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जन-गण-मन की भाषा…करें विचार

डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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समग्र राष्ट्र गणतंत्र दिवस मना रहा है। गण का अर्थ है समूह। भारत की शासन व्यवस्था जनतांत्रिक है,लेकिन जनता सीधे शासन नहीं करती बल्कि उसके चुने हुए प्रतिनिधिगण संविधान के अनुसार शासन करते हैं। २६ जनवरी १९५०,आज ही के दिन भारत का संविधान लागू हुआ था। इसलिए प्रतिवर्ष देश गणतंत्र दिवस मनाता है। यही वह अवसर है जिस पर हमें विचार करना चाहिए कि हमने इस दिन जिस राह पर चलने का निश्चय किया था,हम उस राह पर चल रहे हैं या नहीं ? जहां पहुंचना चाहते थे,वहाँ पहुंचे हैं या नहीं ?

जहां तक भाषा का प्रश्न है स्वतंत्रता सेनानियों की प्रबल भावना,जनतंत्र और संविधान की अपेक्षा तो यही थी कि देश की व्यवस्था जन-गण-मन की भाषा में हो,ताकि जन गण मन की भावनाओं,आवश्यकताओं और अपेक्षाओं के अनुसार देश की व्यवस्था चल सके। आज इस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है। हमें वस्तुस्थिति को समझना होगा कि स्वतंत्रता से अब तक जन-मन की भाषाएँ यानी भारतीय भाषाएँ कहां से कहां पहुंची हैं और हम किस ओर बढ़ रहे हैं। भारतीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ रहा है,या घट रहा है,इसको लेकर कथित आशावादियों और यथार्थवादियों के बीच प्रायः वाद- विवाद होता ही रहता है।

एक शक्तिशाली अंग्रेजीदां वह वर्ग है जो अंग्रेजी को आज की प्रमुख आवश्यकता मानता है और भारतीय भाषाओं के अंग्रेजीकरण पर इस हद तक आमादा है कि वह इन भाषाओं के चलते-फिरते हर शब्द को अंग्रेजी से बदलने के लिए पूरी शक्ति झोंके हुए है। इस मामले में सबसे चिंताजनक स्थिति तो हिंदी की है। हिंदी का मीडिया,सिनेमा जगत और विज्ञापन जगत प्रमुख है। इस क्षेत्र में जिस प्रकार अंग्रेजीदां वर्ग का दबदबा बढ़ा है,उससे स्थिति निरंतर बिगड़ती जा रही है। अपने को आधुनिक,अतिशिक्षित और प्रगतिशील दिखाने की फिराक में लगे मीडियाकर्मी अपनी भाषा से ज्यादा अपने अंग्रेजी ज्ञान को बघारते दिखते हैं। एक ऐसा भी बड़ा वर्ग है,जो यह तो जानता और मानता है कि हमारी भाषाओं की बुनियाद हर क्षेत्र से खिसक रही है लेकिन वह पूरी तरह असहाय होने की मुद्रा बनाकर कुछ भी करने को तैयार नहीं है। हिंदी के विद्वानों और साहित्यकारों द्वारा हिंदी को साहित्य और मनोरंजन तक सीमित करने के चलते देश के ज्यादातर लोगों की यह धारणा बन चुकी है कि हिंदी भाषा के प्रचार का मतलब केवल कहानी,कविता और मनोरंजन। इसी के चलते देश के ज्यादातर लोग ज्ञान-विज्ञान,शिक्षा और रोजगार आदि में भारतीय भाषाओं के प्रयोग या माध्यम की बात को केवल एक बचकाना शगूफा समझने लगे हैं। व्यवस्था में भाषाओं के प्रयोग को बढ़ाने के बजाए कहानी-कविता,नृत्य-नाटक गीत-संगीत आदि तक और कार्मिकों की रुचि पुरस्कार आदि तक सिमट कर रह गई है । तमाम सरकारी आदेशों के बावजूद हिंदी पखवाड़ों आदि के माध्यम से व्यवस्था में हिंदी को बढ़ाने की बात धीरे-धीरे गौण होती जा रही है।

