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‘आयातित साँसें’…आत्मचिंतन…विवशता

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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देश में ‘कोरोना’ के कहर के चलते चिकित्सा ऑक्सीजन की किल्लत को दूर करने के लिए विदेशों से ऑक्सीजन आयात करने का मोदी सरकार का फैसला सही है। एक तरह से यह जीवनरूपी साँसें आयात करने का अहम फैसला है,लेकिन इस फैसले का व्यावहारिक असर दिखने में वक्त काफी लगेगा। इसी तरह देश में सौ अस्पतालों में मेडिकल ऑक्सीजन उत्पादन का निर्णय भी हुआ है। उसका लाभ भी भावी मरीजों को ही मिल सकेगा। फिलहाल गंभीर समस्या यह है कि,कमी तो तुरंत कैसे पूरा किया जाए ? कोविड मरीजों की टूटती साँसों को कैसे थामे रखा जाए। केन्द्र सरकार ने देश में ऑक्सीजन उत्पादक संयंत्रों को उत्पादन बढ़ाने और ऑक्सीजन का औद्योगिक उपयोग रोकने के लिए कहा है। कुछ संयंत्रों ने उत्पादन बढ़ाया भी है,लेकिन वो वेंटीलेटर पर लेटे रोगियों तक पहुंचने में वक्त लेगी। हालांकि,सरकारी आँकड़े अभी भी बता रहे हैं कि देश में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है,लेकिन अस्पतालों में प्राणवायु के अभाव में दम तोड़ते मरीज दूसरी कहानी कह रहे हैं। दरअसल,यह एक शर्मनाक स्थिति है कि हम मरीजों को ठीक से और पर्याप्त ऑक्सीजन भी नहीं दे पा रहे हैं। कई अस्पतालों में चिकित्सक और परिजन असहाय होकर रोगी को सामने दम तोड़ता देख रहे हैं,पर कुछ कर नहीं पा रहे हैं,क्योंकि ऑक्सीजन सिलेंडर है ही नहीं,है भी तो उतना नहीं है, जितना चाहिए और मिल भी रहा है तो कालाबाजारी।
इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और क्या हो सकती है कि मरीज,अस्पताल में प्राणवायु के अभाव में ही मर जाए,पर यह हो रहा है,क्योंकि कोरोना-२ लहर में फेंफड़ों के संक्रमण के मामले बेतहाशा बढ़ रहे हैं। सरकार ने ऑक्सीजन आयात का फैसला तब किया है,जब देशभर में कोविड संक्रमितों की तादाद दिन में २ लाख के पार हो गई है। कोरोना काल में ऑक्सीजन किल्लत पिछले साल अगस्त में भी बनी थी,तब मप्र सहित कई राज्यों में इधर-उधर से इंतजाम किया गया था। तब तक कोरोना की लहर उतार पर थी और बाजार में ऑक्सीजन की मांग फिर घट गई थी,लेकिन‍ पिछले साल के अनुभव के बाद इसे गंभीरता से नहीं लिया गया कि आगे भी कभी अचानक ऑक्सीजन की मांग कई गुना बढ़ जाएगी तो उस स्थिति में आपात योजना क्या है ? नई व्यवस्था के लिए मरीजों के बड़े पैमाने पर मरने का इंतजार किया जाएगा या फिर ऐसे मामले सामने आते ही शुरूआत में ही तुरंत बड़े पैमाने पर ऑक्सीजन आपूर्ति की कोई वैकल्पिक व्यवस्था काम शुरू कर देगी। अधिकृत आँकड़े बताते हैं कि देश में कुल ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता ७१२७ मी.टन प्रतिदिन की है,जो वर्तमान में अपनी क्षमता से ज्यादा यानी ७३०० मी.टन का उत्पादन कर रही है। सरकार का दावा है कि अभी भी उत्पादित ऑक्सीजन का केवल ५४ प्रतिशत उपयोग ही हो रहा है। अगर ऐसा है तो दिक्कत कहां है ? उत्पादन में या उसके वितरण में ? और इसमें गड़बड़ी अगर हो रही है तो उसे रोकने की जिम्मेदारी किसकी है ?
बहरहाल,केन्द्र सरकार ने ५० हजार मी.टन ऑक्सीजन विदेशों से आयात करने का फैसला किया है। इसके लिए पीएम केयर्स फंड से २ हजार करोड़ रू. मंजूर किए गए हैं। फंड की गोपनीयता को लेकर भी कई सवाल उठाए गए थे,लेकिन अगर उस फंड का उपयोग जनस्वास्थ्य के कामों में किया जा रहा है तो यह अच्छी बात है। यह भी तय हुआ कि,फंड से देश में १०० नए अस्पतालों में ऑक्सीजन प्लांट लगेंगे।
बहुतों को औद्योगिक ऑक्सीजन और चिकित्सा ऑक्सीजन के बीच फर्क का अंदाज नहीं है। दोनों में बुनियादी अंतर यह है कि इलाज के काम आने वाली ऑक्सीजन की शुद्धता का प्रमाण और पैमाना औद्योगिक ऑक्सीजन की तुलना में काफी अधिक होता है,जबकि औद्योगिक ऑक्सीजन वेल्डिंग,गैस कटिंग आदि कई कामों में आती है।
यहां असली सवाल यह है कि सरकार के इन तमाम फैसलों का जरूरतमंदों तक लाभ कब तक पहुंचेगा ? क्योंकि आयात की सरकारी प्रक्रिया,उसकी आपूर्ति और गंतव्य तक पहुंचने की श्रंखला इतनी लंबी है कि उसके पूरी होने तक कितने मरीजों की साँसों की कड़ी टूट जाएगी,कल्पना की जा सकती है। इस समस्या का तत्काल निदान क्या है, यह बड़ी चुनौती है।
वैसे विदेश से ऑक्सीजन का भी आयात करना पड़े,इसका प्रतीकात्मक महत्व है। वो ये कि प्राण वायु जैसी बुनियादी और नैसर्गिक जरूरत की आपूर्ति के लिए हमें विदेशों से मदद लेनी पड़ रही है। कहा जा सकता है कि यह एक असामान्य स्थिति और संकटजन्य मांग है,इसलिए आयात करना पड़ रहा है। सही है,लेकिन संकट ही आत्मनिर्भरता की परीक्षा लेते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ हर साल ८ जून को दुनिया भर में ‘ऑक्सीजन दिवस’ मनाता है। मकसद यही रहता है कि पेड़-पौधे और पर्यावरण बचाएं,ताकि इंसान को ऑक्सीजन सुगमता से मिलती रहे,वो ऑक्सीजन जो जीने के लिए नितांत जरूरी है। कोरोना को दोष देने के साथ-साथ यह प्रश्न हमें आत्मचिंतन पर भी विवश करता है कि ऐसी स्थिति क्यों बनी ?

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