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फ़िजूल जरुरतें

हीरा सिंह चाहिल ‘बिल्ले’
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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जमीन होती गगन से रौशन,
गगन से किरणों के गुन्चे आते।
मगर जमीं पे रहने वाले,
नहीं इन्हें हैं यहां सजाते।
जमीन होती…

कहाँ-कहाँ से गुजरती नदियां,
कि मिल लें सागर से अपने जा के।
मगर जमीं पे रहने वाले,
नहीं कदर नदियों की जताते।
जमीन होती…

जमीन के सारे वृक्षों से थीं,
हवाएं हर सांस शुद्ध लेती।
नहीं बचाए वृक्ष हमने,
काटते तो पर नहीं उगाते।
जमीन होती…

बड़ी सुहानी है कायनात ये,
सभी की कुदरत,है सब में उल्फत।
करे भी कुदरत क्या भला जब,
फिजूल कायनात को ये मिटाते।
जमीन होती…

हरेक मौसम ही था सुहाना,
यहां थे हर इक बहार-ए-मंजर।
जरूरतें न बनतीं ऐसी,
न ग्रास मौसम भी फिर बनाते।
जमीन होती…

अभी भी है वक्त सोचें-समझें,
जहर प्रदूषण का हम मिटायें।
जमीन जैसी थी ये सुहानी,
चलो इसे फिर से हम सजाते।
जमीन होती…गगन से रौशन॥

परिचय-हीरा सिंह चाहिल का उपनाम ‘बिल्ले’ है। जन्म तारीख-१५ फरवरी १९५५ तथा जन्म स्थान-कोतमा जिला- शहडोल (वर्तमान-अनूपपुर म.प्र.)है। वर्तमान एवं स्थाई पता तिफरा,बिलासपुर (छत्तीसगढ़)है। हिन्दी,अँग्रेजी,पंजाबी और बंगाली भाषा का ज्ञान रखने वाले श्री चाहिल की शिक्षा-हायर सेकंडरी और विद्युत में डिप्लोमा है। आपका कार्यक्षेत्र- छत्तीसगढ़ और म.प्र. है। सामाजिक गतिविधि में व्यावहारिक मेल-जोल को प्रमुखता देने वाले बिल्ले की लेखन विधा-गीत,ग़ज़ल और लेख होने के साथ ही अभ्यासरत हैं। लिखने का उद्देश्य-रुचि है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-कवि नीरज हैं। प्रेरणापुंज-धर्मपत्नी श्रीमती शोभा चाहिल हैं। इनकी विशेषज्ञता-खेलकूद (फुटबॉल,वालीबाल,लान टेनिस)में है।

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