स्वतंत्रता से लेकर अब तक देश में हिंदी का प्रसार हुआ है या संकुचन ? यदि कुछ बिंदुओं को लेकर ही आकलन करें तो कुछ ही समय में स्थिति स्पष्ट होने लगती है। स्वतंत्रता के समय ही नहीं,स्वतंत्रता के दो-तीन दशक बाद तक भी देश में हिंदी भाषी क्षेत्रों में ज्यादातर लोग हिंदी में ही पढ़ाई करते थे और अन्य राज्यों में वहां की स्थानीय भाषाओं में। राजभाषा आयोग की उन्नीस सौ छप्पन की रिपोर्ट को ही देखें तो पूरे देश में अंग्रेजी जानने वालों का प्रतिशत सर्वाधिक तमिलनाडु में था,जो कुल आबादी का लगभग १ फीसदी था। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे देश में १९५१ तक अंग्रेजी जानने वालों का प्रतिशत कितना कम रहा होगा। सामान्यजन तो मातृभाषा में ही पढ़ता था। राज्यभाषा के साथ-साथ राष्ट्रभाषा का सम्मान देते हुए देशवासी राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से हिंदी भी पढ़ते थे। यह जान कर आश्चर्य होगा कि वह तमिलनाडू,जहाँ कहा जाता है कि हिंदी का विरोध है वहाँ उस समय हिंदी ऐच्छिक विषय होने पर भी १९५२-५३ में ७८.६ फीसदी तथा १९५३-५४ में ८२ फीसदी लोग स्वेच्छा से पढ़ते थे।

१५ अगस्त १९४७ को भारत स्वाधीन हुआ,जनतंत्र की भी स्थापना हुई,लेकिन शासन-प्रशासन,वित्तीय व्यवस्था,न्याय व्यवस्था व शिक्षा व्यवस्था पर आज भी अंग्रेजी का आधिपत्य है। जब व्यवस्था नहीं बदली तो व्यवस्था की भाषा कैसे बदलती ? पीछे देखो,आगे लिखो की नीति पर चलते पूरी व्यवस्था में अंग्रेजी अपने पांव पसारती गई। अब भारत में यह एक अलिखित निर्विवाद सत्य बन गया है कि भारत में बिना अंग्रेजी के तो आप कुछ नहीं कर पाएंगे,और कहीं नहीं पहुंच सकते। इसका कारण स्पष्ट है कि देश की व्यवस्था में जनभाषाओं को वह स्थान नहीं मिल सका,जिसकी अपेक्षा संविधान निर्माताओं ने की थी।

व्यवस्था में जनभाषा के स्थान पर अंग्रेजी के प्रभाव के बढ़ने के चलते आज महानगरों की लगभग पूरी आबादी अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने लगी है। यह रुझान बहुत ही तेजी से छोटे नगरों,कस्बे से होते होते गाँवों तक पहुंच चुका है। सरकारी विद्यालय जहां हिंदी माध्यम से पढ़ाई होती भी है,उनकी हालत इतनी खस्ता है कि वहां पढ़ाई का कोई माहौल ही नहीं दिखता। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसमें उस वर्ग के बच्चे जाते हैं जहाँ प्राय: पढ़ने का कोई विशेष माहौल या रुझान होता नहीं है,धीरे-धीरे ये देश के विकास में अपनी भूमिका खत्म करते जा रहे हैं,जबकि ऐसे ही विद्यालयों से एक समय देश के बड़े-बड़े विद्वान और वैज्ञानिक निकलते थे।

