कुल पृष्ठ दर्शन : 236

जा भुला दिया तुझको

मनोज कुमार सामरिया ‘मनु’
जयपुर(राजस्थान)
****************************************************
जा भुला दिया तुझको भी,
इक अधूरे अरमान की तरह।
तू मेरी जिन्दगी में आई महज,
एक काले ख्वाब की तरह।

एक आँधी की तरह अचानक से,
मेरे समूचे वजूद को हिलाकर रख दिया।
और मैंने भी एक पल के लिए,
तेरे काँधे पर अपना सिर रख दिया।

खिंचता चला गया तेरी ओर अनायास,
बताने लगा तुझे अपने दिल के जज्बात।
लगा खोलने दिल की परत दर परत,
कहने लगा तुझे मन की हर बात।

कि कभी-कभी थाम लिया था,
मैंने जानबुझकर तेरा हाथ।
और तलाशने की नाकाम कोशिश,
करता था तेरी इन जगंल-सी आँखों में
अपने-अधूरे,सोये पड़े जज्बात…।

अभी तो ठीक से,
हो भी नहीं पाई थी मुलाकात…।
फिर तुमने कर दी बिछड़ने की बात,
क्या चाहा था मैंने तुझसे ?
सिर्फ और सिर्फ चन्द लम्हों का साथ।

मैं ये भी जानता हूँ कि नहीं दे सकता,
कोई किसी को तमाम उम्र की खैरात।
कितनी बार पुकारा था मैंने तुझे,
खामोशी से तन्हाईयों में…।

तुम थी खोई हुई कथित अपनों,
के प्रणय विलास में…
मगर कर तो सकती थी झूठा वादा,
रखने मेरे मन की बात।

थक गया हूँ मैं,
अब तेरा इन्तजार करते-करते।
और मैंने चाहा क्या था तुझसे,
तेरे चन्द लम्हें मात्र,झूठा साथ।

ताकि मैं अपनी जिन्दगी को कुछ पल,
ही सही झूठे दिलासे दे सकूँ…।
ये जानते हुए भी,
कि तू मेरी नहीं हो सकती
पर कुछ बूँदें अपने प्रेम सरोवर से,
मुझ प्यासे को पिला जाती
तो और कुछ दिन जी लेता मैं…।

मगर अब…!
अब जितनी शिद्दत से,
तुझे चाहा था उतनी ही बेदर्दी से
कह रहा हूँ कि जा…!
जा भुला दिया तुझको भी,
एक अधूरे अरमान की तरह…
क्योंकि अरमाँ सभी मुकम्मल हों,
‘मनु’ की जिन्दगी में ये कहाँ
उस जालिम खुदा को रास आता है…,
वह सिर्फ किसी नए बहाने से
मेरे दिल को सताता है…।

जा…! जा भुला दिया तुझको भी…,
आज मैं तुझे अपने हर बंधन
अपनी हर कसम से आजाद करता हूँ…
मैं तुझे अपने हर ख्याल से मुक्त करता हूँ
कभी मत सोचना तू भी मेरे बारे में…,
नहीं सोचूँगा मैं भी तेरे बारे में…
आज मैं तुझे सरेआम,
अपनी यादों से तुझे बेदखल करता हूँ…
मैं कहता हूँ अब बज्म में कि तू,
अजनबी है मेरे लिए…
अब तेरे लिए मेरे दिल में कोई भाव नहीं,
मुझे तुझसे कोई सरोकार नहीं
अब तेरे लिए हृदय में,
होगी तो सिर्फ नफरत,सिर्फ नफरत।

मगर ठहर…,
जाने से पहले तेरी आँखों में
देख कर मैं ये तो जान लूँ कि,
कि तू मेरी नफरत के काबिल भी है या नहीं…
तू सोच रही होगी कि नफरत के,
बहाने ही सही मैं तुझे याद करता रहूँगा…
तुझे अपनी यादों में जिन्दा रखूँगा…,
मगर सुन ले तू आज,
हम सरेआम ये ऐलान करते हैं कि
जो हमारी पाक मुहब्बत के काबिल न बन सका…,
उसके नसीब में हम अपनी नफरत भी न रहने देंगे …
जा…! जा तुझे हम एक बद्दुआ देते हैं…,
कि हम सदा तेरी आँखों के सामने रहेंगे
तू हमारे प्यार और नफरत दोनों के लिए तरसेगी…।
और ‘मनु’ की यादें बनकर आवारा बादल
कहीं और बरसेगी,जम कर बरसेगी,
ठहर कर बरसेगी,ठिठककर बरसेगी…॥

परिचय-मनोज कुमार सामरिया का उपनाम `मनु` है,जिनका  जन्म १९८५ में २० नवम्बर को लिसाड़िया(सीकर) में हुआ है। जयपुर के मुरलीपुरा में आपका निवास है। आपने बी.एड. के साथ ही स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य) तथा `नेट`(हिन्दी साहित्य) की भी शिक्षा ली है। करीब ८  वर्ष से हिन्दी साहित्य के शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं और मंच संचालन भी करते हैं। लगातार कविता लेखन के साथ ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े लेख,वीर रस एंव श्रृंगार रस प्रधान रचनाओं का लेखन भी श्री सामरिया करते हैं। आपकी रचनाएं कई माध्यम में प्रकाशित होती रहती हैं। मनु  कई वेबसाइट्स पर भी लिखने में सक्रिय हैंl साझा काव्य संग्रह में-प्रतिबिंब,नए पल्लव आदि में आपकी रचनाएं हैं, तो बाल साहित्य साझा संग्रह-`घरौंदा`में भी जगह मिली हैl आप एक साझा संग्रह में सम्पादक मण्डल में सदस्य रहे हैंl पुस्तक प्रकाशन में `बिखरे अल्फ़ाज़ जीवन पृष्ठों पर` आपके नाम है। सम्मान के रुप में आपको `सर्वश्रेष्ठ रचनाकार` सहित आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ सम्मान आदि प्राप्त हो चुके हैंl  

Leave a Reply