है। हमारे देश की भाषाएँ दुनिया किसी भी देश की भाषा से कमतर नहीं है। उनमें हर विषय की शिक्षा प्रदान करने की सामर्थ्य है। आवश्यकता उनको अवसर प्रदान करने से है।
अंग्रेज़ी भाषा से शिक्षा-प्रणाली को दूर रखने से सरकार के बजट का एक बड़ा भाग बच जाएगा। विद्यार्थियों को अनावश्यक रूप से
सालों-साल अंग्रेज़ी भाषा पढ़ने की बाध्यता नहीं रहती। हमारी भाषाओं को फलने-फूलने का पूरा अवसर मिल जाता। नई शिक्षा नीति में यह चालाकी की गई है कि,किसी भाषा को आवश्यक नहीं बनाने का उल्लेख तो है,किंतु अंग्रेज़ी भाषा स्वत: आवश्यक हो जाने वाली है,क्योंकि उसके उपयोग के लिए गली छोड़ दी गई है। इस उल्लेख के कारण अंग्रेज़ी भाषा का महत्व बिल्कुल कम नहीं होगा। इस भाषा को नकारना असंभव हो गया है।

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