मुंबई में आयोजित ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन-२०१४ ’ में मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए गोवा की तत्कालीन राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा का यह कथन सबसे सटीक है-‘हिंदी को हृदय के साथ-साथ पेट की भाषा बनाना भी आवश्यक है।‘ अर्थतंत्र से कट कर हिंदी या किसी भी भाषा का प्रयोग व प्रसार बढ़ाने के प्रयास सार्थक नहीं हो सकते। इसलिए सबसे आवश्यक है व्यवस्था की पटरी हिंदी व राज्यों की भाषाओं में समानान्तर रूप से इस प्रकार से बिछाई जाए कि शिक्षातंत्र के डिब्बों की सवारी करते हुए देश के युवा रोजगार के हर लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। यदि रोजगार की व्यवस्था न हुई तो हिंदी या किसी भी भाषा में की गई व्यवस्था के तैयार डिब्बे भी खाली ही रहेंगे,उनमें कोई बैठेगा नहीं। यदि रोजगार मिले तो तमाम व्यवस्थाएँ अपने-आप निर्मित हो जाएँगी। माँग-पूर्ति के सिद्धांत के चलते और अर्थतंत्र की व्यवस्था से निजी क्षेत्र सभी व्यवस्थाएँ स्वयं कर लेगा।

उच्च शिक्षा और रोजगार के साथ-साथ देश की व्यवस्था में यदि उन छिद्रों की बात की जाए जिनसे तमाम प्रयासों का जल बह जाता है और हासिल कुछ नहीं होता,तो उनमें कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं-विधि और न्याय व्यवस्था,सूचना की भाषा नियत करना आदिl

हिंदी संघ की राष्ट्रभाषा नहीं,राजभाषा है यानी सरकारी भाषा है। इसी प्रकार राज्यों में भी राज्यों की भाषाएँ वहाँ की राजभाषाएँ हैं। इनके प्रावधान सरकारी कार्यालयों तक सीमित हैं। परिणाम यह कि सरकारी कार्यालयों को छोड़कर किसी के लिए जनभाषा का प्रयोग आवश्यक नहीं है। सरकारी बैंक है तो उसे हिंदी का प्रयोग करना है,गैरसरकारी है तो कोई आवश्यकता नहीं। सभी क्षेत्रों में यही स्थिति है। इसलिए यह आवश्यक है कि हिंदी को संघ की राजभाषा के सीमित दायरे से निकाल कर राष्ट्रभाषा का दर्जा देते हुए हिंदी के प्रयोग को निजी क्षेत्र पर भी लागू किया जाना चाहिए। यही व्यवस्था राज्यों में भी होनी चाहिए,वे राजभाषाएँ नहीं राज्य-भाषाएं होनी चाहिए।

आज सभी सेवाएँ धीरे-धीरे कागज से हटकर अंकीय(डिजिटल)व्यवस्था के अनुसार ऑनलाइन होती जा रही हैं। इसी प्रकार स्थानीय प्रशासन से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न व्यवस्थाएं ई-प्रशासन( ई-गवर्नेंस) से जुड़ रही हैं,जिनसे न केवल पारदर्शिता बढ़ती है बल्कि व्यवस्था भी अपेक्षाकृत चुस्त-दुरुस्त होती है,लेकिन समस्या यह है कि ऑनलाइन सेवाएँ और ई-गवर्नेंस प्राय: अंग्रेजी में होने के चलते इंग्लिश प्रशासन बनता जा रहा है। अगर ये व्यवस्थाएँ जनता के लिए हैं तो जनभाषा में यानी संघ और राज्यों की भाषा में होनी चाहिए। अगर एक पंक्ति में कहें तो बात यह कि देश की जनता के सभी काम उनकी भाषा में सधने ताहिए,राष्ट्र की भाषा और राज्य के स्तर पर राज्य की भाषा।

नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा तथा भारतीय भाषाओं के शिक्षण के प्रावधान अब जन-मन में आशा जगा रहे हैं। भारत सरकार केन्द्रीय स्तर पर उच्च तकनीकी व प्रबंधन शिक्षण संस्थानों में भी हिंदी शिक्षण की व्यवस्था कर रही है। इनके परिणाम कितने परिणामजनक होंगे,यह तो भविष्य बताएगा,लेकिन यह आवश्यक है कि शिक्षा के साथ-साथ रोजगार और व्यवस्था में भी जनभाषा को उचित स्थान दिया जाए,तभी जन गण मन…का सपना साकार हो सकेगा।