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हिन्दी का घर बाँटने वाले सांसद

डॉ. अमरनाथ,
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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एक ओर जहाँ देश में ‘हिन्दी दिवस’ और ‘हिन्दी सप्ताह’ मनाया जा रहा था,तो दूसरी ओर हिन्दी दिवस के दिन ही लोकसभा में एक सांसद हिन्दी की जड़ में मट्ठा डाल रहे थे। माननीय जगदंबिका पाल खुद भी भोजपुरी क्षेत्र के नहीं हैं,लेकिन उन्होंने संसद में हिन्दी की एक बोली भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की और उन्हीं के सुर में सुर मिलाते हुए इसके पांचवें दिन १९ सितम्बर को आर.के.सिन्हा ने राज्य सभा में भी यही मांग दुहराई। इस मांग के पीछे इन सांसदों का क्या स्वार्थ हो सकता है ? बिहार के चुनाव से इसका क्या और कितना संबंध है ? मेरी समझ से परे है यह विषय ? राजनीति मेरा क्षेत्र नहीं,किन्तु इसका हिन्दी पर कितना दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ेगा-इस बात को लेकर मेरी चिन्ता बढ़ गई है। दरअसल,अंग्रेजी के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए अंग्रेजी के बल पर शासन में बैठे शासक वर्ग की यह सुनियोजित साजिश है जिसके द्वारा वे अंग्रेजी के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा हिन्दी को टुकड़े-टुकड़े करके नष्ट कर देना चाहते हैं।

भोजपुरी को शामिल करने की मांग पहले भी होती रही है,जो मांग करते हैं उनके अपने बच्चे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ते हैं,लेकिन हमें भोजपुरी पढ़ने और गँवार बने रहने की नसीहत देते हैं। उनमें से अनेक तो भोजपुरी बोल भी नहीं पाते। पश्चिम बंगाल के तृणमूल कांग्रेस के सांसद सुदीप बंद्योपाध्याय उन्हीं में से हैं,जिनकी जबान से हिन्दी के शब्द सुनने को कान तरसते रह गए। उन्हीं पी.चिदंबरम ने संसद में हम रउआ सबके भावना समझतानीं कहकर भोजपुरी भाषियों का दिल जीत लिया था। सच है,भोजपुरी वाले दिल से ही काम लेते हैं,दिमाग से नहीं। तभी तो ये अंग्रेजीदाँ हमें बेवकूफ बनाने में तनिक भी नहीं हिचकते। हिन्दी का घर बँटने से सबसे ज्यादा फायदा पी.चिदंबरम जैसे अंग्रेजीदां को ही होगा।

भोजपुरी के लिए उक्त दोनों सांसद ने जो दलीलें दी हैं,उनमें सबसे पहली और मजबूत दलील यह है कि भोजपुरी बोलने वालों की सख्या २० करोड़ से ज्यादा है,जबकि भारत की ही जनगणना रिपोर्ट-२०११ के अनुसार भोजपुरी भाषियों की कुल संख्या ५ करोड़ ५ लाख ७९ हजार ४४७ है। संसद में इस तरह झूठ बोलकर उन्होंने संसद को ही नहीं,पूरे देश को गुमराह किया है। इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दी समाज की प्रकृति द्विभाषिकता की है। हम लोग एकसाथ अपने घरों में भोजपुरी,अवधी,ब्रजी आदि बोलते हैं और लिखने-पढ़ने का सारा काम हिन्दी में करते हैं। पूरे हिन्दी क्षेत्र में प्राथमिक शिक्षा का माध्यम हिन्दी है,ऐसी दशा में हमें केवल भोजपुरीभाषी या केवल हिन्दीभाषी कहना गलत है। इसीलिए राजभाषा नियम १९७६ के अनुसार हमें ‘हिन्दीभाषी’ कहा गया है और ‘क’ श्रेणी में रखा गया है।

आर.के.सिन्हा ने बड़े उत्साह के साथ मारीशस का हवाला देते हुए कहा है कि,उस देश में २०११ में ही भोजपुरी को मान्यता मिल चुकी है और वहां के विद्यालयों में भोजपुरी पढ़ाई जाती है। उन्होंने उत्साह के साथ जिस मारीशस का जिक्र किया है,उस मारीशस की कुल आबादी २०११ की ही जनगणना रिपोर्ट के अनुसार १२.३६ लाख है,जिनमें से सिर्फ ५.३ प्रतिशत लोग भोजपुरी बोलते हैं,यानी किसी भी तरह यह संख्या १ लाख नहीं होगी। उन्होंने ही बताया कि मारीशस के सभी सरकारी विद्यालयों में भोजपुरी पढ़ाई जाती है,किन्तु उन्हीं के शब्दों में इन विद्यालयों की कुल संख्या २५० है।

माननीय सांसदों ने अपनी दलीलों के आधार पर भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा देने की मांग की है,किन्तु इसका हिन्दी पर कितना दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ेगा,इस ओर उन्होंने तनिक भी ध्यान नहीं दिया।हिन्दी प्रेमियों का ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूँ-मैथिली भी भोजपुरी की ही तरह हिन्दी की एक बोली थी। २००३ में उसे हिन्दी से अलग करके संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया। अब वह बांग्ला,तमिल,तेलुगू आदि की तरह हिन्दी से अलग स्वतंत्र भाषा बन गई है। इससे निश्चित रूप से मैथिली के कुछ साहित्यकारों को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिल गया होगा,किन्तु इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि वर्ष २०११ की जनगणना में मैथिली को हिन्दी से अलग किया जा चुका है और मैथिली भाषियों की जनसंख्या हिन्दी में से घट चुकी है। यदि भोजपुरी भी अनुसूची में शामिल हो जाती है,तो भोजपुरी भाषियों की जनसंख्या भी हिन्दी भाषियों की जनसंख्या में से घट जाएगी। स्मरणीय है कि सिर्फ संख्या-बल के कारण ही हिन्दी इस देश की राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित है। यदि यह संख्या घटी तो राजभाषा का दर्जा हिन्दी से छिनते देर नहीं लगेगी। भोजपुरी के अलग होते ही ब्रजी,अवधी,छत्तीसगढ़ी,राजस्थानी,बुंदेली,मगही,अंगिका आदि सब अलग होंगी। उनका दावा भोजपुरी से कम मजबूत नहीं है। ‘रामचरितमानस’,‘पद्मावत’ या ‘सूरसागर’ जैसे एक भी ग्रंथ भोजपुरी में नहीं हैं। इसी तरह सांसद अर्जुनराम मेघवाल वर्षों से राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं।छत्तीसगढ़ ने भी २८ नवम्बर २००७ को अपने प्रदेश की राजभाषा छत्तीसगढ़ी को घोषित कर दिया है और अपनी विधानसभा में इस आशय का प्रस्ताव स्वीकृत करके केन्द्र को भेज दिया है कि,छत्तीसगढ़ी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए।

कुछ लोगों को यह भ्रम है कि यदि भोजपुरी को मान्यता मिलती है तो उससे हिन्दी का ही लाभ होगा।ऐसे लोगों को मैथिली से सबक लेनी चाहिए। भोजपुरी की समृद्धि से हिन्दी को और हिन्दी की समृद्धि से भोजपुरी को तभी फायदा होगा,जब दोनों साथ रहेंगी। आठवीं अनुसूची में शामिल होना अपना अलग घर बाँट लेना है। शामिल होने के बाद हिन्दी का भी अहित होगा और भोजपुरी का भी। हम सभी विश्वविद्यालयों के हिन्दी पाठ्यक्रमों में इन सबको पढ़ते-पढ़ाते हैं। हम कबीर,तुलसी,सूर,चंदबरदाई,मीरा आदि को भोजपुरी,अवधी,ब्रजी,राजस्थानी आदि में ही पढ़ सकते हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में ये सभी शामिल हैं। हमारी बोलियों में लिखे जाने वाले उत्कृष्ट साहित्य को पाठ्यक्रमों में रखे जाने की मांग अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण और स्वागतयोग्य है,न कि घर बाँटने की मांग।

भोजपुरी घर में बोली जाने वाली एक बोली है,उसके पास न तो अपनी कोई लिपि है और न मानक व्याकरण। उसके पास मानक गद्य तक नहीं है। किस भोजपुरी के लिए मांग हो रही है ? गोरखपुर की,बनारस की या छपरा की ? भोजपुरी के माध्यम से चिकित्सा और अभियांत्रिकी की पढ़ाई का सब्जबाग दिखाने वाले सांसद पहले हिन्दी को तो पढ़ाई का माध्यम बनाकर दिखाएं।

ज्ञान के सबसे बड़े स्रोत विकीपीडिया ने बोलने वालों की संख्या के आधार पर दुनिया की १०० भाषाओं की जो सूची जारी की है,उसमें हिन्दी को चौथे स्थान पर रखा है। इसके पहले हिन्दी का स्थान दूसरा रहता था,हिन्दी को चौथे स्थान पर रखने का कारण यह है कि,सूची में भोजपुरी,अवधी,मारवाड़ी,छत्तीसगढ़ी,ढूँढाढी,हरियाणवी और मगही को शामिल किया गया है। साम्राज्यवादियों द्वारा हिन्दी की एकता को खंडित करने के षड़्यंत्र का यह ताजा उदाहरण है,और इसमें विदेशियों के साथ कुछ स्वार्थांध देशीजन भी शामिल हैं।

हमारी मुख्य लड़ाई अंग्रेजी के वर्चस्व से है। अंग्रेजी हमारे देश की सभी भाषाओं को धीरे-धीरे लीलती जा रही है। उससे लड़ने के लिए हमारी एकजुटता बहुत जरूरी हैl उसके सामने हिन्दी ही तनकर खड़ी हो सकती है,क्योंकि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से वह आज भी देश की सबसे बड़ी भाषा है और यह संख्या-बल बोलियों के जुड़े रहने के नाते है। ऐसी दशा में यदि हम बिखर गए और आपस में ही लड़ने लगे तो अंग्रेजी की गुलामी से कैसे लड़ सकेंगे ?

कमजोर की सर्वत्र उपेक्षा होती है। घर बँटने से लोग कमजोर होते हैं,दुश्मन भी बन जाते हैं। पड़ोसी बोलियों से भी रिश्तों में कटुता आएगी और हिन्दी का इससे बहुत अहित होगा। मैथिली का अपने पड़ोसी अंगिका से विरोध सर्वविदित है। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को स्थान दिलाने की माँग आज भी लंबित है यदि हिन्दी की संख्या ही नहीं रहेगी तो उस मांग का क्या होगा ?

स्वतंत्रता के बाद हिन्दी की व्याप्ति हिन्दीतर भाषी प्रदेशों में भी हुई है। हिन्दी की संख्या और गुणवत्ता का आधार केवल हिन्दी भाषी राज्य ही नहीं,अपितु हिन्दीतर भाषी राज्य भी हैं। अगर इन बोलियों को अलग कर दिया गया और हिन्दी का संख्या-बल घटा तो वहाँ की राज्य सरकारों को इस विषय पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है कि,वहाँ हिन्दी के पाठ्यक्रम जारी रखे जाएं या नहीं। इतना ही नहीं,राजभाषा विभाग सहित केन्द्रीय हिन्दी संस्थान,केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय अथवा विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसी संस्थाओं के औचित्य पर भी सवाल उठ सकता है।

भोजपुरी को अनुसूची में शामिल करने की माँग भयंकर आत्मघाती है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और स्व. चंद्रशेखर जैसे महान राजनेता तथा महापंडित राहुल सांकृत्यायन और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे महान साहित्यकार ठेठ भोजपुरी क्षेत्र के ही थे,किन्तु उन्होंने भोजपुरी को मान्यता देने की मांग का कभी समर्थन नहीं किया। आज थोड़े से लोग अपने निहित स्वार्थ के लिए २० करोड़ के प्रतिनिधित्व का दावा करके देश को धोखा दे रहे हैं।

सांसदों और हिन्दीप्रेमी मित्रों से अनुरोध है कि,कृपया हिन्दी की किसी भी बोली को अनुसूची में शामिल करने की मांग न करें, और इस विषय में अपने सांसदों से भी यथास्थिति बनाए रखने की अपील करें।

(सौजन्य:वैश्विक हिन्दी सम्मेलन,मुंबई)

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